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सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

छूटा हुआ सामान आपको पकडाती है (गजल)

छूटा हुआ सामान आपको पकडाती है
'सर, टेक केयर प्लीज' कह वो मुस्कुराती है।

पापी पेट के लिए वो अपना आराम छोड़
 दिन तो कभी रात यह ड्यूटी बजाती है।

किसी की माँ,बहन- बेटी या पत्नी है
 पर उन्हें सोता छोड़ भी चली आती है।

लड़की जो विशेष वेशभूषा में सजी हुई है
आपको देख भोर चार बजे मुस्कुराती है।

सच्ची-झूठी-बनावटी एयरपोर्ट पर
कई तरह की मुस्कराहटें नजर आती हैं।

कभी-कभी ही नजर आती है 'संजय'
वो मुस्कराहट जो दिल को पकड़ पाती है।


रविवार, 28 फ़रवरी 2016

  मैं हिन्दुस्तान हूँ..........! ( भारत की व्यथा)

          मैं हिन्दुस्तान हूँ। हाँ वही जिसे विदेशी और खुद को ज्यादा पढ़ा- लिखा समझने वाले इंडिया कहते हैं और जिसे पंडितों द्वारा उच्चारित 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे....' से निकालकर सन 1947 में भारत नाम दे दिया गया क्योंकि कभी हस्तिनापुर नरेश के रूप में किसी भरत नामक प्रतापी राजा ने राज्य किया था। मैं बहुत बूढ़ा हूँ, शायद दुनिया के सबसे बूढ़े मुल्कों में से एक हूँ!

          एक जमाना था जब ढाई-तीन हजार साल पहले मेरे बच्चे शास्त्रार्थ किया करते थे और तब किसी निष्कर्ष पर पहुँचा करते थे। हर कोई अपनी राय रखने के लिए स्वतंत्र था। शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद लोग विजयी व्यक्ति की बात मान लेते थे, यहाँ तक कि अपना मत छोड़ विजयी के मतानुयाई बन जाया करते था। मेरे एक महान सुपुत्र बुद्ध को इसी तरह अपने आरंभिक अनुयाई मिले थे जो बौद्ध बन गए पर ब्राह्मण थे और पहले ब्राह्मण धर्म के अनुयाई थे। तब विभिन्न मत-मतांतरों के अनुयाइयों के बीच कोई दुराव नहीं था, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था।

          जो सुविख्यात हो वह तमाम लोगों की नजरों में चढ़ जाता है । मेरे साथ भी यही हुआ । सिकंदर पहला विदेशी था जिसकी नजर मेरे ऊपर पडी और आखिर एक दिन वह मेरे दरवाजे पर आ ही गया। पर वह बहादुरों और विद्वानों का कद्रदान था। बेचारा यहीं एक युद्ध में घायल हो गया और कुछ समय बाद अपने थके-हारे सैनिकों के दबाव में आकर लौट गया पर घर नहीं पहुँच पाया, चोट उसके लिए जानलेवा साबित हुई। वह अपने कुछ राज्य यहाँ बना गया था। पर उसके देश के लोगों ने बाद में मेरे यहाँ प्रचलित धर्म ही अपना लिए और पूरी तरह मेरे अपने बन गए। इस दौरान बहादुर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य के साथ मिलकर मेरी यशोवृद्धि की। उसका पोता अशोक, गौतम बुद्ध का अनुयाई बन चण्डाशोक से धम्माशोक बन गया और मेरी प्रतिष्ठा उसने तत्कालीन विश्व में चतुर्दिक फैला दी। वैसी प्रतिष्ठा आगे चलकर गुप्त सम्राटों के समय भी मुझे न मिल सकी, भले ही उनके समय मेरी समृद्धि शिखर पर पहुँच गई और उनके युग को मेरा स्वर्णयुग कहा जाने लगा ।

