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रविवार, 28 फ़रवरी 2016

  मैं हिन्दुस्तान हूँ..........! ( भारत की व्यथा)

          मैं हिन्दुस्तान हूँ। हाँ वही जिसे विदेशी और खुद को ज्यादा पढ़ा- लिखा समझने वाले इंडिया कहते हैं और जिसे पंडितों द्वारा उच्चारित 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे....' से निकालकर सन 1947 में भारत नाम दे दिया गया क्योंकि कभी हस्तिनापुर नरेश के रूप में किसी भरत नामक प्रतापी राजा ने राज्य किया था। मैं बहुत बूढ़ा हूँ, शायद दुनिया के सबसे बूढ़े मुल्कों में से एक हूँ!

          एक जमाना था जब ढाई-तीन हजार साल पहले मेरे बच्चे शास्त्रार्थ किया करते थे और तब किसी निष्कर्ष पर पहुँचा करते थे। हर कोई अपनी राय रखने के लिए स्वतंत्र था। शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद लोग विजयी व्यक्ति की बात मान लेते थे, यहाँ तक कि अपना मत छोड़ विजयी के मतानुयाई बन जाया करते था। मेरे एक महान सुपुत्र बुद्ध को इसी तरह अपने आरंभिक अनुयाई मिले थे जो बौद्ध बन गए पर ब्राह्मण थे और पहले ब्राह्मण धर्म के अनुयाई थे। तब विभिन्न मत-मतांतरों के अनुयाइयों के बीच कोई दुराव नहीं था, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था।

          जो सुविख्यात हो वह तमाम लोगों की नजरों में चढ़ जाता है । मेरे साथ भी यही हुआ । सिकंदर पहला विदेशी था जिसकी नजर मेरे ऊपर पडी और आखिर एक दिन वह मेरे दरवाजे पर आ ही गया। पर वह बहादुरों और विद्वानों का कद्रदान था। बेचारा यहीं एक युद्ध में घायल हो गया और कुछ समय बाद अपने थके-हारे सैनिकों के दबाव में आकर लौट गया पर घर नहीं पहुँच पाया, चोट उसके लिए जानलेवा साबित हुई। वह अपने कुछ राज्य यहाँ बना गया था। पर उसके देश के लोगों ने बाद में मेरे यहाँ प्रचलित धर्म ही अपना लिए और पूरी तरह मेरे अपने बन गए। इस दौरान बहादुर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य के साथ मिलकर मेरी यशोवृद्धि की। उसका पोता अशोक, गौतम बुद्ध का अनुयाई बन चण्डाशोक से धम्माशोक बन गया और मेरी प्रतिष्ठा उसने तत्कालीन विश्व में चतुर्दिक फैला दी। वैसी प्रतिष्ठा आगे चलकर गुप्त सम्राटों के समय भी मुझे न मिल सकी, भले ही उनके समय मेरी समृद्धि शिखर पर पहुँच गई और उनके युग को मेरा स्वर्णयुग कहा जाने लगा ।

          मेरी समृद्धि से ललच कर हूण ,शक,और कुषाण भी विदेशों से आए। वह कभी जीते, कभी हारे। उन्होंने अपने राज्य भी बना लिए । पर अंत में पूरी तरह भारतीय बन गए और मेरे रंग में रंग गए। कुषाण कनिष्क ने तो बौद्ध धर्म अपना लिया और मेरी प्रतिष्ठा में अपार वृद्धि की।

          पर इस सबके दौरान मेरे बच्चों में एक प्रकार की संतुष्टि का भाव भर गया जिसके कारण उनकी पिपासाएं मर गईं और इसका परिणाम हुआ कि उन्नति शिथिल पड़ गई और अंत में प्रगति बंद हो गई।

          ऐसे ही समय में पश्चिम से एक बार फिर हमले शुरू हुए। यह हमला करने वाले एक नए धर्म इस्लाम के अनुयाई थे। यह अपने धर्म और राज्य को फैलाने के लिए अपार उत्साह से भरे हुए था। शुरू में इन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली, यह आए और हमले कर लौट भी गए। बाद में इन हमलों का उद्देश्य बुतशिकन का खिताब हासिल करने के अलावा लूटपाट करना हो गया।

          मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी के साथ  आया कुतुबुद्दीन ऐबक  गुलाम वंश का पहला शासक था जिसने यहीं बस जाने का निर्णय किया। इसके साथ ही भारत में बड़े पैमाने पर इस्लाम का आगमन हुआ। हिन्दू और मुस्लिम धर्म आमने- सामने खड़े हो गए जिसमें प्रगतिविहीन हुआ हिंदू धर्म, मुस्लिम आक्रंताओं के सामने टिक न सका। पर एक बात यह हुई कि इस्लाम की आँधी हिन्दुस्तान में थम कर रह गई, वह इसके रास्ते और पूरब में न बढ़ सकी। इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म में जहाँ एक ओर प्रतिस्पर्धा हुई वहीं दोनों धर्मों ने एक- दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण भी किया। हिन्दुस्तान में इस्लाम की एक धारा सूफियत खूब फली-फैली जिसमें इस्लाम का वह चेहरा नजर आया जहाँ हिन्दू धर्म के भक्तिवाद के तत्व और रहस्यवाद कंधे से कंधा मिलाए नजर आते हैं ।

