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गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

इनसान काले गोरे में बँट गया ! ( आलेख)

                                     इनसान काले गोरे के खेमों में बँट गया
                                     तहजीब के बदन पे सियासी लिबास है
                                                               -अदम 'गोंडवी'                                        

           गिरिराज सिंह का बहुचर्चित हो गया तथाकथित आफ रेकार्ड  बयान कि सोनिया गाँधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने उनका गौरवर्ण देखकर नेता बनाया है तथा यदि राजीव गाँधी ने किसी नाइजीरियन महिला से शादी की होती तो उसे कांग्रेस नेता नहीं बनाती, निहायत ही बचकाना और बेहूदा है। साथ ही इस तरह की बात उनके मंत्रित्व को भी कटघरे में खडा करती है। सवाल यह है कि जिसके सोचने -समझने का यह स्तर हो क्या उसे केंद्रीय मंत्रिमंडल में स्थान दिया जाना चाहिए। सोनिया गाँधी ने समझदारी का परिचय देते हुए कहा है कि वे इस तरह के बयान पर किसी प्रकार की टिप्पणी की जरूरत नहीं समझतीं। परंतु उनके दल को जो इस तरह के मौकों की तलाश में रहता है बैठे-बिठाए एक मुद्दा मिल गया है और उनके अनुयाई हल्ला-गुल्ला मचाने में लग गए हैं। नाइजीरिया के राजदूत ने भी इस तरह के बयान पर अपनी आपत्ति दर्ज की है। मेरे जैसे आदमी को भारत का एक नागरिक होने के कारण इस बात पर शर्म आती है कि ऐसे व्यक्ति देश के मंत्रिमंडल के सदस्य हैं। इसके पहले गतवर्ष लोकसभा के आमचुनाव के दौरान गिरिराज सिंह नरेंद्र मोदी का विरोध करने वालों को पाकिस्तान जाने की सलाह तक दे चुके हैं। मेरे विचार से प्रधानमंत्री जब एक ओर मनोहर पर्रिकर और सुरेश प्रभु जैसे लोगों को उनकी काबलियत के आधार पर मंत्रिमंडल में स्थान देते हैं तो उन्हें हल्के विचार रखने वालों को अपने मंत्रिमंडल से बाहर भी करना चाहिए।

          पर गिरिराज सिंह के बयान का एक पहलू और भी है। क्या हममें से तमाम सारे भारतीयों का चिंतन कहीं कुछ-कुछ गिरिराज सिंह की तरह ही नहीं है। मैं स्वयं श्यामवर्ण का हूँ । शायद इसका कारण यह है कि मेरे पिता भी श्याम वर्ण के थे यद्यपि मेरी माता गौरवर्ण की हैं। मेरी बहनें भी गौरवर्ण की हैं। मैं बचपन से ही अपने श्याम वर्ण को लेकर रिश्तेदारों, पारिवारिक मित्रों और परिचितों की टिप्पणियाँ सुनता आ रहा हूँ। इस कारण बचपन से ही अपने वर्ण को लेकर मन में कहीं एक ग्रंथि पनप गई। यह ग्रंथि शायद सभी भारतीयों के मन में है और इस कारण शादी - विवाह के प्रस्तावों के समय लडकी के गौरवर्ण का होने की मांग करना सामान्य बात है। यदि आप किसी भी समाचारपत्र में निकलने वाले वैवाहिक विज्ञापनों को देखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विवाह के लिए अधिकांश लोग गोरी लडकी ही चाहते हैं। गौरवर्ण भारतवासियों द्वारा सौंदर्य का एक प्रतिमान समझा जाता है जबकि अधिक श्याम वर्ण को असुंदरता के साथ जोडा जाता है। अब कहने के लिए आप कहते रहिए कि भगवान राम और कृष्ण साँवले थे और सुंदरता चेहरे की गढन से होती है या फिर आंतरिक होती है। अगर ऐसा होता तो जिनकी बेटियाँ साँवली होती हैं, वे अकसर बातचीत में अपनी बेटी के अच्छे नैन-नक्श या स्वभाव के बावजूद उसकी शादी के लिए बहुत अधिक चिंतित नजर नहीं आते और न ही फेयरनेस क्रीमों का व्यापार भारतवर्ष में करोडों के उद्योग के रूप में परिवर्तित हो जाता। गौरवर्ण के  प्रति हम भारतीयों के आकर्षण का ही परिणाम है कि हमारे कविगण " गोरे रंग पे न इतना गुमान कर......" और " चांदी जैसा रूप है तेरा....." जैसे गीत रचते नजर आते हैं । मैं व्यवहार में देखता हूँ कि जो लोग स्वयं श्याम वर्ण के हैं वे भी गौरवर्ण की ही अर्द्धांगिनी चाहते हैं।

