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सोमवार, 23 नवंबर 2015

जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं (गजल)

   वर्ष 1992 में लिखी गई मेरी आरंभिक   गजलों में एक                
                        ~ - गजल-~

मार देते हैं चश्म ए सियाह से पर जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।
यूँ किए जाते हैं रोज हम पर सितम पर जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

उन आँखों की मौज ए कौसर में डूबे जाते हैं हम
बचाने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

शमशीर ए आबदार हैं वो रोज घायल हुए जाते हैं हम ।
मरहम भी नहीं लगाते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

पी उन निगाहों के पैमाने मदहोश हो गिर-गिर जाते हैं हम।
उठाने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

जब पलक झपकाते हैं कहीं गिरफ्तार हुए जाते हैं हम।
कफस खोलने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

नीम निगाहों से देख लेते हैं वो इक तूफान से घिर जाते हैं हम।
सहारा देने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

देख गजालचश्म की आँखें किसी वन में राह भटक जाते हैं हम।
राह दिखाने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

जहर भी है आब ए हयात भी है वहाँ मरकर जिए जाते हैं हम।
पर यूँ पेश आते हैं वो जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।

दुनिया जान भी गई है 'संजय' किस मर्ज में मुबतला हो गए हैं हम ।
दवा देने भी नहीं आते हैं जैसे उन्हें कुछ अहसास नहीं।।        -संजय त्रिपाठी








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