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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

हिंदी-उर्दू और इनके क्रियापदों के साथ लिंगविधान की समस्या (विमर्श)

                       
       कमलाकांत त्रिपाठीजी हिंदी और उर्दू के एक ही भाषा के दो रूप होने पर-     


           उर्दू-हिंदी : दोनों एक ही भाषाएँ हैं या अलग-अलग ? मैकाले के समय में पंडितों और मौलवियों से यही सवाल पूछा गया था. पंडितों ने जवाब दिया—दोनों भाषाएँ न्यारी-न्यारी हैं. और मौलवियों ने कहा—दोनों ज़बानें मुख़्तलिफ़ हैं.
         जवाब तो दोनों का एक ही था, और जवाबों की भाषा ?
        आज जब हम हिंदी बोलते हैं तो बीच-बीच में तमाम शब्द अंग्रेज़ी के आ जाते हैं. ‘उर्दू’ बोलनेवालों की भी यही शिकायत है. फिर भी हम समझते हैं और सुननेवाला भी समझता है कि यह हिंदी / उर्दू ही है, अंग्रेज़ी नहीं. ऐसा क्यों ?
        हम ग़ौर करें कि अंग्रेज़ी के ये शब्द संज्ञा (noun) और विशेषण (adjective) होते हैं या क्रियाएँ (verbs) ? हमें मालूम होगा कि इनमें से कोई भी शब्द क्रिया नहीं है, सब के सब या तो संज्ञा हैं या विशेषण. यदि हम अपनी हिंदी या उर्दू की बात में अंग्रेज़ी की कोई क्रिया ला दें तो पहले तो वह आयेगी नहीं, और आयेगी तो वह अंग्रेज़ी हो जायेगी.
       मैं विद्यालय जाता हूँ. 
       मैं मदरसे जाता हूँ. 

