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रविवार, 14 सितंबर 2014

प्रकृति का दुर्लभ लौकिक संगीत!-1 (विमर्श )


      

        " कई साल पहले की बात है मैं अपने एक मित्र से मिलने गया था जिनका घर नदी के किनारे था। उस घर के पास पेडों के सिलसिले थे।वह दृश्य कुछ जंगल जैसा था हालाँकि उसे जंगल कहना ठीक नहीं । मैं अपने मित्र से मिलने के बाद पेड़ों के बीच घूमने निकल गया । मुझे उस वातावरण में अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ । यह अहसास काफी गहरा था और कुछ समय के लिए वहीं बैठ गया । फिर कुछ देर बाद जब मैं उस अनुभूति से बाहर निकला तो मुझे वर्ड्सवर्थ की वह पंक्ति याद आयी जिसमें उन्होंने प्रकृति में मनुष्यता का दर्द भरा संगीत सुना था।
           यह अनुभूति कहीं से भी धार्मिक नहीं थी। मगर वह अहसास आज भी बना हुआ है। मैं इस प्रकार की अनुभूतियों को आध्यात्मिक ही कहूँ गा।"- रघुवंशमणि (मेरे मित्र)

                                               प्रकृति का दुर्लभ संगीत बनाम धर्म का व्यवसाई रूप
          रघुवंशजी! आपने जिस वातावरण की चर्चा की है संयोग से मैं पिछले सात वर्षों से कुछ वैसे ही स्थान पर रहता हूँ. जब मैं शुरू में इस स्थान पर आया तो जैसा आपने कहा वैसा ही कुछ मुझे अनुभव हुआ. मैं इस वातावरण में भ्रमण कर आनंदातिरेक से भर जाता था.गंगा के किनारे बैठना ,जाती हुई लहरों को देखना, वृक्ष आच्छादित सुरम्य वातावरण मन को निस्सीम शांति से भर देते थे. यह मेरा नित्य का क्रम बन गया. यह स्थिति तीन-चार वर्षों तक रही. इस बीच पत्नी ने यहाँ अध्यापनकार्य शुरू कर दिया . आगे चलकर माँ की तबियत भी गडबड रहने लगी जिससे मेरे लिए यह अनिवार्य हो गया कि मैं प्रात: घर में पत्नी की सहायता करूँ ताकि वह समय पर विद्यालय के लिए निकल सकें. इस प्रकार नित्य प्राकृतिक सानिध्य का जो क्रम मैंने बनाया था वह टूट गया. पर कई बार जब प्रात: मैं अपनी खिडकी से बारिश की फुहारें पडता देखता हूँ तो ऐसी स्थिति में मेरा मन पिंजरें में कैद पंछी की तरह फडफडाता है और मैं बाहर निकलने को आतुर हो उठता हूँ. पहाडों पर भी मैंने प्रकृति की सामीप्यता के सुख का अनुभव किया है पर वह सरिता या समुद्रतट के जैसी अनिर्वचनीय नहीं प्रतीत हुई. मैंने इसके विश्लेषण का प्रयास किया और मुझे लगा कि संभवत: इसका कारण पहाड का जड होना है जबकि नदी या सागर सदैव गतिमान दिखाई देते हैं. आवश्यक नहीं है कि दूसरे की अनुभूति भी मेरी तरह हो क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अनुभूति का स्तर भी अलग-अलग होता है.मैं इसे प्रकृति में मनुष्यता का दर्द भरा संगीत नहीं बल्कि प्रकृति के दुर्लभ लौकिक संगीत की संज्ञा दूँगा. 

          इसके विपरीत कई धार्मिक स्थलों पर जहाँ पंडे-पुजारी, धार्मिक ग्राहक को लुभाने या उससे पैसा वसूलने की होड सी करते दिखाई देते हैं मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है और धर्म का व्यवसाई रूप देख कर मन क्षुब्ध हो जाया करता है. मैं बीस वर्ष पूर्व कोलकाता के कालीघाट मंदिर गया था उसके बाद दोबारा नहीं गया. इस वर्ष एक मित्र के आगमन पर बीस वर्ष बाद पुन:गया और फिर से वही विक्षुब्ध कर देने वाला अनुभव रहा. इसी प्रकार वर्ष 2008 में मैं जगन्नाथपुरी गया था. मेरी एक सहकर्मी ने मुझसे कहा था -"दादा आप एक दिन पुरी का मुख्य मंदिर देखने के बाद अगले दिन एक आटो कर लीजिएगा और वह आपको नगर के सारे मंदिर घुमा देगा!" पर पुरी के मंदिर में पंडों और धर्म का व्यवसाई स्वरूप देखने के बाद अगले दिन किसी मंदिर में जाने के बजाय मैंने अपना दिन समुद्र के किनारे बिताना बेहतर समझा. मैं नहीं समझ पाता कि जहाँ किसी बाजार का सा कोलाहल है वहाँ कैसे कोई कुछ पल के लिए भी ध्यान लगा सकता है या कोई इहलौकिक अनुभव कर सकता है.

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