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सोमवार, 25 मई 2020

निराला जी की जीवनसंगिनी मनोहरा देवी का स्पेनिश फ्लू महामारी में निधन एवं उनके जीवन पर प्रभाव

निराला जी को कवि बनाने वाली जीवनसंगिनी मनोहरा देवी का  उनके जीवन पर प्रभाव 


कितने वर्णों में, कितने चरणों में तू उठ खड़ी हुई,

कितने बंदों में, कितने छंदों में तेरी लड़ी गई,

कितने ग्रंथों में, कितने पंथों  में देखा, पढ़ी गई-

             तेरी अनुपम गाथा

मेरे कवि ने देखे तेरे स्वप्न सदा अविकार

          --अनामिका, प्रिया में निराला जी


        सन 1918-19 के दौरान भारत में फैली स्पेनिश फ्लू महामारी में देश के कम से कम एक करोड़ बीस लाख  से एक करोड़ तीस लाख के बीच जन काल के ग्रास में समा गए थे। उस समय के मुंबई प्रांत और संयुक्त प्रांत की एक बड़ी आबादी को इस महामारी ने प्रभावित किया था। हिंदी साहित्य में छायावाद के स्तंभ कवियों में से एक माने जाने वाले महाप्राण निराला का पूरा परिवार इस महामारी की चपेट में आ गया था।


         निराला जी का परिवार उन्नाव जिले के गढ़ाकोला गांव का निवासी था, यद्यपि वे अपने पिताजी के साथ बंगाल के महिषादल में रहा करते थे जहां उनके पिता पं. राम सहाय तिवारी, महिषादल के राजा की सेवा में थे । निराला जी की विदुषी पत्नी मनोहरा देवी  का मायका रायबरेली नगर से 25 किलोमीटर दक्षिण डलमऊ कस्बे में था। एक संभ्रांत परिवार से संबंध रखने वाले उनके पिता पंडित रामदयाल स्वयं विद्वान थे और विद्वज्जनों का सम्मान करते थे । मनोहरा देवी की माता का नाम पार्वती देवी था । साहित्यानुरागी मनोहरा रामचरित मानस पर विशेष अधिकार रखती थीं। वे हारमोनियम एवं सितार बहुत अच्छा बजाती थीं तथा उनके द्वारा किया जाने वाला रामचरित मानस का सस्वर पाठ लोगों के मन को हर लेता था। निराला जी ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" में लिखा है कि उन्होंने महिलाओं के बीच में पत्नी को जब  "श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन, हरण भव भय दारुणम् " गाते हुए सुना ( जब वे उनसे तीन-चार दिनों की प्रथम भेंट के चंद दिनों बाद पहली बार ससुराल गए थे। निराला जी के गांव के आसपास प्लेग की महामारी फैले होने के कारण मनोहरा देवी के पिताजी उन्हें ससुराल के लिए विदा करने के पश्चात शीघ्र वापस लिवा लाए थे ) तो लगा कि जैसे उनके गले में मृदंग बज रहे हैं। निराला जी लिखते हैं- "श्रीमती जी का गाना अच्छा, हिंदी अच्छी। मेरी इन दोनों विषयों की ताली तब तक नहीं खुली। संसार में हारने की सी लाज नहीं। स्त्री सृष्टि की सबसे बड़ी हार है, पुरुष की जीत की सबसे बड़ी प्रमाण-प्रतिमा, इससे मैं हारा।"  साहित्य और संगीत पर पत्नी का अधिकार देख ,निराला जी ने वापस कोलकाता जाने का निश्चय कर अपने पिताजी को पत्र द्वारा सूचित कर दिया और ससुराल वालों को भी बता दिया ।


         बंगाल में पालन-पोषण होने तथा बंगला माध्यम से शिक्षा-दीक्षा होने के कारण निराला जी स्वाभाविक रूप से बंगला भाषा एवं संस्कृति को श्रेष्ठ समझते थे तथा बंगला को अपनी मातृभाषा के समान समझकर उस पर गर्व भी करते थे। मनोहरा देवी के रामचरितमानस पाठ ने निराला जी को यह सोचने के लिए विवश किया कि हिंदी, बंगला से कमतर नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि मनोहरा देवी ने निराला जी को हिंदी के सौंदर्य का ज्ञान कराया और विधिवत हिंदी का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। 