          आगे चलकर मेरे बेटे अकबर ने जिसकी सोच अपने वक्त से आगे की थी,हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच की दीवार तोड़ने की कोशिश की। सुलह कुल की नीति प्रतिपादित की और एक नया धर्म दीने- इलाही तक चला डाला। उसका नया धर्म तो नहीं चला पर मेरी ख्याति की लहरें मौर्य और गुप्त युग की तरह एक बार फिर विदेशी समुद्रतटों से जाकर टकराने लगीं और मेरी गिनती विश्व के महानतम और समृद्धतम राष्ट्र के रूप में होने लगी। मैं अपने भाग्य पर इठलाने लगा।

          पर अकबर के परपोते औरंगजेब ने इस्लाम की श्रेष्ठता में यकीन करते हुए अकबर की नीतियों को उलट दिया और यहीं से मुगल साम्राज्य की उल्टी गिनती शुरू हो गई। औरंगजेब ने इतने सारे मोर्चे खोल दिए कि वह तो इनका भार संभाल सका पर उसकी आने वाली पीढ़ियाँ इसमें अक्षम सिद्ध हुईं। अन्य कोई भारतीय शक्ति भी उनका स्थान नहीं ले पाईं। नतीजा वही हुआ जो होना चाहिए था । कुछ विदेशी चालाक गौरांग व्यापारियों ने एक-एक कर सारी भारतीय शक्तियों को हराया और इस प्रकार मुझे उनका और बाद में उनकी महारानी का गुलाम बनना पड़ा ।

          मेरे कुछ बच्चों ने बहुत संघर्ष किया। विदेशी शक्ति ने मुझे गुलाम बनाए रखने के लिए सारे हथकण्डे अपनाए। मजहब की दीवार लोगों के बीच खड़ी करने की कोशिश की। पर मेरे बच्चों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया । हर तरह की कुर्बानी दी। विदेशी शक्ति के हर तरह के जुल्म सहे। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और आखिरकार मैं आजाद हुआ। पर कुर्बानी मुझे भी देनी पड़ी। मजहब के नाम पर मेरा अंग-भंग कर दिया गया। उस समय मेरे दो टुकड़े कर दिए गए जिनके आज तीन टुकडे हो गए हैं।

          पर इस सबके बीच भी मैं मजबूती से चट्टान की तरह खड़ा रहा । मुझे चोटें लगीं पर मेरा भाल उन्नत रहा । मेरी आत्मा अक्षुण्ण रही । खंडित कर दिए जाने के बावजूद 1947 में मैं, जो शायद इस दुनिया के सबसे बूढ़े राष्ट्रों में एक हूँ, खुद को एक बार फिर जवान महसूस करने लगा क्योंकि मुझे अपने बच्चों पर नाज था। उन पर मुझे विश्वास था कि वे मुझे एक नया हिन्दुस्तान बना देंगे जो चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और अकबर महान के समय जैसा समृद्धशाली, गौरवान्वित और विश्व का समुन्नत राष्ट्र होगा।

          पर आज मेरे कुछ बच्चे जो कर रहे हैं उसने मेरा दिल तोड़ दिया है। अगर किसी बूढ़े बाप के अपने बच्चे उसकी बर्बादी तक जंग जारी रखने का ऐलान कर दें तो उसकी आत्मा जर्जर नहीं होगी? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उसके टुकड़े करने का ऐलान करें तो क्या उसकी स्थिति जीवित मरे के समान नहीं होगी ? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उस पर हमला करने वाले की याद में सालाना जलसा करेंगे तो क्या उसका दिल उसे नहीं कचोटेगा। जम्हूरियत के तले झंडा उठाने वाले लोग जब जम्हूरियत पर हमला करने वालों की तरफदारी करते हैं और इसे उनका बोलने का हक बता कर उसकी वकालत करते हैं तो मेरी आत्मा को जो चोट लगती है वह शायद इसके पहले कभी नहीं लगी।


          जैसा कि मैंने आरंभ में कहा है आपस में शास्त्रार्थ कर लो और एक नतीजे पर पहुँच जाओ,बिना किसी हिंसा के । अपनी बात कहो और दूसरे को भी कहने का हक दो, उसकी भी सुनो। यह आज की संसदीय परंपरा ही नहीं है बल्कि जैसाकि मैं कह चुका हूँ, मेरे बच्चे ढाई-तीन हजार साल पहले से इस पथ पर चलते आ रहे हैं। 

          जहाँ तक मुझे खंडित करने की बात है, तमाम लोगों की ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं दुनिया का सबसे बूढ़ा राष्ट्र, आज भी जिंदा हूँ और आगे भी रहूँगा। चंद सिरफिरे नारेबाजी कर मुझे तोड़ नहीं सकते। अगर नारों से ये दुनिया चलती होती तो तो पता नहीं क्या-क्या हो चुका होगा। जम्हूरियत के झंडाबरदारों (चुनाव में हारे और जीते दोनों पक्ष) इस मुल्क के लोगों की तरक्की का बीड़ा तुमने उठाया है तो चंद गुमराह लोगों के पीछे वक्त न जाया कर अपने इस ज़िम्मेवारी को पूरा करो ताकि इस देश के वे लोग जिनकी जिंदगी में अँधेरा है, उजाले के दर्शन कर सकें। 

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