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बुधवार, 26 जून 2013

गंगा- पौराणिक आख्यान आज के संदर्भ में

          कहते हैं कि ब्रह्माजी के आदेश पर  गंगा सगर के पुत्रों को मुक्ति देने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं. पर यह आज्ञा उन्हें अपमानजनक लगी ,इसलिए उनका   अवतरण क्रोधपूर्ण था जो पृथ्वी  पर प्रलय की सृष्टि कर देने के लिए  वेग और प्रवाह से परिपूर्ण था .  महादेवजी ने, जो केदारनाथ ही हैं, भगीरथ की प्रार्थना पर गंगा के क्रुद्ध प्रवाह को  अपनी हिमालयी जटाओं में झेल लिया और पृथ्वी की रक्षा हो सकी.महादेव की जटाओं से गंगा की जो धारा निकली वह शीतल होकर मोक्षदायिनी और जीवनदायिनी बन गई थी जो  भगीरथ सदृश मानव का अनुसरण करते हुए उनके पुरखों को तारने के लिए पाताललोक की ओर चल पडी तथा भागीरथी कहलाईं .उनकी धारा  साधारण मानवों को मोक्ष प्रदान करने के लिए पृथ्वी पर रह गई .पश्चिमी जगत में प्रचलित पुरा कथाओं में जिक्र मिलता है कि ईडेन के बगीचे से एक शक्तिशाली नदी पृथ्वी पर  गिरती है जो गंगा संबंधी भारतीय पौराणिक  आख्यान के अनुकूल ही है. अलकनंदा, मंदाकिनी और यमुना इसी गंगा की धाराएं और नाम हैं. उत्तराखंड के चारधामों में हाल में घटित भीषण वृष्टि और जल आप्लवन,भूस्खलन तथा जन-धन की अपार हानि को देखते  हुए लगता है कि हमने गंगा-आख्यान के प्रतीकात्मक अर्थों को समझने की कभी चेष्टा नहीं की.

          पौराणिक आख्यानों में सर्वत्र गंगा को मानवीकृत करते समय उन्हें  स्वच्छंद पर दूसरों की फिक्र करने वाली देवी-नारी के  रूप में चित्रित किया गया है.ब्रह्माजी के दरबार में जब  वे आती हैं तो उनकी भाव-भंगिमाएं किसी अल्हड नवयुवती सी हैं जिसे अपने कपडों-लत्तों की भी ठीक से सुध नहीं है जिसके  कारण  वहाँ उपस्थित इक्ष्वाकुवंशीय राजा महाभिष उनकी तरफ आकृष्ट हो जाते हैं.परिणामस्वरूप शापित होकर महाभिष को पृथ्वी पर राजा प्रतीप के पुत्र शांतनु के रूप में जन्म लेना पडता है.पर दूसरी तरफ जब वशिष्ठ द्वारा पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेने के लिए शापित  विकृतरूप  वसुओं ने गंगा से पृथ्वी पर नारी रूप में उनकी माँ बन कर उनका उद्धार करने के लिए और स्वयं के जन्म लेने के शीघ्र बाद अपने प्रवाह में बहाकर मृत्युलोक से मुक्त कर  देने की प्रार्थना की  तो वे सहमत हो जाती हैं.

           पृथ्वी पर जब गंगा नारी रूप में आती हैं तो राजा प्रतीप की ही ओर आकृष्ट हो जाती हैं.प्रतीप अपनी दाहिनी  जांघ पर बैठ जाने के कारण उन्हें पुत्री सम मानकर  पुत्रवधू  बनाने के लिए ही तैयार होते हैं.पर गंगा उसी समय प्रतीप को अपनी शर्त बता देती हैं कि वे उनके पुत्र के साथ तब तक  ही रहेंगी जब तक कि वह उनकी इच्छा के अनुरूप आचरण करेगा.कालांतर में राजा  प्रतीप के पुत्र शांतनु जब गंगा के समक्ष प्रणय प्रस्ताव रखते हैं तो गंगा उन्हे बता देती हैं कि उन्हें उनकी स्वतंत्रता को बाधित करने का कोई अधिकार न रहेगा और न ही वे उन्हे अप्रिय संबोधन के साथ बुला सकेंगे और यदि कभी भी उन्हें लगा कि राजा ने  इसके विपरीत आचरण किया है तो वे अपने चुने हुए मार्ग पर जाने के लिए स्वतंत्र होंगी.राजा द्वारा शर्तें स्वीकार कर लेने पर गंगा शांतनु की हो  जाती हैं.सभी वसु एक-एक कर पुत्र रूप में गंगा और शांतनु के घर जन्म लेते हैं और गंगा उनसे किए गए वायदे के अनुरूप एक-एक कर उन्हें अपने प्रवाह में बहाती  जाती  हैं.राजा शांतनु अपने पुत्रों  को एक-एक  कर बिछडते देखते हैं पर गंगा द्वारा दाम्पत्य जीवन के  लिए लगाई गई शर्तों को याद कर चुप रहते हैं. गंगा जब आठवें पुत्र  के जन्म  के बाद उसे गोद में उठाती हैं तो इस बार शांतनु चुप नहीं रह पाते और गंगा की गतिविधि पर रोष प्रकट करते हैं.इस पर गंगा राजा को पुत्र सौंप देती हैं और उनके प्रणय निवेदन के समय स्वयं द्वारा रखी गई शर्त का स्मरण कराती हैं तथा कहती हैं कि उनके साथ का अंत हुआ और वे अब जा रही हैं.