          मेरी समृद्धि से ललच कर हूण ,शक,और कुषाण भी विदेशों से आए। वह कभी जीते, कभी हारे। उन्होंने अपने राज्य भी बना लिए । पर अंत में पूरी तरह भारतीय बन गए और मेरे रंग में रंग गए। कुषाण कनिष्क ने तो बौद्ध धर्म अपना लिया और मेरी प्रतिष्ठा में अपार वृद्धि की।

          पर इस सबके दौरान मेरे बच्चों में एक प्रकार की संतुष्टि का भाव भर गया जिसके कारण उनकी पिपासाएं मर गईं और इसका परिणाम हुआ कि उन्नति शिथिल पड़ गई और अंत में प्रगति बंद हो गई।

          ऐसे ही समय में पश्चिम से एक बार फिर हमले शुरू हुए। यह हमला करने वाले एक नए धर्म इस्लाम के अनुयाई थे। यह अपने धर्म और राज्य को फैलाने के लिए अपार उत्साह से भरे हुए था। शुरू में इन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली, यह आए और हमले कर लौट भी गए। बाद में इन हमलों का उद्देश्य बुतशिकन का खिताब हासिल करने के अलावा लूटपाट करना हो गया।

          मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी के साथ  आया कुतुबुद्दीन ऐबक  गुलाम वंश का पहला शासक था जिसने यहीं बस जाने का निर्णय किया। इसके साथ ही भारत में बड़े पैमाने पर इस्लाम का आगमन हुआ। हिन्दू और मुस्लिम धर्म आमने- सामने खड़े हो गए जिसमें प्रगतिविहीन हुआ हिंदू धर्म, मुस्लिम आक्रंताओं के सामने टिक न सका। पर एक बात यह हुई कि इस्लाम की आँधी हिन्दुस्तान में थम कर रह गई, वह इसके रास्ते और पूरब में न बढ़ सकी। इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म में जहाँ एक ओर प्रतिस्पर्धा हुई वहीं दोनों धर्मों ने एक- दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण भी किया। हिन्दुस्तान में इस्लाम की एक धारा सूफियत खूब फली-फैली जिसमें इस्लाम का वह चेहरा नजर आया जहाँ हिन्दू धर्म के भक्तिवाद के तत्व और रहस्यवाद कंधे से कंधा मिलाए नजर आते हैं ।

          आगे चलकर मेरे बेटे अकबर ने जिसकी सोच अपने वक्त से आगे की थी,हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच की दीवार तोड़ने की कोशिश की। सुलह कुल की नीति प्रतिपादित की और एक नया धर्म दीने- इलाही तक चला डाला। उसका नया धर्म तो नहीं चला पर मेरी ख्याति की लहरें मौर्य और गुप्त युग की तरह एक बार फिर विदेशी समुद्रतटों से जाकर टकराने लगीं और मेरी गिनती विश्व के महानतम और समृद्धतम राष्ट्र के रूप में होने लगी। मैं अपने भाग्य पर इठलाने लगा।

          पर अकबर के परपोते औरंगजेब ने इस्लाम की श्रेष्ठता में यकीन करते हुए अकबर की नीतियों को उलट दिया और यहीं से मुगल साम्राज्य की उल्टी गिनती शुरू हो गई। औरंगजेब ने इतने सारे मोर्चे खोल दिए कि वह तो इनका भार संभाल सका पर उसकी आने वाली पीढ़ियाँ इसमें अक्षम सिद्ध हुईं। अन्य कोई भारतीय शक्ति भी उनका स्थान नहीं ले पाईं। नतीजा वही हुआ जो होना चाहिए था । कुछ विदेशी चालाक गौरांग व्यापारियों ने एक-एक कर सारी भारतीय शक्तियों को हराया और इस प्रकार मुझे उनका और बाद में उनकी महारानी का गुलाम बनना पड़ा ।

