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रविवार, 20 अप्रैल 2014

रणनीतिक कौशल का अस्त्र - चरणस्पर्श ! (व्यंग्य/Satire)

           हमारी भारतीय संस्कृति में चरणस्पर्श की महिमा अपरम्पार है. सहज श्रद्धावश जब हम अपने से किसी  बडे का  पैर छूते हैं तो नि:संदेह वह हमारी अंतरंग भावनाओं का परिचायक होता है. पर मैंने कई बार देखा है कि चरणस्पर्श का इस्तेमाल किसी को  खुश करने के लिए और काम साधने के लिए सर्वाधिक प्रभावी अस्त्र  के तौर पर किया जाता है.   इसका उपयोग बडे-बूढों को मनाने के लिए भी किया जाता है. कई बार प्रयोगकर्ता कूटनीतिक तौर पर इसका इस्तेमाल करता है. मेरे पिताजी कहते थे कि जो  ज्यादा झुक कर पैर छुए उससे सदैव सावधान रहना चाहिए और भक्तिकाल के किसी कवि का इस आशय  का एक दोहा सुनाते थे जो अब  मुझे याद नहीं  है. मुझे ऐसे कुछ मामले मालूम हैं जहाँ लोगों ने सर्वोच्च नेताओं के पैरों पर  गिरकर एम एल ए और एम पी के टिकट तक ले लिए. एक विभाग में मैंने कुछ दिनों तक काम किया. इस विभाग में चाटुकारिता  का बडा महत्व था.यहाँ कुछ अफसर सार्वजनिक रूप से बडे साहब का पैर  छुआ करते थे क्योंकि अच्छी सीट मिलना उनकी कृपा से ही संभव होता था. मैं ऐसा नहीं करता था. इसलिए यदि कभी ऐसे किसी अफसर के साथ बडे साहब के सामने होता था तो बडी असमंजस की स्थिति पैदा हो जाया करती थी. वह तो बडे साहब के पैर छूता और मैं  सामान्य रूप से नमस्कार कर खडा रहता था और मन में सोचता कि बडे साहब शायद मन ही मन मेरी  तुलना उस अफसर से कर रहे होंगे और मुझे अकडू,विनम्र भाव से रहित या निकृष्ट समझ रहे होंगे. लेकिन मैं तब आश्चर्य से भर जाता जब इन चरण स्पर्श करने वालों को  अन्यत्र बडे साहब के  लिए भला-बुरा कहते हुए सुनता और मेरे मन में होने वाली प्रतिक्रिया उन्हें निकृष्ट जीव समझने लगती  . 

          भाजपा में नरेंद्र मोदी की ताजपोशी की प्रक्रिया जब से शुरू हुई  है तब से ही पार्टी के कुछ बूढे उनके लिए सिरदर्द बने हुए हैं. पहले तो आडवाणी जी ने शिवराज सिंह चौहान को अटलबिहारी की  श्रेणी का और प्रधानमंत्री बनने के सर्वथा योग्य बताया, फिर राष्ट्रीय कार्यकारिणी से इस्तीफा देकर मोदी के  रंग में भंग डाला. कैसे करके माने भी तो मन मसोसे हुए ही दिखे .  आखिरकार उनको प्रसन्न करने के लिए नरेंद्र मोदी ने रामबाण चलाया. शिवराज सिंह चौहान का अनुकरण करते हुए उन्होंने आडवाणीजी के सार्वजनिक रूप से पैर छुए तब कहीं महीनो बाद जाकर  आडवाणीजी का उन्हें आशीर्वाद मिला. फिर भी यह आशीर्वाद कितना गहन या सतही था यह शोध का विषय हो  सकता है क्योंकि बीच-बीच में आडवाणीजी की नाराजगी दिखाई  दे जाती है. हाल ही में भोपाल जाने को आमादा आडवाणी की बाँह खींचकर राजनाथजी को उन्हें वापस गाँधीनगर लाना पडा. आडवाणीजी के वफादार शिष्य और शिष्याएं भी अपने मत-मतांतर समय-समय पर प्रकट करते रहते हैं. जसवंत सिंह तो ऐसे नाराज हुए कि उन्होंने अतिकुपित बूढे की तरह पैर पीछे खींच लिए ताकि उन्हें छूने का किसी को मौका ही नहीं मिले और फिलहाल बाडमेर में अंगद  की तरह अडे हुए हैं लेकिन वसुंधरा राजे उन्हें ग्रीक माइथोलॉजी का कमजोर एडियों वाला नायक एशिलेस(Achilles) सिद्ध करने पर तुली हुई हैं . 

          कुछ दिनों पहले नरेंद्र मोदी ने मुरली मनोहर जोशी की  संसदीय सीट छीनकर उन्हें भी संत्रस्त कर दिया. जोशीजी ने भी मोदी  समर्थकों के सारे उत्साह पर पानी डालते  हुए कह दिया कि देश में मोदी की कोई लहर नहीं चल रही है,जो लहर है वह भाजपा की  है और गुजरात का विकास  माडल पूरे  देश के  लिए उपयुक्त  नहीं है  हर प्रदेश को अलग-अलग विकास माडल चाहिए. अंततोगत्वा नरेंद्र मोदी ने जोशीजी को प्रसन्न करने के लिए उनका भी सार्वजनिक रूप से पैर छुआ तथा  आगे बढकर अपने बैठने के लिए मंगवाई गई कुर्सी पर भी जोशीजी को बिठा दिया. मोदी को उम्मीद है कि इस प्रकार ब्राह्मण देवता का कोप शांत हो जाएगा. कुल मिला कर नरेंद्र मोदी की पीछे हटकर जीत (Retreat for victory) की यह नीति  दर्शाती है कि वे एक कुशल रणनीतिकार हैं. पर आगे चलकर उन्हें देश की समस्याओं को हल करने के लिए अपना अहं किनारे  रखकर इसी प्रकार के विनम्रता भरे रणनीतिक कौशल का परिचय बारंबार देना होगा.

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