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शनिवार, 20 दिसंबर 2014

जब मैंने स्वयं को अपराधी अनुभव किया! (संस्मरण पर आधारित)

          सन  2004 की बात है , मैं उन दिनों बरेली में तैनात था ।नवंबर में मैंने विभागीय निरीक्षण का कार्यक्रम बना कर सभी अधीनस्थ कार्यालयों को प्रेषित कर दिया था और दिसंबर से इस कार्य में लग गया। 22-23 दिसंबर से ठंड अचानक ज्यादा बढ गई और ऐसे में ही किसी दिन (तिथि मुझे याद नहीं है) मेरा शाहजहाँपुर के कार्यालय में जाने का कार्यक्रम पहले से तय था। जिस दिन मुझे जाना था सुबह से ही ठंड बहुत ज्यादा थी। मैंने कमीज के नीचे इनर और ऊपर पूरी बाँह का लाल इमली के ऊन का  स्वेटर पहन  लिया।लाल इमली कंपनी के बंद होने के पहले मेरी माँ ने ऊन खरीद कर यह स्वेटर बनाया था। इसके ऊपर मैंने बंद गले का सूट पहना।पैंट के नीचे भी मैंने इनर पहना था।ऊनी मोजे और जूते ,हाथ में ऊनी दस्ताने तथा कान और गले पर मफलर लपेट कर मैं घर से निकला। लौटने में रात हो जाने का ख्याल कर मैंने अपने ब्रीफकेस में फाइलों के साथ खादी आश्रम से ली गई एक ऊनी शाल भी रख ली। भयंकर कुहरा था जिसमें से बीच-बीच में बूँदें टपक रही थीं। इस मौसम में बस से जाना ठीक न समझ कर मैं रिक्शा कर बरेली रेलवे स्टेशन पहुँच गया।सभी ट्रेनें लेट थीं। दिल्ली- शाहजहाँपुर पैसेंजर जो कई घंटे लेट थी लगभग ग्यारह बजे आई। अन्य कोई ट्रेन थी नहीं इसलिए यह सोचकर कि दो घंटे में तो पहुँच ही जाऊँगा मैं ट्रेन में बैठ गया।

           डिब्बे में भीड नहीं थी। मेरे सामने की बर्थ पर नीचे एक पंद्रह-सोलह साल का लडका कुंडली मुद्रा में सोया हुआ था। पर उसने कुछ ओढा नहीं था और ऐसा लगता था जैसे कमीज के नीचे भी उसने कुछ पहना नहीं था।थोडी देर में लडका उठ गया।उसकी कमीज के सामने के बटन भी टूटे हुए थे।कमीज के नीचे उसने वाकई कुछ नहीं पहना था। उसी के सामने मैं इतने कपडों से लैस बैठा था।मेरा मन कहीं खुद को कचोटने लगा और मैं स्वयं को अपराधी सा अनुभव करने लगा। मुझे निराला की याद हो आई जिन्होंने ठंड से काँपती एक भिखारिन को कहीं से भेंट में प्राप्त कीमती  दुशाला ओढा दिया था। मैंने अपना ब्रीफकेस खोलकर उसमें से  शाल निकाला और उस किशोर से कहा- 'इसे ओढ लो वरना ठंड लग जाएगी। '   मुझे लगा किशोर संकोच कर रहा है इसलिए मैंने फिर कहा- 'अब यह तुम्हारा है।'   किशोर मुस्कराया और शाल लेकर उठ गया तथा डिब्बे में दूसरी तरफ चला गया। एक उम्रदराज सज्जन जो मेरे पास में बैठे थे बोले- 'आप उसे जानते हैं क्या? '   'नहीं'मैंने कहा। 'फिर शाल आपने ऐसे कैसे दे दी'? वे बोले। 'देखिए इस ठंड में वो बच्चा कैसे बिना कपडों के है? '  मैंने कहा।   'वो तो है,पर वो ऐसे ही रहने का आदी हो चुका है।आपकी शाल वो बेच देगा' वे बोले। 'बेच देगा तो बेच देगा,मुझे जो ठीक लगा मैंने किया' मैं बोला। 'आप कहाँ- कहाँ ऐसा कर पाएंगे, भावुकता से जीवन नहीं चला करता' वे बोले। 'आपकी बात ठीक है, पर कभी-कभी मन नहीं मानता।फिर इतना भर कर लेने से मेरा कोई नुकसान नहीं हो रहा है' यह कह कर मैं उठ खडा हुआ क्योंकि शाहजहाँपुर आने वाला था और ब्रीफकेस उठाकर कंपार्टमेंट के दरवाजे की तरफ आ गया। वहाँ दरवाजे पर खडा वह किशोर फिर मुझे मुस्कराता दिखा। पर उसके पास शाल नहीं थी। 'क्या उन सज्जन की बात सही थी, क्या इसने शाल इतनी जल्दी ट्रेन में ही किसी को बेच दी' मैंने मन में सोचा। आखिर मैं उससे पूछ ही बैठा- ' जो शाल मैंने दी थी वो क्या हुई?' किशोर ने शौचालय के बगल लेटी एक बुजुर्ग महिला की तरफ इशारा किया।मेरा शाल वह महिला ओढे थी। 'मेरी माँ है' मेरी आँखों में कौतूहल सा देखकर किशोर वही टूटे बटन की कमीज पहने हुए बोला।

          शाहजहाँपुर स्टेशन आ चुका था। मैं एक बार पुनः स्वयं को अपराधी सा अनुभव कर रहा था और भारी मन लिए स्टेशन पर उतर गया। तब से हर वर्ष जब ठंड जोर पकडती है और मैं बाहर निकलने से पहले सर्दी से बचने के लिए जरा ज्यादा ही कपडे - लत्ते पहनने लगता हूँ मुझे वह घटना याद आ जाती है और एक बार फिर मेरा अपराध बोध जागृत हो जाता है।

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