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गुरुवार, 8 मई 2014

क्या मोदी निरंकुश बनेंगे!

          आजादी के कुछ दिनों पहले जब  नेहरूजी की लोकप्रियता अपने चरमोत्कर्ष पर थी, उन्होंने 'चाणक्य' के छद्म उपनाम से एक लेख लिखा जिसमें उन्होंने लिखा था कि जनता में जवाहरलाल नेहरू की लोकप्रियता इतनी बढ गई है कि  वह भविष्य में एक तानाशाह बन सकता है तथा उन्होंने इस खतरे के प्रति जनता को आगाह किया था. आज जब मोदी की सभाओं और रैलियों में भारी भीड उमड रही है ,मुझे लगता है कि यही सवाल मोदी को खुद से करना चाहिए. 

          मोदी राजनीति के इतने चतुर खिलाडी बनकर उभरे हैं कि उनके विरोधी उनके खिलाफ वक्तव्य के रूप में जिस भी अस्त्र का इस्तेमाल करते हैं,वे उसकी धार को को कुंद करते हुए अपनी तरफ से उसे नई धार देते हुए अपने उन्हीं विरोधियों पर वापस फेंक देते हैं जिससे उनके विरोधी हतप्रभ रहने, मन मसोसने या तिलमिलाने के लिए विवश  हो जाते हैं और ऐसी मन:स्थिति के साथ जब वे वापस मोदी पर हमला करते हैं तो फिर मोदी के हाथों में नया हथियार थमा देते हैं. उनकी  भाषण शैली जिसमें अभिधा के साथ लक्षणा और व्यंजना का पर्याप्त पुट होता है और जिसके साथ वे अपनी अभिनय क्षमता का भी उपयोग करते हैं भा.ज. पा. के किसी भी वर्तमान या पूर्व नेता के नजदीक होने के बजाय बाला साहब ठाकरे की शैली के कहीं ज्यादा नजदीक है. पर इसके साथ उनकी खूबी यह है कि वे जहाँ भी भाषण देने जाते हैं, वहाँ के बारे में अपना होमवर्क अच्छी तरह करके जाते हैं. साथ  ही इन भाषणों में एक दिन पहले तक विरोधियों द्वारा दिए गए वक्तव्यों के आधार पर इनपुट शामिल किए जाते हैं. उन्होंने कांग्रेसमुक्त भारत का नारा दिया है. उनकी आक्रामक शैली को देखते हुए उनके समर्थक भी आक्रामक हो चले हैं.  पर इस आक्रामकता के जुनून में  शायद उन्होंने इस तथ्य की उपेक्षा की है कि मजबूत विपक्ष किसी भी लोकतंत्र का सबल स्तंभ होता है. मजबूत और सजग विपक्ष के अभाव में सत्ताधारी दल के निरंकुश हो जाने का खतरा बढ जाता है.    

          ऐसे में जब मोदी के विरोधी बार-बार यह कहते हैं कि मोदी के शासन में आ जाने पर उनके निरंकुश बन जाने का,उनके समर्थकों के उपद्रवी बनकर तांडव करने का और समाज के साम्प्रदायिक आधार पर विभाजित हो जाने का खतरा है तो स्वत: मस्तिष्क इस प्रकार की संभावना को वास्तविकता की तराजू पर तौलने  लगता है.न्यूयॉर्क में आयोजित 10वें वार्षिक पेन वर्ल्ड वॉयसेज  फेस्टिवल में बोलते हुए लेखक एवं उपन्यासकार श्री सलमान रुश्दी ने  कहा- मैं मोदी द्वारा चलाई जाने वाली सरकार के बारे में चिंतित हूँ.इस प्रकार की अच्छी- खासी संभावनाएं मौजूद हैं कि यह लोगों के साथ जोर-जबर्दस्ती वाली सरकार होगी. बी. जे. पी. अभी सत्ता में  आई नहीं है पर पत्रकारों और लेखकों के साथ बुली जैसा व्यवहार हो रहा है. मैं श्री रुश्दी के कथन के बाद के अंश से सहमत नहीं हूँ क्योंकि मुझे अभी किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी प्रकार बाधित होती नहीं दिख रही है.है. श्री रुश्दी देश को दूर से देख रहे हैं इसलिए संभव है कि उन्होंने कुछ सुनी हुई बातों के आधार पर कुछ निष्कर्ष निकाल लिए हों. श्री सलमान रुश्दी ने इस मौके पर आगे कहा कि यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार होता है, यदि धार्मिक स्वतंत्रता को धमकी दी जाती है और यदि समाज का एक अंश अपनी सुरक्षा को लेकर भयग्रस्त रहता है तो ऐसे समाज को  सच्चे अर्थों में लोकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता. सलमान रुश्दी की यह बात निश्चय ही सहमतियोग्य है पर यहाँ भी मुझे लगता है कि उन्होंने भारतीय समाज को अधिक भीरू मान लिया है जो लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन होने पर भी चुप बैठा रहेगा. शायद लम्बे समय से भारतीय समाज से दूर रहने के कारण वे इसकी शक्तियों से परिचित नहीं हैं.

          सलमान रुश्दी और इसी तरह तमाम लोगों की आशंकाओं के मद्दे-नजर लेफ्टिनेंट जनरल जहीरुद्दीन शाह  जिन्होंने गुजरात दंगों को नियंत्रित करने के लिए सेना का नेतृत्व किया था और वर्तमान में अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर हैं का यह कथन ध्यान देने योग्य है- दंगे मोदी के शासन के दौरान हुए पर मैं इस तथ्य से वाकिफ हूँ कि जब किसी को राष्ट्र की सेवा करने की जिम्मेदारी दी जाती है तो उनमें बदलाव आता है.उनके ऊपर सारे देश को लेकर आगे बढने का दबाव होता है. कोई भूतकाल में कैसा भी रहा हो जिम्मेदारी उनमें परिवर्तन लाती है.बेकेट कैंटरबरी के राजा के मित्र थे  और उन्हें आर्कबिशप की जिम्मेदारी दी गई पर शक्ति मिलने पर  उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उन्हें लोगों की सेवा करनी है राजा की नहीं.

          हाल ही में मोदी के कई साक्षात्कार आए  हैं जिनमें वे भाषणों के दौरान दिखाई देने वाली अपनी छवि के विपरीत देश की समस्याओं पर विचारशील ,विश्लेषणात्मक और निहायत ही संतुलित व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं.यहाँ तक कि वे अमेरिका द्वारा स्वयं को वीजा न दिए जाने  को दोनों देशों के बीच कोई मुद्दा बनाने से सहमत नहीं हैं.वे पाकिस्तान से चाहते हैं कि वह अपनी धरती से प्रायोजित होने वाले आतंकवाद को नियंत्रित करे और इसके साथ ही उसके साथ संबंधों को सुधारने के हामीकार हैं.उनका कहना है कि चीन के साथ हमारी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है.

          इस सबके मद्दे नजर मुझे लगता है कि हमें आशंकाओं से परे रहकर जडता का शिकार नहीं होना चाहिए.जडता मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति होती है और इसके कारण वह किसी भी प्रकार के परिवर्तन का विरोध कर यथास्थितिवाद का समर्थन करता है. जबकि परिवर्तन सदैव कुछ नया सृजित करता है. समुद्रमंथन से विष और अमृत दोनों ही निकले थे पर  विष को अंततोगत्वा कोई शिव धारण कर लेता है और अमृत से समाज का भला होता है. .

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