          मेरे कुछ बच्चों ने बहुत संघर्ष किया। विदेशी शक्ति ने मुझे गुलाम बनाए रखने के लिए सारे हथकण्डे अपनाए। मजहब की दीवार लोगों के बीच खड़ी करने की कोशिश की। पर मेरे बच्चों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया । हर तरह की कुर्बानी दी। विदेशी शक्ति के हर तरह के जुल्म सहे। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और आखिरकार मैं आजाद हुआ। पर कुर्बानी मुझे भी देनी पड़ी। मजहब के नाम पर मेरा अंग-भंग कर दिया गया। उस समय मेरे दो टुकड़े कर दिए गए जिनके आज तीन टुकडे हो गए हैं।

          पर इस सबके बीच भी मैं मजबूती से चट्टान की तरह खड़ा रहा । मुझे चोटें लगीं पर मेरा भाल उन्नत रहा । मेरी आत्मा अक्षुण्ण रही । खंडित कर दिए जाने के बावजूद 1947 में मैं, जो शायद इस दुनिया के सबसे बूढ़े राष्ट्रों में एक हूँ, खुद को एक बार फिर जवान महसूस करने लगा क्योंकि मुझे अपने बच्चों पर नाज था। उन पर मुझे विश्वास था कि वे मुझे एक नया हिन्दुस्तान बना देंगे जो चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और अकबर महान के समय जैसा समृद्धशाली, गौरवान्वित और विश्व का समुन्नत राष्ट्र होगा।

          पर आज मेरे कुछ बच्चे जो कर रहे हैं उसने मेरा दिल तोड़ दिया है। अगर किसी बूढ़े बाप के अपने बच्चे उसकी बर्बादी तक जंग जारी रखने का ऐलान कर दें तो उसकी आत्मा जर्जर नहीं होगी? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उसके टुकड़े करने का ऐलान करें तो क्या उसकी स्थिति जीवित मरे के समान नहीं होगी ? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उस पर हमला करने वाले की याद में सालाना जलसा करेंगे तो क्या उसका दिल उसे नहीं कचोटेगा। जम्हूरियत के तले झंडा उठाने वाले लोग जब जम्हूरियत पर हमला करने वालों की तरफदारी करते हैं और इसे उनका बोलने का हक बता कर उसकी वकालत करते हैं तो मेरी आत्मा को जो चोट लगती है वह शायद इसके पहले कभी नहीं लगी।


          जैसा कि मैंने आरंभ में कहा है आपस में शास्त्रार्थ कर लो और एक नतीजे पर पहुँच जाओ,बिना किसी हिंसा के । अपनी बात कहो और दूसरे को भी कहने का हक दो, उसकी भी सुनो। यह आज की संसदीय परंपरा ही नहीं है बल्कि जैसाकि मैं कह चुका हूँ, मेरे बच्चे ढाई-तीन हजार साल पहले से इस पथ पर चलते आ रहे हैं। 

          जहाँ तक मुझे खंडित करने की बात है, तमाम लोगों की ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं दुनिया का सबसे बूढ़ा राष्ट्र, आज भी जिंदा हूँ और आगे भी रहूँगा। चंद सिरफिरे नारेबाजी कर मुझे तोड़ नहीं सकते। अगर नारों से ये दुनिया चलती होती तो तो पता नहीं क्या-क्या हो चुका होगा। जम्हूरियत के झंडाबरदारों (चुनाव में हारे और जीते दोनों पक्ष) इस मुल्क के लोगों की तरक्की का बीड़ा तुमने उठाया है तो चंद गुमराह लोगों के पीछे वक्त न जाया कर अपने इस ज़िम्मेवारी को पूरा करो ताकि इस देश के वे लोग जिनकी जिंदगी में अँधेरा है, उजाले के दर्शन कर सकें। 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

