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सोमवार, 25 नवंबर 2013

कार्यस्थलों पर महिलाओं एवं लडकियों की सुरक्षा!

          पिछले कुछ दिनों  अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों के दामन  पर चारित्रिक पतन के छींटों  दाग लगे  हैं. वे एक अहम सवाल सामने खडा करते हैं कि क्या लडकियों को कहीं भी सुरक्षित समझा जा सकता है.  बुजुर्गवार बाप सरीखे वे बास जिन्हें पहले से नैतिकता के रखवाले के रूप में ख्याति मिली हुई है यदि अवसर पाते  ही शैतान का रूप धारण कर लेते हैं तो  हम अपनी लडकियों की सुरक्षा कैसे करें . नि;संदेह आप सबको एक तराजू पर  नहीं तौल सकते, पर घटित घटनाएं यही बताती हैं कि कहीं भी आप इस प्रकार की संभावना से इन्कार नहीं कर सकते.

          कन्सेन्सुअल सेक्स,एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशनशिप और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे शब्द कुछ अर्से से  ज्यादा सुनाई देने लगे हैं और इनका प्रचलन बढा है. इनसे संबंधित चर्चा के दौरान अब ऐसे लोग आपको अच्छी तादाद में मिल जाते हैं जो कहते  हैं कि यदि दो वयस्क पक्ष इनके लिए सहमत हैं तो आपको क्या परेशानी है.इन शब्दों ने समाज के नैतिक आवरण या मोरल फैब्रिक को भेद्य बना दिया है और इस आवरण के भेद्य बन जाने पर संबंधित या इन अवधारणाओं से प्रभावित व्यक्ति संभावनाओं के द्वार  खोजने  लगता है. इन  विषयों पर  आधारित फिल्मों और सीरियलों ने भी इनके प्रचार-प्रसार और स्वीकार्यता  में योगदान  दिया है.संभावनाओं का द्वार खोजने वाला  व्यक्ति यदि उच्चतर स्थ्ति में है या उसके पास किन्ही अंशों में  सत्ता का कोई अंश है तो वह शिकारी की भूमिका में आ जाता है और बतौर शिकारी लाभप्रद स्थिति में होता है.  शिकार हमेशा ताकतवर द्वारा कमजोर का किया जाता  है. यह  शिकारी पंचतंत्र की  कहानियों के उस शेर की तरह होता है जो बूढा हो जाने पर सन्यासी  का वेश धारण कर लेता है और अपने संपर्क में आने वाले पशुओं को  आश्वस्त करता है कि वह साधु हो गया है तथा वे उसके साथ पूरी तरह सुरक्षित हैं.जब वह शेर पर  भरोसा कर  लेता है तब शेर उसका शिकार कर डालता है.

          इन दिनों समाचारपत्रों में आए मामलों के  अलावा  भी अपने कार्य के दौरान  मैंने इस तरह के कृत्य सुने-देखे हैं.मामला खुल जाने पर उन्हें दबाने  की कोशिश होती है क्योंकि संगठन की बदनामी का सवाल होता है और जहाँ यह नहीं संभव हो पाता है वहाँ ज्यादातर मामले जाँच समिति बिठाकर तथा छोटी-मोटी सजा देकर निपटा दिए जाते  हैं.यदि मामला बडे बास का होता  है तो दूसरे बडे अफसरों की सहानुभूति उनके साथ होती है.

          पर इन सारी समस्याओं के मूल में समस्या यह है कि हमने अपनी लडकियों को आज्ञाधीनता और विनीत भाव वाला बनाकर वश्य एवं  कमजोर बना दिया है. आज  कानून पहले से सख्त हुआ है और उनके माध्यम से लडकियाँ कार्यस्थलों पर बेहतर सुरक्षा प्राप्त कर सकती हैं,पर वे इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं. यदि लडकियाँ कार्यस्थलों  पर  किसी वरिष्ठ के  गलत  इरादे और अनाधिकार चेष्टा     दिखने पर उसका तुरंत तीव्र विरोध करें और बास के द्वारा इसके परिणामस्वरूप उत्पीडन की तथा  यहाँ तक कि काम छूट जाने की भी परवाह न करें तो वे साधुवेशधारी बासों के गलत इरादों को विफल कर सकेंगी. पर एक दु:खद तथ्य यह भी है कि कभी-कभी कुछ लडकियाँ  यह पाने  पर कि बास उनमें रुचि ले रहा है, उसे रोकने के स्थान पर  गौरवान्वित अनुभव  करती हैं अथवा उसका फायदा उठाने में लग जाती हैं  जिससे  वरिष्ठ को इस प्रकार की गतिविधियों के  लिए और प्रोत्साहन मिलता है.

          लडकियाँ ऊपर बताई गई परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हों इसके लिए आवश्यक है कि उनका  पालन-पोषण करते समय लडके-लडकी जैसा कोई भेदभाव न किया जाए. लडकियों को निर्भीक , साहसी और दबंग  बनाया जाए.मैंने व्यवहार में  देखा है कि ऐसी लडकियों के साथ कोई भी बास दु:साहस नहीं  कर पाता अथवा फिर एक बार ठीक से डाँट खाने पर  सुधर जाता है. दृढतापूर्वक विरोध ऐसी स्थितियों से निपटने का सबसे कामयाब अस्त्र है.

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