           श्रीमती इंदिरा गाँधी ने सन 1975 के आपातकाल के बाद सन 1977 में जब आम चुनाव करवाए तो उनके कांग्रेस के कुछ साथियों ने अलग होकर "कांग्रेस फार डेमोक्रेसी" बना ली थी। इनमें से से एक प्रमुख नेता एक दिन भाषण देने आए। मेरे कुछ साथी यह भाषण सुनने के लिए गए। मैं उन दिनों पढता ही था। मैंने लौटकर आने पर अपने एक साथी से जब भाषण के बारे में पूछा तो वह छूटते ही उन नेता का नाम लेकर बोला कि वो तो तवा की तरह काले हैं। उन्हीं दिनों मैं अपने एक मित्र के यहाँ शादी में उसके गाँव गया। उन दिनों शादी में नर्तकी बुलाने की प्रथा थी । वहाँ भी एक नर्तकी आई हुई थी। नर्तकी अति श्यामवर्ण की थी , इस बात को लेकर मैंने लोगों की टीका-टिप्पणियाँ सुनीं और कुछ लोगों ने तो इस बात की बाकायदा शिकायत की। कुछ वर्ष पूर्व मेरे यहाँ एक नए विभागाध्य्क्ष ने कार्यभारग्रहण किया। मेरी एक सहकर्मी को उनके दर्शन हो गए। लौटकर आई तो बांगला में बोली "......तो कालो" अर्थात "........काले हैं"। इसी प्रकार एक अधिकारी के विषय में एक दिन बोली ".......तो खूब बेशी फारसा "  यानी कि "........बहुत ज्यादा  गोरे हैं"। 

           काले -गोरे की यह ग्रंथि मैं प्राय: सभी भारतीयों में पाता हूँ। इसके बीज वैदिक काल से ही मिलते हैं। तब एक खास समुदाय के लोगों को - अनास: ,मृगयु के साथ धृतवर्ण: अर्थात काले रंग का बताया गया जबकि आर्यों को गौरवर्ण का बताया गया। परंतु उसी समय से इन दिनों समुदायों का पारस्परिक मिश्रण भी होता चला आया है। इसी कारण प्राय: अधिकांश भारतीय परिवारों में ( यदि अपवाद के तौर पर कुछ भौगोलिक क्षेत्रों को छोड दिया जाए तो) गौर और श्याम दोनों ही वर्ण के लोग मिल जाएंगे। पर खेद की बात है कि इसके बावजूद हम दुनिया के उन लोगों की श्रेणी में आते हैं जो सर्वाधिक रंगभेदी हैं। मुझे ऐसे भी श्यामवर्ण के लोग मिले जो दुनिया के अन्य देशों में भी होकर आए हैं और उन्होंने मुझसे कहा कि गोरे-काले की जितनी बात भारतवर्ष में होती है उतनी दुनिया के अन्य किसी देश में नहीं है।

           कुल मिलाकर गिरिराज सिंह का बयान या कुछ दिनों पहले संसद में महिलाओं के रंग के संदर्भ में शरद यादव के बयान हम भारतवासियों की रंगभेदी मनोवृत्ति के परिचायक हैं और यह एक बडी बीमारी के लक्षण हैं। हममें से अधिकांश को अपनी इस बीमारी का पता ही नहीं है क्योंकि अब तक हम इस रोग के लक्षणों की उपेक्षा करते आए हैं। पर हमें अपनी इस बीमारी को पहचानकर इससे छुटकारा पा लेना चाहिए और हो सके तो इसके लिए अभियान भी चलाना चाहिए। जब हमारे मन में काले- गोरे की ग्रंथि नहीं रहेगी तो हमें इस प्रकार के बयान या बातें  सुनने को नहीं मिलेंगीं।

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