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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

गाँवों के शहरीकरण की अजगरी प्रक्रिया !

          कविवर सुमित्रानंदन पंत के अनुसार 'भारतमाता ग्रामवासिनी' है। डा रामकुमार वर्मा ने  ग्रामवासियों को देवता बताया है- 'हे ग्राम देवता नमस्कार।सोने चाँदी से नहीं किन्तु मिट्टी से तुमने किया प्यार'।  पर इन दिनों नगरों के समीप स्थित गाँवों को निरंतर अस्तित्व के संकट से जूझना पड रहा है क्योंकि इनके समीपवर्ती नगरों की भूख अजगर के समान निरंतर बढती जा रही है और इनका भोजन यही गाँव हैं।समीपवर्ती गाँवों को खाकर भी शहर तृप्त नहीं होता। उसका आकार बढने के साथ-साथ उसकी भूख और बढ जाती है और फिर वह आस -पास के और भी गाँवों को निगलने के लिए तैयार हो जाता है।जितना बडा शहर उसकी भूख उतनी ही ज्यादा है और उसके समीपवर्ती गाँवों का जीवन उतना ही सीमित है। इस देश में गाँधीजी के नाम की कसम सब खाते हैं पर जब गाँव ही नहीं रहेगा तो उनकी स्वावलम्बी गाँव  संबन्धी परिकल्पना का क्या होगा यह सोचने के लिए कोई तैयार नहीं। आज विकास की परिभाषा बदल गई है। शहरीकरण को विकास का पर्याय बताया जा रहा है। कहा जाता है कि कुछ वर्षों के पश्चात भारतवर्ष की पचास प्रतिशत आबादी शहरी होगी और जिस दिन देश की अस्सी प्रतिशत आबादी शहरी हो जाएगी उस दिन भारतवर्ष विकसित देश की श्रेणी में आ जाएगा। पर विकास सस्टेनेबल हो और उससे सामाजिक समस्याएं न पैदा हों इस तरफ सरकार/प्रशासन का ध्यान नहीं है।


          लखनऊ स्थित सुशांत गोल्फ सिटी शहर का हाल ही में विकसित नया हिस्सा है जहाँ उपर्युक्त प्रकार से ही गाँवों को निगल कर शहर के बढ जाने की प्रक्रिया दुहराई गई है। इस शहरीकरण की प्रक्रिया को अंजाम उपहार सिनेमा फेम अंसल ग्रुप द्वारा दिया जा रहा है। जब कोई यहाँ आता है तो यहाँ की हरीतिमा,चौडी सडकें, हरे-भरे पार्क और गोल्फ ग्राउंड देखकर प्रभावित हो जाता है। पर यहाँ मेरे देखने में ऐसी समस्याएं आईं हैं जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट की शर्तों को झुठलाती हैं। पहली बात तो यह कि तमाम ऐसी आबादी का जो खेती पर निर्भर थी ,आजीविका का साधन समाप्त हो गया है। इनमें से कुछ भूमिहीन मजदूर बन गए हैं, कुछ छोटा-मोटा रोजगार कर रहे हैं और कुछ निठल्ले बैठकर दिन गुजार रहे हैं। जि न्होंने इस हाईटेक सिटी की योजना आते ही अपनी जमीन बेच दी उन्हें ज्यादा मुआवजा नहीं मिला। इसलिए वे उन लोगों की तुलना में स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जमीन बाद में बेची। ऐसे तमाम लोग जिन्हें अच्छा मुआवजा मिला है पढे -लिखे या स्किलफुल नहीं हैं। उन्होंने अपना पैसा बैंक में जमा कर दिया है तथा इसी जमा-पूँजी के सहारे जीवन काट रहे हैं। गाँव के कुछ लोगों ने अभी भी और अच्छा पैसा मिलने की आशा में अपनी कुछ जमीन रोक रखी हैं और अपना घर बचा रखा है। गाँव में आपको शराब की दूकान और मुर्गे भी बिकते हुए मिल जाएंगे जो इस बात का द्योतक है कि गाँव में अनेक लोग चार्वाक दर्शन के अनुयाई बन चुके हैं तथा वे बिना शराब और मुर्गे के भोजन नहीं करते और अपनी जमा-पूँजी इसी पर खर्च कर रहे हैं। इनमें जो थोडा बुद्धिमान हैं उन्होंने रोजमर्रा की जरूरत के सामान,, पान-गुटखा सिगरेट तंबाकू या सब्जी की दूकान डाल ली है। पढाई,स्किल या फिर अनुभव एवं मार्गदर्शन के अभाव में पास में पैसा होते हुए भी कोई बडा काम करने की ये नहीं सोच सकते। पर पास में पैसा है तो अनाप-शनाप खर्च ये लोग करने में नहीं हिचकते हैं , यथा मेरी जानकारी में आया कि एक व्यक्ति ने जो अपनी जमीन बेच चुका है तथा अब सब्जी का ठेला लगाता है अपनी बेटी का जन्मदिन मनाया तथा उसमें दो लाख रूपए व्यय किए। उनके लिए जो निठल्ले हैं और यह समझते हैं कि वे बिना कुछ किए अपनी जमा पूँजी के सहारे अपने दिन काट सकते हैं ,जुआ खेलना समय व्यतीत करने का सबसे अच्छा साधन है।गाँव में आपको जुए की महफिल दिन भर जमी हुई मिलेगी।

