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सोमवार, 30 मार्च 2015

क्या जनता का एक और सपना टूटेगा? ( "आप " की राजनीतिक उठा-पटक पर टिप्पणी)

          वर्ष 2011 में अन्ना के 'जनलोकपाल आंदोलन' के दौरान मेरे एक मित्र विक्रम सिंह अरविंद केजरीवाल से मिलने उनके घर पर गए। उन्होंने उस समय अरविंद केजरीवाल से एक राजनीतिक पार्टी बनाने का अनुरोध यह कहते हुए किया कि देश में जिस व्यापक सुधार की जरूरत है वह मात्र आंदोलन से नहीं संभव हो सकेगा। इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है जो किसी भी पार्टी में नहीं है। इसलिए आप अपने आदर्शों के साथ एक राजनीतिक दल बनाइए जो जनाकांक्षाओं के अनुरूप कार्य करते हुए देश में परिवर्तन लाने के लिए प्रयासरत रहे। मेरे मित्र ने यह भी कहा कि इस समय जनता में इस प्रकार के बदलाव की तीव्र आकांक्षा है । इसलिए इस प्रयास के सफल होने की पूरी आशा है। मेरे मित्र का कहना है कि अरविंद केजरीवाल ने उस समय जवाब दिया कि वे लोग 'जनलोकपाल आंदोलन' को पूरी तरह अराजनीतिक रखना चाहते हैं तथा स्वयं भी राजनीति से अलग रहते हुए ही कार्य करना चाहते हैं। उन्होंने किसी भी प्रकार की राजनीति  से जुडने से पूरी तरह इंकार किया। मेरे मित्र का कहना है कि अरविंद केजरीवाल का रवैया बहुत उत्साहवर्धक नहीं था तथा वह निराश होकर लौट आए।

          पर उसके सवा साल बाद अरविंद केजरीवाल की समझ में यह बात आ गई कि बिना राजनीतिक पहल के कुछ हासिल नहीं होगा और उन्होंने अन्ना के विरोध के बावजूद नवंबर 2012 में आम आदमी पार्टी का गठन कर डाला। जब प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव यह कहते हैं कि आम आदमी पार्टी की स्थापना सत्ता प्राप्त करने के लिए नहीं , बल्कि भ्रष्टाचार को समाप्त करने के उद्देश्य को लेकर राजनीति में आदर्श और शुचिता को प्रतिष्ठापित करने के लिए हुई थी तो वे गलत नहीं कहते हैं। अपेक्षा यह थी कि इन मूल्यों के कारण पार्टी को जनता का स्वत: समर्थन प्राप्त होगा और ऐसा हुआ भी। नवंबर 2012 में पैदा हुई आम आदमी पार्टी एक वर्ष बाद दिसंबर 2013 में सत्ता में आ गई । केजरीवाल के नेतृत्व में "आप" की सफलता दिल्ली का प्रशासन चलाने में उनकी निपुणता,  लोगों  की उम्मीदों पर खरा उतरने और चुनावी वायदों को पूरा करने पर निर्भर थी।पर उन्चास दिनों तक सत्तासीन रहने के बाद जब केजरीवाल ने सत्ता त्याग दी तो तमाम सारे सवाल उठ खडे हुए। क्या आप और उसके  नेता मिथ्याचारी और ढोंगी थे ? अन्यथा जब वे जानते थे कि उनके पास बहुमत नहीं है तो उसी कांग्रेस की मदद से उन्होंने सत्तासीन होने का निर्णय क्यों किया था जिसके कुशासन और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उन्होंने संघर्ष किया था। क्या सत्ताग्रहण और पदत्याग योजनाबद्ध तरीके से किया गया था ताकि लोकलुभावन घोषणाओं द्वारा और जनलोकपाल के मुद्दे पर पदत्याग कर उसे शहादत का जामा पहना कर जनता को भरमाया जा सके।