          पर गंगा निष्ठुर नहीं  हैं.पत्नी के वियोग में राजा शांतनु जब राज-पाट त्याग कर गंगा के ही किनारे तप करने चले  जाते हैं तो  वे आकर पुत्र देवदत्त को साथ ले जाती हैं  तथा पहले उन्हें ब्रह्मर्षि वशिष्ठ  को शास्त्रों का ज्ञान अर्जित करने के लिए सौंपती हैं एवं उनमें पारंगत हो जाने के बाद उन्हें परशुराम को शस्त्र विद्या में निष्णात बनाने के  लिए  सौंप  देती हैं. बालक देवदत्त के नीति,धर्म,शस्त्र और शास्त्रों का मर्मज्ञ नवयुवक बन जाने  के बाद शांतनु के निवेदन पर उन्होने पुत्र को उनके समक्ष प्रस्तुत किया तथा साथ ही राजा से अनुरोध किया कि वे तप करना छोड   पुत्र को साथ लेकर अपने राज्य वापस  चले जाएं .राजा ने ऐसा ही  किया.यह राजकुमार देवदत्त ही महाभारत के गंगापुत्र भीष्म  हैं.

          इस पौराणिक आख्यान में गंगा  स्वतंत्रताप्रिय, दूसरों के उपकार की भावना रखने वाली, नि:संकोच अपनी भावना-प्रेम-प्रणय को व्यक्त कर देने वाली,कुछ हद तक क्रोधी और रुष्ट हो जाने वाली परंतु जिम्मेदारी का भाव रखने वाली देवी-नारी के रूप में मानवीकृत होकर हमारे सामने आती हैं.  वे किसी भी आधुनिक नारी के लिए आदर्श हो सकती  हैं.पर हमने उनके इस चरित्र   को समझ कर उसके अनुरूप व्यवहार करने का प्रयास नहीं किया जिसके परिणाम हमारे सामने आने आरंभ हो गए हैं.

         क्या कारण है कि गंगा और उनकी धाराएं   उत्तराखंड में रूद्र के झंझावात के बाद मूल प्रलयंकारी रौद्र रूप में वापस आ गईं और फिर केदारनाथजी भी उन्हे अपनी जटाओं में संभाल नहीं पाए? पिछले  दिनों इस पर काफी कुछ लिखा गया है . हिमालय ही तो शिवजी की जटाओं का प्रतिरूप है जिसने गंगा को संभाल रखा है. वृक्षों और वनस्पतियों का दोहन कर शिवजी को हम जटाहीन करने में लगे हुए हैं.निर्माणकार्य के लिए हम नि:संकोच डायनामाइट का प्रयोग कर रहे हैं और जटा  की कौन कहे,हम तो शिवजी के सर को  ही अस्थिर करने में लगे हुए हैं. फिर गंगा को संभालेगा कौन यह हमने कभी सोचा नहीं. हमारी ऊर्जा की भूख और हमारा लालच इतना बढ गया कि गंगा के अलौकिक रूप की हमने  परवाह न कर स्वतंत्रताप्रिय गंगा को जिन्हे हम माँ कहते हैं, जगह-जगह बंधनों में आबद्ध करना आरंभ कर दिया . यहाँ तक कि   मैदानों में गंगा में पानी ही  नहीं रह गया,जो पानी दिखाई देता है वह कचरे के साथ आया हुआ जल है.कुंभ मेले के लिए इसी कारण बाँधों से जल छोडे जाने की विशेष व्यवस्था करनी पडी.  व्यवसाई बनकर हमने सारे रिश्ते भुला दिए हैं और पैसे के लोभ में केदारनाथजी तथा बद्रीनाथजी सबको पर्यटनस्थल में तब्दील  कर इतने बोझ से लाद दिया है और इतना मलिन कर दिया है कि वे गंगा के रोष से अपने भक्तों को  नहीं बचा सके या फिर बचाना उन्होने मुनासिब नहीं समझा.वे तो बस शांतनु की तरह हृदय में वेदना समेटे सारा दृश्य देखते रहे. कुछ वर्षों पूर्व मैंने अपने एक मित्र को दिल्ली फोन कर जब केदारनाथ जाने की इच्छा व्यक्त की तो उसने कहा कि कपाट खुलने के बाद एक सप्ताह के भीतर आ जाओ,बाद में बहुत अधिक गंदगी हो जाएगी जो बरसात हो जाने के बाद ही साफ हो सकेगी.  गंगा अनुशासनप्रिय माँ हैं जो  बच्चों की देख-रेख जिम्मेदारी से करती हैं पर यदि गलती हो गई तो दंडित भी करती हैं.

          पुराण यह भी वर्णित करते हैं  कि गंगा के सूख जाने के साथ ही कलियुग समाप्त हो जाएगा.ऐसे में सहज  मन में यह प्रश्न उभर आना स्वाभाविक है कि क्या हम  उसी राह पर चल पडे हैं.पुराण भले ही विशुद्ध वास्तविकता का लेखा -जोखा न हों पर उनमें प्रतीकात्मक निहितार्थ जरूर छिपे हुए हैं जिन्हें यदि हम समझ सकें तो हमारे लिए बेहतर  होगा.

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