~ मेघदूत से मुलाकात (व्यंग्य) ~      

              ~ मेघदूत से मुलाकात ~
        वायुयान अपनी संपूर्ण गति से अग्रसर था। दूर कहीं क्षितिज का अहसास भर हो रहा था गोया कि वह वायुमंडल के अथाह सागर में नीचे कहीं था जहाँ से उसका दिखना दुर्लभ था । क्षितिज के ऊपर बादलों ने जैसे एक दीवार बना रखी थी जो वायुयान की खिड़की से दूरस्थ नजर आ रही थी । नीचे भूमि चौकोर, आयताकार, वर्गाकार हरे, भूरे और खाकी टुकड़ों में नजर आ रही थी। मैंने अंदाज लगाया कि जो हरे टुकड़े दिख रहे हैं वे खड़ी फसल के हैं जो अभी पकी नहीं है, भूरे और कत्थई टुकड़े पक चुकी फसल के हैं। खाकी टुकड़े वे हैं जहाँ फसल कट चुकी है। इन आकृतियों के बीच- बीच कहीं चौड़ी, कहीं पतली और बारीक रेखाएँ जो कहीं सीधी तो कहीं टेढ़ी- मेेढ़ी थीं,आती- जाती हुई दिखाई दे रही थीं। यह शायद नदियाँ, नाले, सड़कें और पगडंडियाँ हैं जिन्हें ऊपर से पहचानना मुश्किल है, मैंने सोचा। बीच-बीच में कुछ छोटी-छोटी आकृतियाँ का समूह सा दिखता जो शायद इंसानी बस्तियाँ थीं।

       तभी मुझे खिड़की के पास बादल का एक टुकड़ा दिखाई दिया जो बड़ी जल्दी में कहीं जा रहा था। मैंने उससे बातचीत शुरू कर दी-
 "मेघ भाई इतनी शीघ्रता में कहाँ चल दिए? कौन सी विरहिणी  प्रियतमा ने तुम्हें अपने प्रिय के पास संदेश लेकर भेजा है?"

"तुम अभी भी कालिदास के जमाने में हो? मेघों से ये ड्यूटी कब की छिन चुकी है । अब मोबाइल है, एस एम एस है, व्हाट्स ऐप है, फेसबुक है जहाँ एक वर्चुअल दुनिया है और लोग वर्चुअल प्रेम तक कर डालते हैं। सो अब हमें कहीं कबाब में हड्डी बनने की जरूरत नहीं है।"

"मेघ जी वो फिल्मी गीत आपने सुना नहीं- बादल का टुकड़ा एक चला झूमते,चाँद भी छुप गया उसके आगोश में।। तो कहीं ऐसे ही किसी मिशन पर किसी के छुपने-छुपाने के चक्कर में तो आप नहीं निकल पड़े हैं?"

"ये फिल्म वाले हैं जो चाँद और बादल का प्रेम कराते फिरते हैं। ठंड के मौसम में तो मेढक-मेढकी भी नहीं पूछते हमें। फिर मियाँ इस समय तो दिन है रात नहीं। चाँद अभी कहाँ मिलेगा, सूरज के पास गए तो कंबख्त हमें सुखा ही डालेगा ! "

"तो फिर कहाँ निकल पडे ? क्या किसी गाँव के बाहर बरस कर किसी की पीड़ा को हरा-भरा करने वाले हो, बकौल किसी शायर के- रोज उठते हैं यहाँ झूम के बादल पर सब के सब गाँव के बाहर ही बरस जाते हैं।"

"देखो भइया, हमको जहाँ बरसना होता है बरस जाते हैं । बिना भेदभाव के बरसते हैं कोई किसी धर्म का हो,किसी जाति का हो,गरीब हो या अमीर हो सबको भिगोते हैं। गाँव-शहर का भेद नहीं करते । हमें किसी से वोट थोड़े लेना है कि शहर-गाँव देखें।"

"तो देख क्या रहे हो बरस जाओ, यूँ ही उडते रहोगे तो कोई विरहन गाने लगेगी- आखिर साजन मिले भी हमसे तो ऐसे मिले कि हाय, सूखे खेत से बादल जैसे बिन बरसे उड़ जाय"

"किसान की खड़ी फसल नीचे देख रहे हो। अगर बरस जाऊँ तो किसान के साथ- साथ तुम भी मुझे गाली दोगे।"

"तो फिर क्या दूर क्षितिजस्थ बादलों के समूह ने आपको देशनिकाला दे दिया है जो आप अकेले-अकेले चले जा रहे हो ?"

