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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

चंद सिरफिरे समाज को बाँट नहीं सकते!

          मजहबी नफरत की बुनियाद पर पले लोग अच्छे और बुरे का, स्याह और सफेद का भेद नहीं कर करते। जो इनके प्रभाव में आ जाते हैं वे भी नहीं कर सकते। यह नफरत तनिक सी देर में हवा के एक बहाव से बवंडर और फिर प्रचंड तूफान में परिवर्तित हो जाता है और फिर बिना इस बात की परवाह किए कि कौन सा पेड़ बबूल का है और कौन सा आम का सबको धराशायी करता जाता है। बबूल का पेड़ जहाँ गिरा वहीं लोगों को शिकार बनाकर उन्हें लहूलुहान करता है ,वहीं आम के पेड़ों से गिरे सभी आम नफरत के व्यापारियों की टोकरी में गिरते हैं और यही उनका कैपिटल गेन है जिस पर उन्हें कोई टैक्स नहीं देना होता।
          दादरी के बिसहडा गाँव मे भी यही हुआ। 8 अक्टूबर को देश ने वायुसेना दिवस मनाया । पर इसके चंद दिनों पहले नफरत के तूफान में एक वायुसैनिक के पिता की जान चली गई और वायुसेना दिवस के दिन वह मजहबी तूफान की चपेट में आ गए अपने भाई की शुश्रूषा में लगा हुआ था। मजहबी नफरत के व्यापारी आम की फसल की बोहनी में लगे हुए हैं क्योंकि गाय मुख्य चर्चा में आ गई है। कोई सीना ठोंककर अपने को बीफ ईटर बता रहा है, कोई स्वयं को इस मामले में वशिष्ठ की परंपरा का अनुगामी बता रहा है। कोई कह रहा है कि कई हिन्दू बीफ खाते हैं तो कोई ऋषियों-मुनियों को बीफ खाने वाला बता रहा है तो कोई गौहत्या की बात कहकर ऐसा करने वालों को चेतावनी दे रहा है और सरकार से गौहत्या बंद कराने की माँग कर रहा है। इस स्थिति में सारे मजहबियों- क्या हिन्दू और क्या मुसलमान- की पौ-बारह है। राजनीतिक रोटियों को सेंकने का यही सबसे अच्छा मौका हैं सो सेंकी जा रही हैं।
          यह तो भला हो बिसहडा गाँव वालों का जो उन्हें अक्ल आ गई और उन्होंने दिनांक 11 अक्टूबर के दिन हकीम की दो बेटियों का गाँव में विवाह आयोजित कर सिद्ध कर दिया कि हिन्दू और मुसलमान अब भी साथ-साथ हैं और आगे भी रहेंगे। चंद सिरफिरे लोग समाज को कुछ समय के लिए उकसा सकते हैं पर बाँट नही सकते।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर उदाहरण दिए हैं ।
    चंद सिरफिरे समाज को बाँट नहीं सकते!

    मजहब नही सिखाता आपस में बैर रखना ।
    यह तो भाईचारा, प्रेम का संदेस देता है ।

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