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बुधवार, 25 नवंबर 2015

सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता

         
        सहिष्णुता पर छेड़ी गई ( मैं जान-बूझ कर छिड़ी नहीं छेड़ी शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ) बहस एक बडा सवाल यह खड़ा करती है कि क्या भारत पिछले एक साल में बदल गया है। क्या एक-डेढ़ साल पहले या जैसाकि आमिर खान कहते हैं छ: - सात माह पहले हमारे देश में सहिष्णुता थी और अचानक सब कुछ बदल गया है और लोग असहिष्णु हो गए हैं, उदार से अनुदार हो गए हैं।
          जो लोग इससे सहमत हैं उन्हें फिर यह भी मानना पड़ेगा कि जिनका भी एजेंडा लोगों को असहिष्णु बनाना है उन्होंने बहुत कम समय में बड़ी सफलता हासिल कर ली है और पूरे भारत की जनता बेवकूफ है जिसे आसानी से बरगलाया जा सकता है। 
          पर मेरा अपना मानना है कि ऐसा नहीं है। यह देश वही है, लोग वही हैं। सत्ता बदलने से लोग यानी देश की आम जनता नहीं बदल जाती। सत्ता का बदलाव लोकतंत्र का हिस्सा है। सत्ता के बदलाव का यह आशय भी नहीं कि किसी को देश का सर्वाधिकार सौंप दिया गया है। जनता ने जिन आशाओं के साथ सत्ता सौंपी है, यदि कोई उसका गलत आशय निकालता है अथवा जनता की आशाओं पर तुषारापात करता है तो जनता के सामने लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत जब भी चुनाव होते हैं सत्ताधारियों को बाहर का रास्ता दिखाने का विकल्प खुला रहता है।
          सहिष्णुता पर छेड़ी गई बहस का वास्तविक मंतव्य देश की उदार परंपरा पर जोर देना और अनुदार तत्वों को हतोत्साहित करना होता तो ठीक था, पर इसने राजनीतिक स्वरूप अख्तियार कर लिया है और स्थिति यह है कि बी जे पी के पक्षधर इस बहस को खारिज कर रहे हैं और विरोधी दल केन्द्र के वर्तमान सत्ताधारी दल को कटघरे में खड़ा करने के लिए इस मुद्दे का इस्तेमाल कर रहे हैं। जबकि स्थिति यह है कि सांप्रदायिक मामलों में यदि साम्यवादियों और अपेक्षाकृत नए दलों को छोड़ दिया जाए तो किसी का भी दामन पाक- साफ नहीं है। अगर ऐसा होता तो 1969 का गुजरात दंगा नहीं होता, 1984 के दंगों की सिखों को विभीषिका नहीं झेलनी पड़ी होती,1989 का भागलपुर दंगा नहीं होता, मैलियाना और हाशिमपुरा के कांड नहीं होते, 1992 के मुंबई दंगे नहीं होते, 2002 में गुजरात के दंगे नहीं होते और न ही 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे होते। यदि ऐसा होता तो तमाम काश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में बेघर होना और दर-बदर भटकना नहीं पड़ता। साम्यवादी भी उदार तो कतई नहीं कहे जा सकते। तसलीमा नसरीन के साथ उनका व्यवहार सबको मालूम है। कालबुर्जी और पनसारे की हत्या तथा दादरी मामले में जैसे ऐसा मान लिया जा रहा है कि राज्य सरकारों को कुछ करना ही नहीं था। 
          मैंने कई बार इस आशय के वक्तव्य पढ़े हैं कि भारत हिन्दू बहुसंख्यकों के कारण धर्म निरपेक्ष है। पर मुझे लगता है कि भारत हिन्दू बहुसंख्यकों के साथ-साथ अल्पसंख्यक मुस्लिमों, ईसाइयों और सिखों के कारण भी धर्मनिरपेक्ष है। इस देश की धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सौहार्द्र के प्रति मुस्लिम प्रतिबद्धता का प्रमाण यह है कि 20 करोड़ भारतीय मुस्लिमों में से अब तक सिर्फ 21 के आई एस आई एस के साथ जाने की सूचना है जबकि सभी योरपीय देशों से हजारों की तादाद में