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शनिवार, 11 मई 2013

पी.एम.और नमक का दरोगा

        यह शीर्षक देख कर आप चौंक गए होंगे कि आखिर पी.एम. और नमक के दरोगा में क्या संबंध है.चलिए बताता हूँ.

       "नमक का दरोगा" मुंशी प्रेमचंद की सुप्रसिद्ध कहानी है जो उस देश-काल की है जब ब्रिटिश सरकार ने नमक पर टैक्स लगा दिया था.आप लोगों में से कई लोगों ने यह कहानी पढी भी होगी.नमक के दरोगा का नायक वंशीधर एक चरित्रवान,कर्तव्यपारायण नवयुवक है जो अपनी ड्यूटी के प्रति वफादार, मुस्तैद,पक्का और पाबंद है.एक दिन रात में उसे यमुना के पुल पर से गुजरती गाडियों की आवाज और कोलाहल सुनाई देता है. वह वर्दी पहन कर,अपने जमादार को साथ में लेकर पुल पर पहुँच जाता है.नमक का दरोगा कडकती हुई आवाज में गाडियों को रुकने का आदेश देता है और पूछता है कि गाडियाँ किसकी हैं.गाडी का कोचवान पं अलोपीदीन का नाम लेता है जो दातागंज के प्रसिद्ध जमींदार,रईस और व्यापारी हैं. वह गाडियों से अपने घोडे को सटा कर लदे हुए बोरों की टोह लेता है तो उसका शक पुख्ता हो जाता है  कि उनमें नमक है जो  टैक्स की  चोरी करते हुए  कांनपुर ले जाया जा रहा है. नमक का दरोगा पं अलोपीदीन  को बुलाने का हुक्म देता है. पं अलोपीदीन आते हैं और दरोगा वंशीधर को रिश्वत देकर बचने का प्रयास करते हैं.वे एक हजार से आरंभ कर चालीस हजार तक का प्रस्ताव देते हैं. वंशीधर कहता है कि चालीस हजार  तो क्या चालीस लाख भी उसके ईमान को डिगा नहीं सकते और जमादार को उन्हे हिरासत में लेने का हुक्म देता है. पं. अलोपीदीन न्यायालय
द्वारा छोड दिए जाते हैं क्योंकि न्यायतंत्र और प्रशासन सभी बिके हुए थे.दरोगा वंशीधर मुअत्तल होकर घर चले आते हैं.कुछ दिनों के बाद उनके घर पर पं. अलोपीदीन पधारते हैं  और उनके चरित्र की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए उन्हे प्रचुर  वेतन और सुविधाओं के साथ अपनी समस्त एस्टेट और जायदाद का मैनेजर नियुक्त करने का प्रस्ताव देते हैं  जिसे थोडे ना-नुकुर के बाद वंशीधर स्वीकार कर लेते हैं.

        बहुत पहले कभी लखनऊ में एक परिचर्चा के दौरान सुप्रसिद्ध लेखिका शिवानी  ने इस कहानी को असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक बताते हुए  प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से  एक बताया था.उस परिचर्चा में उपस्थित मेरे  ताऊजी ने इसकी चर्चा मुझसे करते हुए कहा था कि मैं शिवानी के कथन से सहमत नही हूँ क्योंकि प्रेमचंद की इस  कहानी में अंततोगत्वा एक ईमानदार आदमी एक बे‌ईमान आदमी का नौकर बन जाता है.  इस कहानी में अंतरनिहित एक अन्य संदेश यह है कि बे‌ईमान लोगों को  भी  अपने मामलों का प्रबंधन करने के लिए ईमानदार लोगों की जरूरत अनुभव होती है.

       परसों जब किसी पत्रकार ने सुश्री रेणुका चौधरी से यह प्रश्न किया कि सी.बी.आई. की कोयला घोटाले से संबंधित रिपोर्ट बदले जाने में पी.एम.ओ. के अधिकारियों की भी संलिप्तता पाई गई है और इस प्रकार क्या रिपोर्ट बदले जाने का दोष  प्रधानमंत्री पर भी नहीं आता तो सुश्री रेणुका चौधरी का कहना था कि प्रधानमंत्री अपनी ईमानदारी के लिए विख्यात  हैं और उन पर किसी प्रकार का प्रश्नचिह्न नही लगाया जा सकता.कांग्रेस पार्टी और उसका नेतृत्व, जब भी कोई मामला उछलता है,प्रधानमंत्री की ईमानदारी की दुहाई देना शुरू कर देती है या यूँ कहें कि उसकी शरण लेने का प्रयास शुरू कर देती है.यह बात मुझे सहज पं अलोपीदीन और वंशीधर का स्मरण करा देती है.जब वंशीधर, पं अलोपीदीन के चाकर बन गए होंगे तो उसके बाद पं अलोपीदीन भी यह कहने की स्थिति में रहे होंगे कि मेरे मैनेजर की ईमानदारी तो विख्यात है फिर मेरे यहाँ कोई बे‌ईमानी कैसे हो सकती है.दूसरी बात यह है कि जब पं अलोपीदीन का सारा साम्राज्य शोषण और बे‌ईमानी पर आधारित था तो उनके साथ जुड  कर कितने दिन वंशीधर अपनी आत्मा को बचाए रख सके होंगे.

        उक्त पर मुझे साहित्यिक जनों की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

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