"देशनिकाला हो देश के दुश्मनों का , मुँह से जरा शुभ-शुभ बोला करो ! "

"अरे आप तो कोई संघी भाई लगते हो। देश के दुश्मनों के देशनिकाले की बात करते हो!"

"क्यों देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर किसी की बपौती है क्या? इसके बारे में और कोई नहीं बोल सकता?"

"मेघ सर जी इसके बारे में बोलना अब पाप समझा जाने लगा है। आप को तुरंत प्रतिक्रियावादी ,संघी, भाजपाई बता दिया जाएगा। अब तो देश के टुकड़े करने की बात करना,अलगाववादियों के समर्थन में नारे लगाना ही प्रगतिशीलता है, ऐसा करने को मिले यही बोलने की आजादी है। इसके समर्थन में हमारे बडे-बड़े नेता भी सड़क पर उतर आए है"

"इसी का उपाय करने जा रहा हूँ"

"आप तो बड़े देशभक्त निकले मेघजी, पर आप इसका उपाय कैसे करोगे। "

" देखो हम क्या कर सकते हैं, बस बरस ही तो सकते हैं। दिल्ली- हरियाणे जा रहा हूँ, वहाँ का माहौल बड़ा गरम है। राहुल गर्म हैं, केजरीवाल गर्म हैं, लेफ्टिस्ट गर्म हैं, राइटिस्ट भी गर्म हैं , संघी-भाजपाई गर्म हैं, जाट भाई भी गर्म हैं। खूब जमकर बरसूँगा, लोगों को ठंडा करूँगा, उनके दिलो दिमाग में ठंडक लाऊँगा ताकि लोग ठंडे दिमाग से देश की तरक्की के बारे में सोचें । जैसे हम बिना भेदभाव के हर तबके पर बरसते हैं, वैसे ही राजनीति छोड़ देश के हर वर्ग की प्रगति की बात हमारे राजनीतिज्ञ सोचें।"

" दशरथ माँझी की तरह आपने बड़ा कठिन काम ठान लिया है मेघ जी। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। बहुत दिनों के बाद वायुयान में विंडो सीट मिली थी । सो आपसे मुलाकात हो गई और आपने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए। खैर मेरे विमान में सुरक्षापेटी बाँधने का संकेत कर दिया गया है क्योंकि गंतव्य स्थल आने वाला है। दिल्ली यात्रा के लिए आपको शुभकामनाएँ । चलिए फिर कभी ऐसे ही आते- जाते मुलाकात हो जाएगी। फिलहाल विदा लेते हैं !"

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

~ Left-Right Confusions in the Indian Politics~   


        Indian politics suddenly seems to have become a prisoner of Right- Left conflict. The divide is clear so it leaves no space for moderates. You have either to be a tolerant or intolerant, Pro Dalit or Anti Dalit, Pro Hindu or Anti Hindu, Secular or Communal, Pro Modi or Anti Modi. There are no chances for issue based support. Either you come to this side of fence or go to that side. No body cares that there has to be a balancing point between two extremes and only then there can be a proper balance which holds the democracy.

       For long left has been a regional force only in Indian politics and for sometime it seemed that sooner or later it would become marginal. Wheresoever Left has been strong Right has been a marginal force only. In the left dominated regional areas whenever Right made efforts to raise its head, Left had no qualms in crushing it even by violent means. Right also tried, though mostly in vain , to match violence by violence. Yet lately left has been having a downward slide which continues and next elections in Bengal and Kerala would decide whether the downward slide continues or could be averted for sometime.

       However Left has been able to hold its forte, despite of right's foray, among worker's unions and associations as well as such educational institutions where political debate has been a norm. To me the reason seems that while left is a natural choice for workers due to espousing of class struggle, for starry eyed romantic youth also it becomes a choice as a means of creating an equal world where all the oppressed are supposed to get an equal opportunity. As a student in my youth I went through a stage when left attracted me.