          जनता ने लोकसभा चुनावों में "आप" पार्टी को दंडित करते हुए ठुकरा दिया। पर फरवरी 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में अरविंद केजरीवाल जनता से माफी मांगते हुए, उसकी पसंद के वायदे कर और उम्मीदों पर खरा उतरने का वादा कर  एक बार फिर जनता का भरोसा पाने में सफल रहे। पर सत्ता पाने के बाद मार्च,2015 में "आप" पार्टी की आपसी राजनीतिक उठापटक और उक्त संदर्भ में अरविंद की प्रतिक्रिया एवं आचरण देखकर लगता है कि वे पूरे राजनीतिक तानाशाह हो गए हैं। एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हिस्से के तौर पर पार्टी में अपने विरोधियों को देखने के स्थान पर उन्होंने एक अधिनायकवादी की तरह आचरण करते हुए अपनी पार्टी के लोगों से स्वयं एवं उनमें से किसी एक को चुनने के लिए कहा। निजी बातचीत में उनके लिए उन्होंने गाली-गलौज वाली भाषा का भी इस्तेमाल किया। यह इस बात का संकेत है कि वे अपने विरोधियों को बर्दाश्त करने या उनके साथ काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। यह स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवहार को नहीं दर्शाता। प्रशांतभूषण और योगेंद्र यादव दो ऐसे नाम हैं जो अपनी वरिष्ठता और सम्मान्यता के आधार पर अरविंद केजरीवाल के सामने बराबरी से खडे हो सकते थे। अरविंद केजरीवाल ने इन्हें हटाकर कद  में खुद से बौने लोगों के बीच रहने की वृत्ति प्रदर्शित की है। वे कबीरदास के इस कथन को भी भूल गए- निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय ।

          इतिहास गवाह है कि वक्त किसी को बार-बार मौके नहीं देता। एक मौका गंवा देने के बाद दूसरा तो कतई नहीं। पर केजरीवाल पर वक्त कुछ हद तक मेहरबान दिखाई दिया है और उन्हें दूसरा मौका मिला है। अगर यह मौका उन्होंने  खो दिया तो न तो उन्हें इतिहास माफ करेगा और न ही वक्त माफ करेगा। संभावनाएं अपार हैं पर राजनीति के खेल में सफलता के लिए जनलोकप्रियता के साथ - साथ चतुराई, सजगता और एक सीमा तक मौकापरस्ती मददगार होती है। विपक्ष को एक फोर्स मल्टीप्लायर की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही है।  अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में होने वाले आम चुनावों में कुछ हद तक अपने को वह मैग्नेट सिद्ध किया जिसमें जनता को खींचने की क्षमता है । आने वाले समय में विपक्षी खेमा यह समझ कर उन्हें अपने साथ लेना चाहेगा कि वे उसके लिए फोर्स मल्टीप्लायर हो सकते हैं। पर अरविंद केजरीवाल की लोकतांत्रिक विरोध को बर्दाश्त न कर पाने तथा अधिनायक की तरह आचरण करने की वृत्ति इसमें बाधक सिद्ध होगी। वायदे करना, सपने देखना और दिखाना आसान है पर उनको पूरा करने के लिए विचारों की स्पष्टता तथा सुव्यवस्थित और समयबद्ध कार्ययोजना एवं कठोर परिश्रम एवं अनुशासन आवश्यक है। 

         यदि "आप" का प्रयोग एक बार फिर असफल सिद्ध होता है तो लोग क्या इसके बाद फिर दोबारा किसी ऐसे व्यक्ति पर यकीन करेंगे जो यह कहेगा कि वह सच्चाई की राह पर चलने वाला है और तमाम बुराइयों को मिटा देने के लिए राजनीति में अवतरित हुआ है। एक लंबे अरसे से जनता के सपने टूटते आ रहे हैं। क्या एक और सपना टूटेगा ? इस प्रश्न का जवाब निश्चय ही अरविंद  केजरीवाल के  पास है। दिसंबर 2014 में 'आप' ने देश की जनता को बड़ी उम्मीदें बँधाई थीं जो दो महीने के बाद धराशायी हो गई थीं। अब वर्ष 2015 की चुनावी जीत और फिर आपसी लडाई-झगडे के बाद यदि प्रशांतभूषण और योगेन्द्र यादव एक नई पार्टी का गठन करते हैं तो यह केजरीवाल के राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरने की संभावना को सीमित कर देगा तथा वे दिल्ली के एक छुटभैये नेता भर रह जाएंगे।

          जनता ने केजरीवाल को एक मौका और दिया है तो उन्हें आपसी विवादों में उलझने के बजाय इस तरह की समस्याओं का समाधान लोकतांत्रिक कार्य-व्यवहार से करना चाहिए। उन्हें आंतरिक राजनीतिक विरोध को स्वस्थ लोकतंत्र का प्रतीक समझते हुए उसके साथ समन्वय बनाकर चलने की आदत डालनी चाहिए और अपने काम से यह साबित करना चाहिए कि जनता के लिए एक बेहतर विकल्प मौजूद है।

       
 

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