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शनिवार, 14 मार्च 2015

नए भारत की बेटी (व्यंग्य कविता/Satirical poem)


                - नए भारत की बेटी -

दूल्हे राजा आए सज कर,  दिल में लिए सुनहरे ख्वाब
घोडी पर बैठे यूँ तन कर, जैसे  आए हों कहीं से नवाब
आए हों कहीं से नवाब, मन में फूट रहे थे लड्डू
तगडा झटका दिया उतरने पर, घोडी थी लद्दू
 कन्यापक्ष के लोगों ने पकड सम्भाला उनको
 बोले हूँ तजुर्बेकार , घोडी अडियल मिल गई मुझको

आखिर चढ गए मंच पर, लिए जयमाल हाथ में इठलाएं
इंतजार बस यही, कब दुल्हन वरमाला लेकर आए
कब वरमाला लेकर आए, बन जाए मेरी घरवाली
सेवा करे मेरी दिन-रात, सजाए भोजन की थाली
आँख बिछाकर बैठेगी, पहुँचूँगा जब भी मैं घर पर
जब चाहूँ प्यार से बोलूँ, जब जी चाहे तना रहूँ उस पर

गजगामिनी  आते देख ,दूल्हे का दिल लगा धडकने
पकड न पाएं दिल को अपने, बल्लियों लगा उछलने
बल्लियों लगा उछलने, हर पल लगे उन्हें भारी-भारी
अब तो रहा न जाए, सोचें कटेगी कैसे रात ये सारी
पड जाए गले में वरमाला, बन जाए ये मेरी घरवाली
भीड साथ दुल्हन के, वो थे दुल्हे के भावी साले-साली

दुल्हन खडी हो गई लेकर वरमाला, मंच पर एक किनारे
दूल्हे ने सोचा आ भी जाती, लग जाए मेरी भी नाव किनारे
लग जाए मेरी भी नाव किनारे, इसको ले फिर घर जाऊँ
बन जाए मेरी जीवनसंगिनी भाग्य पे अपने इतराऊँ
दुल्हन ने किया इशारा, आगे बढ आए भावी साले-साली
दूल्हा हुआ सतर्क, लगता है होगी कोई ठिठोली भारी

बतलाओ दूल्हे पहले,  पंन्द्रह और छ: का जोड  है कितना
फिर पहन लेना वरमाला, सुखी रहोगे जीवन जितना
सुखी रहोगे जीवन जितना, दूल्हे का सिर चकराया
गणित अपनी सदा से कमजोर, पूछ ले और कुछ ताया
करते हो कैसे सवाल, ये है कौन मसखरी भाया
इधर-उधर की कुछ  पूछ, समझ न आए गणित की माया

बस बतलाओ यही सवाल, अगर पहननी है तुमको वरमाला
वरना घोडी संग वापस जाओ, है डिब्बा गोल तुम्हारा लाला
है डिब्बा गोल तुम्हारा लाला, दीदी है नए भारत की बेटी
अपनी मर्जी की है मालिक, नहीं जाए किसी भी खूँटे से सेंटी
वो दिन चले गए बच्चू जब भारत की नारी थी बेचारी
होशियार और पढी - लिखी वो सहे क्यूँ कोई लाचारी

पंद्रह और छ: होते हैं सोलह,  सोच दूल्हे ने तुक्का मारा
कुहनी मार कोई बोला है गणित में बहुत कमजोर बेचारा
है गणित में कमजोर बहुत ,दूल्हन वालों  कुछ तो किरपा कीजे
छोड गणित हमारे भैया से, कुछ इतिहास-भूगोल ही पूछ लीजे
बोली दुल्हन अक्ल के मारे संग जाने से मैं अच्छी बाबुल के घर
है मेरा संदेश यही बेटी जब भी ब्याहो, ब्याहो सोच-समझकर
-संजय त्रिपाठी















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