        Nearly thirty-thirty five years ago student youth wings of extreme left started making forays in the educational institutions and in many of these they were able to replace the traditional left. The traditional left never expressed anti India sentiments but the extreme left basically being anti establishment has no problem with being associated with activities which may be called anti Indian or anti national.Since the left found itself pushed to the corner by extreme left, to find the lost centre space at leftist bastions, it also started following tactics of extreme left. That is why we find a Kanhaiya of ASFI organizing a function for Afzal Guru and then caught in a nightmare as the programme is hijacked by extreme left as well as pro separatists. Extreme left considers separatists as a natural ally in its cause of throwing out a democratically elected government and establishing its own hegemony in the country.

        Rahul Gandhi's Political immaturity becomes pronounced as he joins the bandwagon of leftists in a conflict that is actually a Right- Left rivalary. This way he has given an opportunity to the right to dub him anti national and paint a right- left+extreme left +separatist conflict as a National- Anti National conflict. He has ceded the middle ground which was strong point of Congress for decades, to other parties. Many other opposition parties have also jumped the gun but basically being caste based parties they are not going to suffer as much in the process as much Congress . 

        Congress has decided to highlight Rohith Vemula issue along with J N U 's case to escape anti national tag and keep Dalit agenda on top.

        Here the question arises how Rohith Vemula remains a " Bharat Ma Ka Lal " (a la P M ) despite of organizing a function for Afzal Guru and how a Kanhaiya Lal becomes anti national for the same cause. Does being national and anti national can also be decided on the basis of caste and a concession can be given due to caste? Our national parties should answer this question.

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

वो नदी वो शजर की छाँव छोड आए हैं (गजल)

                        -गजल-
वो नदी वो शजर की छाँव छोड आए हैं हम
जब से शहर के इस जंगल में रहने आए हैं हम

वो दुवाओं सी आबोहवा वहाँ छोड़ आए हैं हम
हवा में जहर और शोर बरपा यहाँ पाए हैं हम

मुस्कुराए पर किसी से नाता न जोड़ पाए हैं हम
भागते वक्त की चाल के साथ न दौड़ पाए हैं हम

मौसम को बदलने से न अब तलक रोक पाए हैं हम
पाँव न कुचलें कोई  ये परवाह कहाँ छोड़ पाए हैं हम

अपनेपन और मुहब्बत से मुँह मोड़ आए हैं हम
'संजय' वहाँ कितनों का दिल तोड़ आए हैं हम

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

वसंत के आगमन के द्योतक सेमल के फूल


        मेरे आवास के दरवाजे पर लगा हुआ सेमल का वृक्ष वसंत के आगमन के साथ- साथ पुष्पित हो मुझे हर्ष से भर देता है। ग्रीष्म के आरंभ के साथ-साथ यह वृक्ष सेमल के श्वेत-उजले सितारे बिखेरना आरंभ कर देता है। लगभग एक मास तक वृक्ष नित्यप्रति दिन-रात इस दान प्रक्रिया को संपन्न करता रहता है। इसके बाद जैसे किसी औघड दानी का खजाना चुक जाए यह महाशय भी शांत हो बैठ जाते हैं।

        जब वर्षा का आगमन होता है तो वृक्ष पुन: कुछ हर्षित दिखाई देता है । पावस के प्रभाव में कभी-कभी झूमता भी दिख जाता है। पर जैसे दानवीर राजा हर्ष अपना सब धन चुकने के बाद अपने वस्त्रों का भी दान कर दिया करते थे , वैसे ही सेमल का वृक्ष जैसे अपने पल्लव-पत्तों को भी वर्षा की समाप्ति के बाद दान करने पर लग जाता है। राजा हर्ष की बहन राजश्री , उनके द्वारा वस्त्र-आभरणों का भी दान कर दिए जाने के बाद वस्त्रादि अपने पास से प्रदान करती थी पर हमारे इन मित्र की बहन सदृश वसंत ऋतु है जिसके आगमन के लिए इन्हें लगभग तीन मास प्रतीक्षा करनी पड़ती है। शीत के आगमन के साथ लगता है जैसे यह तपस्यारत हो जाते हैं और अंत में एकाकी,शांत-क्लांत दिखाई देने लगते हैं।