       मैं स्कूल जाता हूँ. 
      तीनों वाक्य एक ही भाषा के हैं. चाहे उसे आप हिंदी कहें, चाहे उर्दू . लेकिन पहला वाक्य कहीं से भी अंग्रेज़ी का नहीं कहा जाएगा.मैं विद्यालय गो या मैं मदरसा गो या वह विद्यालय / मदरसा गोज़ नहीं बन सकता. बनेगा भी तो वह अंग्रेज़ी हो जायेगा.
       भाषा की यह सिफ़त है. उसका वाक्य-विन्यास (syntax) क्रिया से बनता है, जो उसका प्राण है. इसलिए हर भाषा अपने क्रियापदों के चलते ही स्वतंत्र पहचान पाती है, संज्ञाओं, विशेषणों या सर्वनामों (pronouns) के चलते नहीं. संज्ञा और विशेषण संपर्क में आनेवाली तमाम भाषाओं में परस्पर घूमते रहते हैं.
        एक अज़ीब बात है. तथाकथित उर्दू और हिंदी में सारी की सारी क्रियाएँ एक हैं, एक-सी नहीं, बिल्कुल एक. ऐसी एक भी क्रिया न तो उर्दू में मिलेगी जो हिंदी में न हो, न हिंदी में मिलेगी जो उर्दू में न हो. हिंदी के वाक्य-विन्यास में आप चाहे जितनी संस्कृत की संज्ञाएँ और विशेषण डाल दें, वह संस्कृत क्रिया के अभाव में हिंदी ही रहेगी. उर्दू के वाक्य-विन्यास में अरबी और फ़ारसी की कितनी भी संज्ञाएँ और विशेषण डाल दें, उनकी क्रियाओं के अभाव में वह रहेगी उर्दू ही. तो जब तक हिंदी और उर्दू की सारी क्रियायें एक हैं, एक ओर संस्कृत और दूसरी ओर अरबी और फ़ारसी के शब्दों को भर देने से भी वे अलग भाषाएँ नहीं बन सकतीं.
          दुनिया में उर्दू-हिंदी के अलावा कोई भी दो भाषाएँ ऐसी नहीं हैं जिनकी सारी क्रियाएँ एक हों.
हिंदी की अन्य बोलियों में भी क्रिया-रूप अलग-अलग हैं, इसीलिए वे अलग बोलियाँ हैं. खड़ी बोली का ‘गये थे’, बोलियों में ‘गइल रहले’ (भोजपुरी) या ‘ग रहे’ (अवधी) हो जाता है. उर्दू में गये थे का गये थे ही रहेगा. इस दृष्टि से हिंदी (खड़ी बोली के अलावा) अपनी बोलियों की अपेक्षा उर्दू के अधिक करीब है, बल्कि वही है.
         ऐसा हुआ कैसे ? दोनों भाषाएँ भारत में ही जन्मी हैं. दोनों का स्रोत एक है—हिंदी की खड़ी बोली, जो प्राकृत के एक स्थानीय रूप से समय के प्रवाह के साथ ढलते-बदलते बनी थी और दिल्ली-मेरठ के इलाक़े में बोली जाती थी. आज भी बोली जाती है, लेकिन ठेठ रूप में.
        लिपियों का मसला भी ऐसे ही है. लिपि का भाषा से कोई अनिवार्य सम्बंध नहीं है. योरोप की तमाम भाषाओं की लिपि रोमन है—पश्चिमी योरोप के देश बहुत दिनों रोमन साम्राज्य में रहे और पूर्वी योरोप के बहुत दिनों बाइजेंटियम साम्राज्य में, इसलिए उनकी लिपियों में थोड़ा फ़र्क आ गया है, किंतु मूलत: दोनों एक ही हैं. लिपि एक होने के बावजूद हर योरोपीय देश की भाषा अलग-अलग है. टर्की की तुर्की भाषा पहले अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाती थी, कमाल अतातुर्क के सुधारों के बाद वह रोमन में लिखी जाने लगी, लेकिन रही तुर्की ही. भारत में संस्कृत, मराठी और हिंदी तीनों देवनागरी लिपि में लिखी जाने के बावजूद तीन अलग भाषाएँ हैं. अरबी, फ़ारसी, कश्मीरी, सिंधी, बलूची, उर्दू , कुर्दिश, पश्तो, शाहमुखी पंजाबी, उजबेकी इत्यादि कई भाषाएँ अरबी-फ़ारसी लिपि में लिखी जाने के बावजूद सर्वथा अलग-अलग भाषाएँ हैं. संस्कृत पहले दो अलग-अलग लिपियों में लिखी जाती थी-- ब्राह्मी और खरोष्ठी. ब्राह्मी बाएँ से दाएँ और खरोष्ठी दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, जैसे अरबी-फ़ारसी लिखी जाती है. खरोष्ठी लिपि पश्चिमोत्तर भारत के उसी इलाक़े में प्रचलित थी जिससे लगे हुए इलाक़े में फ़ारसी लिपि का प्रयोग होता था जो अवेस्तन लिपि से निकली है. देवनागरी ब्राह्मी का ही परिवर्तित रूप है.
       लिखने-पढ़ने का मतलब लिपि सीखना होता है, भाषा या ज़बान, जो बोली-समझी जाती है, उसे सीखना नहीं. ग़ैर पढ़ा-लिखा आदमी भी अपनी मातृ भाषा तो बोल और समझ ही लेता है. यहाँ बेलगाँव में कई उत्तरभारतीय या मारवाड़ी परिवार, जो काफ़ी दिनों से इधर रह रहे हैं, धड़ल्ले से कन्नड़ बोलते और समझते हैं, जब कि उसे लिख-पढ़ नहीं सकते. तो ऐतिहासिक कारणों से अलग-अलग लिपियों में लिखी जाने के बावजूद एक भाषा अलग-अलग भाषाएँ नहीं बन जाती.
        इस सम्बंध में मैंने ‘दो ज़बानों की एक किताब (पत्रिका)’ -- ‘शेष’-- के संपादक हसन जमाल जी से ख़तो-किताबत की थी और दोनों लिपियों के साथ एक ही भाषा को मान लेने की बात कही थी, जिसे अरबी, फ़ारसी और संस्कृत के सम्मिलित विशाल भंडार से सबसे उपयुक्त लगनेवाली संज्ञाएँ और विशेषण चुनकर ले लेने की छूट रहे । आखिर ‘उर्दूवालों’ ने कभी सीधे, कभी थोड़ा तराशकर सुख, दुख, नैन, कंवल, भरम, इंतकाल, बरहमन जैसे तमाम संस्कृत शब्द अपना ही लिए हैं। लंबी बहस के बाद, बात इस पर टूटी कि यदि ऐसा हुआ, तो लोग अरबी-फ़ारसी लिपि सीखना बंद कर देंगे, और उर्दू से, जिसने इतना कुछ खोया है, लिपि भी छोड़ने को कहा जायेगा।...मेरी समझ में नहीं आया, ऐसा क्यों कहा जायेगा. और लोगों को जो सुविधाजनक लगे, उसे लेने और जो असुविधाजनक लगे, उसे छोड़ देने से कौन रोक सकता है ? तो, जिस कारण से उर्दू ने ‘इतना कुछ खोया’ और खो रही है, उसे आगे भी क़ायम रखना ज़रूरी है, जब तक कि हिंदुस्तान में (जहाँ उर्दू पैदा हुई थी ) वह पूरी तरह लुप्त न हो जाए ! हमारा दुर्भाग्य है कि हमें अरबी-फ़ारसी का रस्मुलख़त नहीं सिखाया गया. हम मीर, ग़ालिब, ज़ौक़, मोमिन, हाली, फ़िराक़, जोश, फ़ैज़ इत्यादि का उतना ही पढ़ पाते हैं, जितना देवनागरी में छपा है. वे हमारी विरासत के अभिन्न अंग हैं, उनके बिना हमारी पहचान अधूरी है. यदि समय रहते इनके संपूर्ण का लिप्यंतरण नागरी में न कर लिया गया, तो कौन जाने आनेवाली पीढ़ियों के लिए ये हमेशा के लिए खो जाएं।

