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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

प्रतिभाएं पुरस्कारों की मोहताज नहीं होतीं!

        इन दिनों भारतरत्न पुरस्कार को लेकर  विवाद का बाजार गर्म है. किसी का कहना है कि सचिन को भारत रत्न मिलने से पहले ध्यानचंद के नाम पर विचार  किया  जाना चाहिए था तो   किसी ने प्रश्न उठा दिया है कि अटल बिहारी  बाजपेयी के नाम पर भारतरत्न दिए जाने के लिए विचार क्यों नहीं किया गया. सवाल वाजिब भी है.जब खान अब्दुल गफ्फार खाँ और राजीव गाँधी को भारतरत्न दिया जा सकता है तो फिर अटल बिहारी बाजपेयी की दावेदारी इन  लोगों से किसी भी दृष्टि से कम नहीं कही जा सकती.पर मनीष तिवारी ने इसका स्पष्टीकरण भी दे दिया है कि चूँकि अटलजी ने नरेंद्र मोदी को राजधर्म की नसीहत देने  के बावजूद हटाया नहीं  था इसलिए उनकी दावेदारी नही बनती. गोया कि मनीष तिवारी ने  इतनी काबलियत हासिल कर ली है कि वे अटलजी के बारे  में निर्णयकर्ता की भूमिका  में आ गए हैं.

       पर इन सबसे ऊपर लाख टके की बात डॉ. फार्रूक अब्दुल्ला ने कही है कि अटलजी का व्यक्तित्व भारतरत्न पुरस्कार से बडा है  और मुझे यहाँ यह कहने   में कोई  संकोच नहीं है कि  सचिन का व्यक्तित्व भी भारतरत्न पुरस्कार  से बडा है. सचिन, सचिन ही रहता भले ही उसे भारतरत्न पुरस्कार दिया जाता या नहीं.क्रिकेट और खेल के इतिहास में  सचिन का आकलन भारतरत्न न दिए जाने पर भी महानतम बल्लेबाजों में से एक के तौर पर होता और भारतरत्न दिए जाने के बाद भी उसी तरह होगा.  ध्यानचंद हाकी के जादूगर कहलाते रहेंगे,उन्हें भारतरत्न नहीं मिला तो क्या. ऐसे ही अटलजी की सेहत पर भी भारतरत्न पुरस्कार न मिलने से कोई फर्क नहीं पडता. उनका आकलन इतिहास में भारतरत्न न मिलने पर भी वैसे ही अपना कार्यकाल पूरा करने वाले प्रथम और संभवत:  महानतम गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री ( कम से कम आज की  तिथि तक) के तौर होगा जैसे यह पुरस्कार मिल जाने की   स्थिति में होता.

        जो व्यक्ति वास्तव में महानता प्राप्त कर लेते हैं वे पुरस्कार पाकर सम्मानित होते हैं ऐसा मानना मेरे विचार से गलत है बल्कि इसके उल्टे उन्हें पुरस्कार दिए जाने पर उस पुरस्कार की गरिमा बढती है. नवोदित हो रहे व्यक्तियों के लिए अवश्य पुरस्कार  मान्यता दिलाने में मददगार होते हैं यथा अरुंधति रॉय और अरविंद अडिगा को बुकर पुरस्कार ने अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में साहित्यकार  के रूप में स्थापित किया. पर चेतन भगत ने  अंग्रेजी साहित्य के ही क्षेत्र में अपनी पहचान अपनी  पाठकसंख्या के आधार पर बनाई है,किसी पुरस्कार के दम  पर नहीं.

          दुनिया में दिए जाने  वाले बहुत से पुरस्कार पूरी तरह निष्पक्ष और मेरिट पर आधारित नहीं होते.उदाहरण के लिए श्री बैरक ओबामा को सत्ता संभालने के छ: महीनों के भीतर मात्र इस आधार पर शांति के लिए नोबल पुरस्कार दे  दिया गया कि उन्होने अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के बारे में अपने इरादों की घोषणा कर दी  थी पर इस दिशा में कुछ ठोस किया जाना शुरू भी नहीं किया गया था. बिल गेट्स ने अपने एक वक्तव्य में कहा  था - Life  is  unfair,  get  used  to  it. मुझे कई बार  पुरस्कार मिले हैं . कई बार मैंने बडी मेहनत से पुरस्कृत कामों से भी श्रेष्ठ कार्यों  को अंजाम  दिया है पर तब कोई  पुरस्कार नहीं  मिला. कारण यह है कि तब कोई प्रस्तावक नहीं था. इन दिनों कई बार पुरस्कार लाबीइंग के कारण मिलते हैं या फिर प्रायोजित होते हैं अथवा इनके पीछे कई बार अन्य कारण जैसे मेरिट छोडकर अन्य कारणों से  किसी के लिए निर्णयकर्ताओं में किसी का पक्षधर होना होता  है  . अत: पुरस्कार मिलने पर फूल कर कुप्पा होना अथवा पुरस्कार न मिलने पर मन मसोसना मेरे विचार से गलत है. हाँ यह जरूर है कि यदि वाकई में आपने काम किया है तो प्रसन्नता और संतोष जरूर होता है कि किसी ने आपके कार्य को मान्यता दी.पर यदि आपके मन में अपने काम को लेकर संतोष है और पुरस्कार न मिलने पर भी लोग आपके काम की महत्ता को समझते हैं तथा उसे मान्यता देते हैं तो  इसे ही सबसे बडा पुरस्कार समझा जाना चाहिए.

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