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शनिवार, 9 मई 2015

दिग्भ्रमित बच्चे!

          दो-तीन माह पूर्व मेरे सुनने में एक स्थानीय घटना आयी कि दसवीं कक्षा में पढने वाली एक बालिका प्रात: लोकल ट्रेन से कट कर मर गई। सुन कर दु:ख हुआ। महानगरों में लोकल ट्रेन से दुर्घटना कोई नई बात नहीं है।कुछ समय के अंतराल पर इस प्रकार की घटनाएं घट जाती हैं। एक- दो दिन के बाद किसी से सुना कि बालिका ने आत्महत्या की थी। कारण क्या था यह बताने वाले ने नहीं बताया। फिर समय बीतने के साथ बात पुरानी पड गई।

          इधर एक -दो दिन पहले एक परिचिता मेरी पत्नी से मिलने आईं। उनकी बेटी दुर्घटनाग्रस्त बालिका के साथ पढती थी। वे जो बता गईं वह मन को कहीं अंदर तक झकझोर गया।उन्होंने बताया कि दुर्घटनाग्रस्त बालिका गर्भवती थी। उसका बारहवीं कक्षा में पढने वाले किसी छात्र के साथ प्रेम संबंध हो गया था। वे दोनों साथ ही आत्महत्या करने गए थे ।  अंतिम क्षणों में प्रेमी की हिम्मत जवाब दे गई और वह भाग खडा हुआ पर बालिका ने आत्महत्या कर ली।

          इस घटना ने मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्नचिह्न खडे कर दिए। बालिका जिस स्थिति में थी,उसे सपोर्ट और काउंसेलिंग की जरूरत थी जो शायद उसे उपलब्ध नहीं थी। अपने घर में भी वह अपने माता-पिता  अथवा परिवार के किसी अन्य सदस्य के भी इतना निकट शायद नहीं थी कि उन्हें अपनी बात बता सकती या अपना दु:ख-दर्द उनके साथ शेयर कर सकती ताकि वे उसका समाधान निकालते।विद्यालय में भी संभवत:कोई ऐसा नहीं था जिससे बच्चे अपनी बात कहते अथवा उचित सलाह पा जाते।

          कुछ लोग शायद यह भी कहेंगे कि बालिका दोषी थी और उसे तद्नुरूप परिणाम मिला। पर सवाल यह उठता है कि इस सब घटना में क्या सारा दोष बालक-बालिका का है।क्या माता-पिता तथा अध्यापक-अध्यापिकाओं का यह दायित्व नहीं है कि बच्चों को लेकर सजग रहें और उनमें उचित-अनुचित का बोध पैदा करें। हम लोग बच्चों को टी वी सीरियलों तथा फिल्मों के माध्यम से प्रौढ व्यवहार( एडल्ट बिहैवियर) के प्रति एक्सपोज कर रहे हैं। माता-पिता के साथ भी बच्चों का अंतरव्यवहार( इंटरैक्शन) और अंतरंगता सीमित है। कई बार माता- पिता के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं होता। दूसरी तरफ विद्यालय में अध्यापक-अध्यापिका के भी पास बच्चों के लिए समय नहीं है। वे किसी तरह विद्यालय आते हैं,अपनी ड्यूटी निभाते हैं और चले जाते हैं। सभी अध्यापक-अध्यापिकाएं बच्चों के साथ इंटरैक्शन भी नहीं करते।

          इन कारणों से मुझे यह आवश्यक प्रतीत होता है कि सभी विद्यालयों मे बच्चों के लिए काउंसेलर हों जिनसे बच्चे बेझिझक मिलकर अपनी समस्याएं बता सकें और वे भी इतने समर्पित हों कि बच्चों की समस्याओं को जानने, समझने और सुलझाने में रुचि लें। जिस बच्ची ने आत्महत्या की अगर उसे कोई सही रास्ता दिखाने वाला मिल गया होता तो शायद वह दुर्घटना का शिकार होने से बच जाती।

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