अश्विनी कुमार जी हिंदी और उर्दू  के क्रियापदों के साथ लिंगविधान के होने को कमी मानते हैं-

         हिन्दी और उर्दू के बीच लिपि को छोड़ कर कोइ अन्तर नही है । वस्तुतः दोनों भाषाओं का आधार या अधिकार क्षेत्र भी एक विशेष भू भाग ही रहा है । और दोनों भाषाओं में कमी भी एक समान है ।


        क्रिया शब्दों का लिंग परिवर्तन केवल इन्हीं दो भाषाओं में ही होता है । संस्कृत, तमिल, बङला या अंग्रेजी , फ्रेंच या जर्मन और लेटिन भाषा में कर्ता का ही लिंग बदलता है , क्रिया शब्दावली एक समान ही रहता है । और यही कठिनाई हिन्दी और उर्दु सीखने वाले को हमेशा रहती है । दुर्भाग्यवश इस कमी को भाषा की विशेषता बता कर इसे दुरूस्त नही किया जाता है। पाकिस्तान दो टुकड़े में बंट गया पर उर्दू के पक्षधर इसे नही समझ सके । अगर यही प्रक्रिया भारत में लागू हो गया तो पता नही कितने टुकड़ों में यह बंट जायेगा । समय रहते इस रोग का निदान करना आवश्यक है ।