        जब बसंत ऋतु का आगमन होता है तो वह जैसे अपने इन भइया को लाल- सुर्ख फूलों से सज्जित कर फाल्गुन के लिए पहले से तैयार करना आरंभ कर देती है। इनकी नई वेशभूषा देखकर आकर्षित हो पंछी इनके पास आने लगते हैं । इनमें से कई इनके पुष्पों में कुछ खाद्य ढूँढते हैं और उसका सेवन कर उड़ लेते हैं। इनके पुष्प गौओं और बकरियों को बड़े सुस्वादु लगते हैं और वृक्ष महोदय उनके लिए रोज भूमि पर पुष्पों की लाल-सुर्ख चादर बिछा दिया करते हैं। बच्चों को इनके पुष्प बड़े प्रिय हैं । वे भी इन्हें बीनने चले आते हैं। इस प्रकार यह अपने सारे पुष्पों का फाल्गुन के बाद भी तब तक दान करते रहेंगे जब तक इनका फूलों का यह खजाना चुक नहीं जाता। पर यह ऐसे दानी हैं कि इस दान के बाद और समृद्ध हो जाते हैं। हर दान किए फूल के बदले प्रकृति इन्हें अनमोल राशि से भरी एक फली देती है । फलियाँ धीरे-धीरे बड़ी होने लगती है और जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने लगती है सूख कर काली पड़ने लगती हैं। इसके साथ-साथ यह सेमल वृक्ष महाशय एक बार फिर दान के लिए तैयार हो जाते हैं। काली पड़ी फलियाँ पक-पक कर फूटने लगती हैं और उनके भीतर का लुटने के लिए तैयार कोष सफेद गोल सितारों के रूप में उड-उड़ कर चारों तरफ छाने लगता है। लोग कई बार थैले लेकर इन्हें बटोरने आते हैं तो बच्चे शौकिया इन्हें बीनने आ जाते हैं और यह अपना यह खजाना तब लुटाते रहते हैं जब तक वह पूरा का पूरा फिर से खाली नहीं हो जाता।

       मैं पिछले कुछ महीनों से ऐसा व्यस्त हो गया हूँ कि मुझे अपने इन मित्र की तरफ देखने का भी अवसर न मिला और कार्यालय की समस्याओं ने दिमाग में ऐसा घर किया कि प्रकृति एवं ऋतु की तरफ ध्यान देने का अवसर न रहा। कोलकाता में जाते हुए इनके एक भाई पर निगाह पड़ी जो पुष्प सज्जित था। सहसा मुझे अपने इन मित्र का ध्यान हो आया और मन में कौंधा कि क्या इस वर्ष मेरे मित्र के लिए वसंत ऋतु का आगमन नहीं हुआ। क्या यह अभी भी शांत-क्लांत-गंभीर तपस्वी की मुद्रा में हैं या फिर कोलकाता का इनका यह भ्रातृ वृक्ष ही समय से पूर्व पुष्पित हो गया है। आखिर कोलकाता जनसंख्या और प्रदूषण के कारण गर्म भी तो है, गंगा के कूल पर स्थित मेरे घर पर तो मौसम अभी भी ठंडा है, मैंने सोचा। घर लौटा तो रात्रि हो चुकी थी। आज प्रात: बरामदे में निकल कर मैंने प्रथम साक्षात्कार अपने इन मित्र का किया। मेरे लिए सुखद आश्चर्य रूप सेमल वृक्ष महाशय लाल रक्तिम पुष्पों से सजे खड़े थे।

       यानी कि तुम्हारे लिए भी बसंत का आगमन हो गया है, आज तो सरस्वती पूजा है ! सरस्वती - पूजा यानी कि वसंत ही तो! चलो अब जब तक अपनी दान-प्रक्रिया फिर से न पूरी कर लो, यूँ ही खिले-खिले रहना मेरे मित्र!