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सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

पुरस्कार वापसी का लाइव परफारमेंस!

          मुनव्वर राणा साहब ने पुरस्कार वापसी का क्रम शुरू होने के बाद अपने घोषणा की थी कि वे पुरस्कार वापस नहीं करेंगे । फिर तीन-चार दिन में ऐसा क्या घट गया कि उन्हें इसका लाइव परफारमेंस देना पड़ गया। मुनव्वर साहब ने कहा कि उन्हें डर है कि कोई रात में घर में घुस कर उन्हें मार डालेगा और उन्हें कोई बचाने वाला नहीं हैं। वे यह किसके लिए कह रहे थे। कौन लोग हैं यह।
          फिर जो डर जाए वह साहित्यकार कैसा? सोलझेनित्सिन ने साइबेरियाई गुलाग में डाले जाने की कोई परवाह नहीं की और बेहतरीन साहित्य सृजित किया। फिर आपको किसने रोका है? साहित्यकारों के द्वारा सरकार की आलोचना किया जाना, पुरस्कार वापस किया जाना देश में लोकतंत्र की बहाली की गवाही देता है । 
          पर बात यह कही जा रही है कि देश में फासीवाद आ गया है। अगर ऐसा है तो जनता को जगाने से और फासीवाद के विरुद्ध आंदोलन खड़ा करने से आपको किसने रोका है? राजनीतिज्ञों के लिए अपना हित पहले है, वे वही बात करेंगे भले ही किसी भी पार्टी के हों। पर आप साहित्यकार हैं,उनकी बात से व्यथित हुए बिना, अपनी लेखनी को विराम दिए बिना,तूफानों में भी दिया जलाए रखकर विरोध कीजिए, बिना किसी राजनीति का हिस्सा बने । जब आप राजनीति का हिस्सा बनते हैं तो विरोध बेमानी हो जाता है। 
          आज मुनव्वर राना साहब को जब साहित्य अकादमी द्वारा दिये गये स्मृति चिह्न को टी वी के ए बी पी चैनल वालों के समक्ष वापस रखते देखा जिसमें रुपहले अक्षरों में साहित्य लिखा हुआ था तो लगा कि जैसे कोई साहित्य पर तमाचा मार रहा है। साहित्य अकादमी में मात्र पाँच सदस्य सरकार द्वारा मनोनीत होते हैं । शेष 90 से भी अधिक सदस्य साहित्यकारों के अपने होते हैं। फिर भी यदि वे साहित्य अकादमी से मनोवांछित परिणाम हासिल नहीं कर सकते हैं तो इन साहित्यकारों का खुदा ही मालिक है।
           यहाँ मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि कोई मुझे दक्षिणपंथी विचारधारा का न समझ ले । मैं समाजवादी विचारों का पक्षधर हूँ ( इन दिनों प्रचलन में आ गए परिवारवादी समाजवाद का नहीं) और यह बात पूरे विश्वास के साथ कहता हूँ कि भारतवर्ष के सामने तरक्की के रास्ते पर चलने के लिए बहुधर्मी एकता और सद्भाव के सिवा कोई रास्ता नहीं है और इसे सुनिश्चित करने में देश के सबसे बड़े दो धार्मिक समूहों हिन्दू और मुस्लिम दोनों की जिम्मेदारी अन्य मतावलंबियों से कहीं अधिक है। पर दोनों ही समुदायों में ऐसे लोग हैं जो सामाजिक सद्भाव को नुकसान पहुँचाने पर आमादा हैं। जरूरत इस बात की है कि जहाँ भी आग लगाई जाती है उसे हवा देने के बजाय बुझाने का प्रयास किया जाए। पर आग लगाने और हवा देने वाले ही ज्यादा दिखाई दे रहे हैं, बुझाने वाले नहीं । आज फार्रूख अब्दुल्ला साहब ने तो लोगों को अब्दुल रशीद के मुँह पर कालिख पोते जाने के संदर्भ में देश के टुकड़े देखने की चेतावनी दे डाली है। पर उनके द्वारा गोमांस पार्टी दिए जाने वे कुछ नहीं बोले थे। रशीद साहब कालिख पुता चेहरा दिखाकर कह रहे हैं कि दुनिया देख ले कि भारत काश्मीरियों के साथ कैसा व्यवहार करता हैं। सवाल यह है कि कुछ गुंडे - मवाली लोगों के व्यवहार को क्या पूरे भारत के व्यवहार की संज्ञा दी जा सकती है? यह व्यक्ति गोमांस पार्टी आयोजित करने के बाद अब गाँधीजी का नाम उद्धृत कर रहा है।
          कई वर्ष पूर्व एक मुख्यमंत्री के शासनकाल में मुस्लिम गाँवों में कत्लेआम हुआ। कुछ वर्षों पहले उस मुख्यमंत्री के परिवार के एक सदस्य ने मेरी उपस्थिति में कहा - बाबूजी ने कहा कि सालों को काट कर फेंक दो । मैं यह सुन कर अवाक रह गया। वह मुख्यमंत्री एक तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टी के थे । मेरे कई साम्यवादी मित्र हैं और इनमें से कई हैं जिन्हें थोड़ा सा उकसाइए तो एक धर्म विशेष के खिलाफ उनकी असली भावनाएं सामने आ जाती हैं। कहने के लिए लोग तरह- तरह के वामपंथी साहित्यकार संगठन बनाकर उसके पदाधिकारी और सदस्य बन कर घूमते हैं। पर एक बार ये आपको अपना करीबी समझने लगें फिर देखिए मंच पर दिए जाने वाले अपने भाषणों से अलग हट कर धर्म विशेष और कुछ जातियों के बारे में कैसे विचार व्यक्त करते हैं। 
          पहले जब धर्मनिरपेक्षता विरोधी और धर्मांधतापूर्ण घटनाएँ घट रही थीं तब इन साहित्यकारों का विवेक नहीं जागा। अब जब एक अलग विचारधारा की सरकार है तब साहित्यिक पुरस्कार वापस किए जा रहे हैं। यह इस आशंका को बल देता है कि साहित्यिक पुरस्कार वापस करने के पीछे राजनीतिक कारण हैं। अन्यथा क्या पुरस्कार वापस करने वालों को कलर ब्लाइंडनेस है जो उन्हें पहले घट रही धर्मनिरपेक्षता विरोधी घटनाएँ नहीं दिखाई देती थीं। स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राजनीतिज्ञों एवं उसका झंडा उठाने वाले समाज के अन्य वर्गों के गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के कारण ही आज भाजपा सत्ता में है। यह दोगलापन है जिसके कारण साहित्यकार अप्रभावी हो रहे हैं। 
          ए बी पी टी वी चैनल वालों ने जब साहित्यकारों के साथ राकेश सिन्हा, संबित पात्रा और अतुल अनजान को बैठा दिया तभी साहित्यकारों को  समझ लेना चाहिए था कि बहस अंततोगत्वा साहित्यिक नहीं बल्कि राजनीतिक होने जा रही है। ए बी पी चैनल वालों को तो एक स्कूप मिल गया जिसे वे एक-दो दिनों तक भुनाते रहेंगे। 

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