मुस्लिम आई एस आई एस के साथ हैं। प्रधानमंत्री ने पिछले वर्ष कहा था कि भारत का मुसलमान अल कायदा को फेल करेगा और भारतीय मुसलमान इस बात पर खरा उतरा है। अल कायदा के साथ जाने वाले भारतीय मुसलमानों की संख्या भी नगण्य है। पाकिस्तान में आधारित आतंकवादी संगठन और आई एस आई लंबे समय से भारतीय मुसलमानों को बरगलाने की कोशिश कर रहे हैं। पर कुछ ही मुसलमान हैं जो उनके झाँसे में आए हैं । भले ही भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं पर तब भी भारत मुस्लिम आबादी के लिहाज से दुनिया के प्रथम कुछ देशों में है । जिस तरह मुस्लिम और योरपीय देशों में मुस्लिम आबादी का एक हिस्सा आतंकी संगठनों के बहकावे में आया है यदि उससे तुलना करें तो भारत के मुसलमानों ने उन्हें नकार कर भारत को आतंक के साये से एक बड़ी हद तक महफूज रखा है। भारत के ईसाई समुदाय की सांप्रदायिक मामलों मे संलग्नता न के बराबर रही है। सिख समुदाय की जहाँ तक बात है उनकी सक्रियता से ही पंजाब में पाकिस्तान के समर्थन से चल रहा खलिस्तान आंदोलन कुचला जा सका। इसलिए भारत की धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द्र में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक सभी संप्रदायों का समान रूप से योगदान है। इनमें से अधिकांश को अपनी दो वक्त की रोजी-रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ता है। धार्मिक- सांप्रदायिक विवाद खड़े करने के लिए समय उन लोगों के पास हो सकता है जो इन चिन्ताओं से मुक्त हों। जब कोई यह कहता है कि देश में असहिष्णुता बढ़ गई है तो वह इन तमाम हिन्दुओं,मुसलमानों,सिखों और ईसाइयों की नीयत पर सवाल लगाता हैं। 
          जो साधन संपन्न है वह देश छोड़ कर जा सकता है पर जो दो रोटी के लिए संघर्ष करता है उसे तो इसी देश में रहना है । जब देश विभाजन की विभीषिका झेल रहा था तब इस देश में आज रहने वाले तमाम मुसलमानों या उनके पूर्वजों ने तरह-तरह का डर दिखाए जाने के बावजूद इस देश को नहीं छोड़ा । आज किसी महंत आदित्यनाथ, साक्षी महाराज या साध्वी के बयान भर या दादरी कांड के कारण वे देश छोड़ने की क्यों सोचें ( यही वह रास्ता है जो आमिर खान उन्हें दिखाने की कोशिश कर रहे हैं) । उन्हें यहीं जीना -मरना है और अपना तथा अपनी पीढ़ियों का भविष्य बनाने और स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करना है। 
         यदि कोई यह कहता है कि सत्ताधारी दल के और उसके आनुषंगिक संगठनों कुछ सदस्य अनर्गल बयान देकर माहौल खराब कर रहे हैं तथा उन्हें नियंत्रित किया जाए, साथ ही कुछ राज्य भी धुर दक्षिणपंथी एवं सांप्रदायिक तत्वों पर लगाम लगाने में असफल हैं जिससे साहित्यिक सृजनशीलता और सांप्रदायिक स्थिति प्रभावित हो सकती है या हो रही है एवं इसे नियंत्रित करने के लिए कदम उठाए जाएं तो बात मेरी समझ में आती है और मैं इसका समर्थन करता हूँ।
         पर यदि कोई यह कहता है कि देश में पिछले कुछ महीनों में अचानक असहिष्णुता बढ़ गई है, भारतवासी असहिष्णु हो गए हैं और इससे सामान्य रूप से जान-माल का खतरा पैदा हो गया है तथा एक डेढ़ वर्ष पूर्व देश में रामराज्य की स्थिति थी, शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पिया करते थे तो यह एक राजनीतिक बयानबाजी से अधिक कुछ नहीं है जिससे देश को कोई लाभ नहीं अपितु नुकसान ही होगा।

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