          अब इस शहरीकृत विकास का दूसरा पक्ष देखिए। तमाम लोगों ने इस नवविकसित क्षेत्र में घर, फ्लैट या जमीन खरीदे। इनकी भी दो श्रेणियाँ हैं। एक तो वे जिन्होंने दो का चार बनाने की दृष्टि से अपना पैसा इन्वेस्ट किया। ऐसे लोग काफी खुश हैं क्योंकि घर और जमीन दोनों के दाम काफी बढ गए हैं और उन्हें लग रहा है कि उन्हें अपनी पूँजी पर बहुत अच्छा रिटर्न मिल रहा है। दूसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है जिन्होने रहने के लिए एक आशियाना पाने की दृष्टि से घर या फ्लैट लिए । इनमें से अधिकांश ने लोन लिया है। लोन का भार कम करने की दृष्टि से घर या फ्लैट मिलते ही इन्होंने आकर रहना शुरू कर दिया। इनमें से भी बहुत से लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं क्योंकि घर बनाते समय कंपनी द्वारा कई वादे पूरे नहीं किए गए यथा टीकवुड के स्थान पर शीशे के दरवाजे लगा दिए गए हैं। बात करने पर कंपनी के साहबान  कहते हैं कि आप हमारा ब्रोशर देख लीजिए उसमें लिखा हुआ है कि जहाँ कंपनी उचित समझे वह परिवर्तन कर सकती है। घरों में फिटिंग मे सबस्टैंडर्ड सामग्री प्रयोग में लाई गई है। इस कारण पानी के रिसाव तथा दीवारों में आर्द्रता की समस्या आम है। दरवाजों में दिए गए लाक ठीक से काम नहीं करते। इसके कारण या तो दरवाजा बंद नहीं होता या जहाँ बंद होता है वहाँ कई बार लाक के अचानक खराब हो जाने के कारण आदमी अंदर ही लाक रह जाता है। घरों को तैयार कर दिए जाने में बैकलाग बहुत ज्यादा है।इस कारण जिन लोगों ने लोन लिया है वे परेशान हैं क्योंकि घर तो मिला नहीं, जिस घर में वे रह रहे हैं उसका किराया दे रहे हैं साथ ही लोन की किश्त अलग दे रहे हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अब कंपनी कह रही है कि वह उन्हें घर देने की स्थिति में नहीं है और वे ग्यारह प्रतिशत ब्याज  की दर से अपना पैसा वापस ले लें क्योंकि जिस स्थान पर नियत योजना थी वहाँ जमीन मिल नहीं सकी और यदि उन्हें घर चाहिए ही तो वे अन्यत्र जहाँ घर बन रहे हैं वहाँ ले लें पर उन्हें पैसा वर्तमान मार्केट रेट से देना होगा जिसमें पिछला पैसा एडजस्ट कर दिया जाएगाा। वह व्यक्ति स्वयं को ठगा महसूस करता है क्योंकि पाँच साल पहले जब उसने घर बुक किया था तब से अब तक मार्केट रेट दोगुना हो चुका है। अनेक लोग न्यायालय चले गए हैं परंतु कंपनी के पास पैसे की कमी नहीं है और जैसाकि एक सज्जन ने मुझे बताया कंपनी ने अपने मुकदमे लडने के लिए 22 वकीलों का पैनल बना रखा है।

          कुल मिलाकर नगरीकरण की इस अजगरी व्यवस्था में अनेक खामियाँ हैं जिसमें मध्यम वर्ग का तेल निकालकर(जिन्होंने घर की आशा में पैसा लगाया) तथा गरीब वर्ग का खून चूसकर पूँजीपति वर्ग तथा उनके साथ जुडा सपोर्ट ग्रुप जिसमें बिल्डर ,ठेकेदार तथा जमीन के दलाल शामिल हैं लाभ उठा रहा है। अनेक नेताओं तथा बडे नौकरशाहों के भी बंगले यहाँ हैं। कानाफूसी है कि
यह ऐसे नहीं आबंटित हुए हैं।  सरकारें यदि वास्तव में गरीबों की हितैषी हैं तो उन्हें इस अजगरी प्रक्रिया को दुरुस्त करने की तरफ ध्यान देना चाहिए।
          









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