हिंदी और उर्दू के क्रियापदों के साथ लिंगविधान की समस्या के बारे में मेरे विचार-
        श्री अश्विनी कुमार जी ने श्री कमलाकान्त  त्रिपाठी जी की हिन्दी और उर्दू के एक ही भाषा के दो रूप होने संबन्धी पोस्ट पर प्रतिक्रिया करते समय हिन्दी और उर्दू में क्रिया रूप के लिंगविधान- पुल्लिंग और स्त्रीलिंग तथा उनके प्रयोग संबन्धी जटिलता का प्रश्न उठाया है। इस प्रश्न पर मैं अपने अनुभव के आधार पर कुछ कहना चाहता हूँ। मैं केन्द्रीय सरकार के कार्यालयों में राजभाषा कार्यान्वयन के कार्य से लम्बे समय से जुड़ा रहा हूँ। अहिन्दीभाषियों के हिन्दी प्रशिक्षण के लिए आयोजित की जाने वाली कार्यशालाओं और कक्षाओं के साथ मेरा जुड़ाव रहा है। 
         अहिन्दीभाषियों के हिन्दी सीखने में क्रियारूप का लिंगपरिवर्तन एक भारी अडचन है। अहिन्दीभाषी इस बारे में नियम बताने का आग्रह करते हैं। मैंने व्याकरण की पुस्तकों का अध्ययन कर इस विषय में कुछ दिशानिर्देश बनाने का प्रयास किया पर यह हमेशा मानक पर खरे उतरें, यह जरूरी नहीं हैं। आचार्यप्रवर किशोरीदास वाजपेयी ने अपनी पुस्तक में इस पर विस्तार से चर्चा की है।उन्होंने लिखा है कि कैसे एक ही क्रियारूप के लिए बिहार से पंजाब तक अलग-अलग प्रदेशों में लोग अलग-अलग लिंगविधान का प्रयोग करते हैं। 
          पर यह समस्या इतनी बड़ी भी नहीं कि इसके कारण जैसे बंगाली अस्मिता के प्रश्न पर पाकिस्तान का विभाजन हो गया वैसे ही भारत का विभाजन होने की नौबत आ जाएगी(जैसी कि आशंका अश्विनी कुमारजी व्यक्त करते हैं)। भाषा का मूल उद्देश्य संप्रेषण है और जब तक कोई भाषा इसे पूरा कर रही है तब तक वह भाषा और उसे सीखने वाले अपने उद्देश्य में सफल कहे जाने चाहिए। इस परिप्रेक्ष्य में हिन्दी देश के तमाम क्षेत्रों में आपसी संवाद और संपर्क कायम करने की जरूरत पूरा कर रही है। वैयाकरणिक गलतियाँ हो सकती हैं पर यह संवाद में बाधक नहीं हैं। मैंने सरकारी कार्यालयों में लोगों को ऐसी अंग्रेजी लिखते देखा है जिसके सिर,पैर का पता लगाना मुश्किल रहता है। तो, यदि कोई हिंदी बोलते या लिखते समय क्रियापद के साथ गलत लिंग का प्रयोग करता है तो इस कारण उसकी हिन्दी को अस्वीकार्य क्यों समझा जाए? यदि त्रुटिपूर्ण अंग्रेजी स्वीकार्य है त्रुटिपूर्ण हिन्दी स्वीकार्य क्यों नहीं हो सकती? जब अलग-अलग क्षेत्रों और प्रान्तों के लोग हिन्दी के साथ जुड़ेंगे तो उनकी अपनी भाषा,संस्कृति, आंचलिक विशेषताएं और यहाँ तक कि उनके अपने व्यक्तित्व के गुण- दोषों का जुड़ाव हिंदी के साथ होगा और यदि हम हिन्दी को पूरे भारत की बनाना चाहते हैं तो हमें उसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
          जनता और उसकी भाषा आगे चलती है, व्याकरण पीछे चलता है। आज की मुंबइया हिंदी में प्रायः हर क्रियापद के लिए  पुल्लिंग का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार वहाँ की जनता ने हिन्दी की क्रियारूप के लिंगविधान की समस्या को अपने संपर्क की जरूरत के लिए हल कर लिया है। मैं प. बंगाल के प्रतिष्ठित हिन्दी समाचारपत्रों में देखता हूँ कि जहाँ क्रियापद के साथ स्त्रीलिंग का प्रयोग होना चाहिए वहाँ पुल्लिंग का प्रयोग किया रहता है और कोई आपत्ति नहीं करता, यह स्वीकार्य सा होता जा रहा है।
          यह सही है कि जो अहिन्दीभाषी ईमानदारी के साथ हिन्दी सीखना चाहते हैं उन्हें हिन्दी के  क्रियापद का लिंगविधान डराता है और उनसे जब मेरी बात होती है तो मैं उन्हें बताता हूँ कि इसे आप हिन्दी का अधिक से अधिक व्यवहार कर और अभ्यास कर ही सुधार सकते हैं। अन्यथा, जब भी आप  स्वयं को संदेह की स्थिति में पाएं किसी भी क्रियापद के साथ पुल्लिंग व्यवहार में लाएं । फिर उन्हें इसका कारण भी बताता हूँ- यदि आप किसी भी क्रियापद जिसके साथ पुल्लिंग प्रयोग में लाना चाहिए,उसके साथ स्त्रीलिंग प्रयोग में लाएंगे तो हिन्दी जानने वाले हँसेंगे (यह समस्या प.बंगाल में कुछ अधिक है) पर यदि आप किसी ऐसे क्रियापद के साथ जहाँ स्त्रीलिंग का प्रयोग होना चाहिए, पुल्लिंग प्रयोग में लाएंगे तो कोई नहीं हँसेगा क्योंकि ऐसा स्वीकार्य सा हो गया है। शुद्धतावादी मुझसे कह सकते हैं कि मैं ऐसा क्यों करता हूँ। मेरा जवाब है मैं ऐसा हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए,उसे लोकप्रिय बनाने के लिए करता हूँ।
         पर दुरूह होने के बावजूद हिंदी के क्रियापद संबन्धित लिंगविधान का अपना सौन्दर्य है- "मैं तुमसे दूर कैसा हूँ तुम मुझसे दूर कैसी हो, ये या बस तुम समझती हो या फिर मैं समझता हूँ (-कुमार विश्वास की ये पंक्तियाँ उदाहरण के तौर पर)"। हिंदी और उर्दू की इस विशिष्टता के लिए न हिंदी वालों को शर्मिन्दा होने की जरूरत है, न उर्दू वालों को। हाँ इन भाषाओं के न बोलने वालों के लिए इसके व्यवहार्य समाधान पर गौर करने की जरूरत है और  मुझे यही उचित लगता है कि वे बिना लाग-लपेट के सर्वतोभावेन जब पुल्लिंग का प्रयोग करें तो कम से कम इस बात पर हिन्दीभाषी  प्रसन्न हों कि वे हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं।

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