hamarivani.com

www.hamarivani.com

सोमवार, 17 नवंबर 2014

इस देश में कुम्भकर्ण ही कुम्भकर्ण हैं!

          कुछ माह पूर्व गंगा की सफाई के मामले में एक मामले की सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की तुलना कुम्भकर्ण से की थी . माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी को पढकर मेरे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया थी कि केवल केंद्र सरकार ही क्यों इस देश में तो कुम्भकर्णों की भरमार है . अगर कुम्भकर्णों की भरमार न होती तो बिलासपुर के नसबंदी कांड जैसी घटनाएं जिसमें अब तक पंद्रह महिलाओं की मौत हो चुकी है बार-बार क्यों घटित होतीं या फिर तीस वर्ष पूर्व घटित ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के अंतिम फैसले का आज भी इंतजार क्यों रहता. बी सी सी आई के पदाधिकारी आई पी एल बेटिंग की तरफ से मुँह फेरे दूसरी दिशा में देखते बैठे न रहते।अपने कर्तव्य से आँख मूँद कर बैठे रहने वाले कानून व्यवस्था को देखने वाले अधिकारी न होते तो जादवपुर के निकट हुए राजनीतिक संघर्ष में एक व्यक्ति की यूँ ही जान न चली गई होती और यही क्यूँ , शायद  रोज घटने वाली तमाम सारी आपराधिक घटनाएं इतनी तादाद में न घटतीं.

          देश को अपने गिरफ्त में ले चुकी कुम्भकर्णी प्रवृत्ति  का एक उदाहरण स्वयं मेरे साथ है. सन 2005 में मेरे विभाग ने सेवानिवृत्ति के नजदीक पहुँच चुकी एक महिला को जो मुझसे कनिष्ठ थी पदोन्नति प्रदान कर दी जिसके कारण  अंततोगत्वा मुझे न्यायालय की शरण लेनी पडी. सन 2011 में लंबी लडाई के बाद कैट ने मेरे पक्ष में फैसला दिया जिसके बाद मामला उच्च न्यायालय में चला गया. उच्च न्यायालय में मैं विभाग द्वारा पदोन्नति में की गई घोर अनियमितता और इस संबंध में कैट में विभाग द्वारा दिए गए झूठे वक्तव्यों को प्रकाश में ले आया. इसका परिणाम यह हुआ कि विभाग ने संपूर्ण समर्पण करते हुए मुझे जल्द से जल्द पदोन्नति देने का वायदा कर मामले को समाप्त करने का निवेदन किया. उच्च न्यायालय ने यह निर्देश देते हुए कि मुझे पीछे जिस तिथि से पदोन्नति मिल जानी चाहिए थी उसी तिथि से पदोन्नति दी जाए, मामले को समाप्त कर दिया. माननीय उच्च न्यायालय ने विभाग के इस निवेदन पर कि मामले को यू.पी.एस.सी. भेजना पडेगा और वहाँ से अनुमत्य होकर आने में एक साल लग जाएंगे उन्हें एक साल का समय अपने द्वारा दिए गए निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए दे दिया. तब से लगभग  तीन वर्ष का समय होने को आया मैं अभी भी अपनी पदोन्नति का इंतजार ही कर रहा हूँ . गत वर्ष मैंने निर्णय का कार्यान्वयन न होने के कारण माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष 'न्यायालय की अवमानना' का मामला दायर किया परंतु इसके बाद डेढ वर्ष से अधिक का समय होने को आया मेरे केस की लिस्टिंग ही नहीं हो रही है. वकील कह देता है- 'देयर इज नो बेंच'. जब  मैंने वकील से परामर्श किया तो उन्होंने कहा कि मेरे केस में निर्णय देने वाले दोनों जज अलग बेंचों में चले गए हैं पर चूँकि निर्णय उनका था इसलिए अवमानना का मामला भी नियमानुसार  उनके ही द्वारा सुना जाएगा. जब तक उक्त दोनों जज आपस में बात कर विशेष रूप से मेरे मामले को सुनने के लिए तिथि नहीं निर्धारित करेंगे  तब तक मेरा मामला सुना नहीं जाएगा. सप्ताह में केवल एक घंटे का समय अवमानना के मामलों को सुनने के लिए निर्धारित है. उसमें भी मेरे मामले में जजों के अलग-अलग होने के कारण - जो ब्रोकेन बेंच कहलाती है , मामले के सुने जाने की संभावना अत्यंत क्षीण है. कुल मिलाकर इसके सिवाय कि मैं हाथ पर हाथ धरे न्यायालय की कृपा का इंतजार करता रहूँ कोई चारा नहीं है और यह कृपा कब होगी इसका भी कोई भरोसा नहीं है. मैंने अन्य वकीलों से भी बात की पर सबने हाथ खडे कर दिए. इस प्रकार कैट से और फिर उच्च न्यायालय से ( और वह भी विभागीय संपूर्ण समर्पण के बाद) दस साल तक लडाई लड कर मामला जीतने के बाद भी मेरी हालत 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' वाली है क्योंकि मेरे द्वारा दायर किए गए न्यायालय की अवमानना के मामले की जल्दी या निकट भविष्य में सुनवाई की कोई आशा नहीं है. वे विभागीय अधिकारी जिन्होंने मेरे साथ अन्याय किया इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था को देखते हुएअपने-अपने स्थान पर आनंद मना रहे हैं.

          माननीय सर्वोच्च न्यायालय क्या केंद्र सरकार के अलावा अन्य स्थानों पर हो रहे कुम्भकरणीय आचरण के बारे में भी कुछ करेगा या कहेगा.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें