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मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

गाँव का वह घर (कविता)

-गाँव का वह घर-

गाँव का वह घर
अकेला-अकेला उदास सा रहता है
उसमें रहने वाले परिंदे
कोसों दूर चले गए हैं

कोई दूर तो कोई पास
कोई देश में तो कोई परदेश में
कोई सात नदियों के पार
तो कोई सात समुंदरों के पार
घर में रह गए हैं सिर्फ बूढ़ी माँ और काका

एक दिन घर की उदासी
अचानक भाग गई
घर हँसने लगा,इठलाने लगा
परिंदे लौट कर वापस आ रहे थे
दूर-पास,देश-परदेश सभी जगह के परिंदे
उनके साथ थे चिहुँकते बच्चे
कोई छोटे तो कोई बड़े
उन बच्चों में थी एक बड़ी गुड़िया
उसमें थी अलग एक रवानी
घर ने सोचा पीछे है कोई कहानी

अगले दिन घर की झाड़ -पोंछ हुई
बुहारन- सजावट जोर-शोर से हुई
घर हतप्रभ था,चमत्कृत था
पर आखिर घर खुश था
बंदनवार सज गए
कलश गोंठे गए
कोहबर भी बन गए

एक ढोलक आई और थापें पड़ने लगीं
घर को सुनाई दिए बन्ना-बन्नी गीत
घर के मन में कौंधी विषाद की रेखा
एक वो मिलना,एक ये मिलना
गुड़िया क्या तू मुझे छोड़ जाने वाली है
पर घर गुड़िया के लिए खुश था
शाम को बैंड-बाजे की आई आवाज
घोड़ी पर था दुल्हा सर पे लिए ताज
वाह क्या ठाट हैं सोच घर हँस दिया

सुबह गुड़िया हँसते-रोते विदा हो गई
घर में सबने अपनी आँखें पोंछीं
घर की आँखें भी नम थीं
पर अगले दिन से घर होने लगा और उदास
परिंदे फिर से उड़ने के लिए हो रहे थे तैयार
एक हफ्ते बाद घर में रह गए
बस केवल बूढ़ी माँ और काका

गाँव का वह घर फिर से
अकेला-अकेला उदास सा रहता है
न जाने अब परिंदे फिर कब वापस आएँगे
अपने चिहुँकते बच्चे साथ लाएंगे
तब एक बार फिर घर की उदासी दूर होगी
एक बार फिर घर हँसेगा- मुस्कराएगा
-संजय त्रिपाठी

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