         बंगला संस्कृति में  रचे-बसे निराला तदानुरूप सामिष थे और बाल्यकाल से ही विद्रोही प्रकृति के होने के कारण बहुत सी प्रचलित मान्यताओं का विरोध करते थे तथा उनके विपरीत आचरण करते थे। मनोहरा देवी सनातनी ब्राह्मण संस्कारों में रची बसी थीं। उन्होंने निराला जी के सामने तमाम सारे धर्मग्रंथों के उद्धरण रखकर उन्हें बताया कि वह मांसभक्षण कर पाप के भागी बन रहे हैं। निराला जी ने पाप के भय से मांसभक्षण छोड़ दिया। इसके कुछ दिनों बाद एक बुजुर्ग ब्राह्मण ने निराला जी से उनके शरीर पर छा रही दुर्बलता का कारण पूछा। निराला जी ने इसका कारण मांसाहार छोड़ना बताया तथा यह भी बता दिया कि उन्होंने मांसाहार पाप के भय से छोड़ा है। बुजुर्ग ब्राह्मण ने निराला जी से कहा कि वे मांसाहार किया करें, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के लिए यह पाप नहीं है। इस पर निराला जी ने बुजुर्ग ब्राह्मण से लिखित उद्धरण मांगा। बुजुर्ग ब्राह्मण ने उनसे कहा कि वंशावली में लिखा हुआ है, वह इसे देख लें। तत्पश्चात निराला जी ने पुन: मांस खाना आरंभ कर दिया। मनोहरा देवी ने उनसे कहा कि वे जिस दिन भी मांस खाएंगे, बहुत सारे प्रतिबंध होंगे जिनका उन्हें पालन करना होगा। निराला जी ने कहा कि वे रोज ही मांस खाएंगे। मनोहरा देवी ने कहा कि फिर उन्हें मायके भेज दिया जाए। स्वयं निराला जी ने उल्लेख किया है कि इसके पश्चात यदि वे चार महीने निराला जी के पास रहतीं तो आठ महीने मायके में रहतींं। इस सबने मनोहरा देवी की निर्बलता में योगदान दिया था और जब स्पेनिश फ्लू की महामारी आई तो उनका शरीर उसे सह पाने के लायक नहीं रह गया था।


         परंतु हिंदी साहित्य को निराला जैसा महाकवि प्रदान करने का श्रेय निश्चित रूप से मनोहरा देवी को ही है, जिन्होंने पति को हिंदी को जानने-समझने और उसका अध्ययन करने की चुनौती दी। इस पृष्ठभूमि ने कालांतर में निराला जी को हिंदी के शीर्षस्थ साहित्यकार और कवि के रूप में स्थापित करने का बीजारोपण किया । यह कहना अनुचित न होगा कि मनोहरा देवी का स्थान उनके जीवन में प्रकाशस्तंभ के समान है तथा उन्होंने निराला जी के  जीवन को उसी प्रकार नई दिशा दिखाई जिस प्रकार विद्योत्तमा ने कालिदास को और रत्नावली ने तुलसीदास को एक नए मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया । 


        निराला जी ने "कुल्लीभाट" में लिखा है-  श्रीमती जी मेरे अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रही थीं, अर्थात शिष्यत्व स्वीकार नहीं कर रही थीं, वह समझती थीं कि मैं और जो कुछ जानता  होऊं, हिंदी का पूरा गंवार हूं। …….मुझे भी श्रीमती जी की विद्या की थाह नहीं थी। आखिर, एक दिन बात लड़ गई। 

मैंने कहा - "तुम हिंदी-हिंदी करती हो, हिंदी में क्या है"

उन्होंंने कहा- "जब तुम्हें आती ही नहीं तब कुछ नहीं है"। मैंने कहा - " हिंदी मुझे नहीं आती?"

उन्होंने कहा- "यह तो तुम्हारी जबान बतलाती है। बैसवाड़ी बोल लेते हो। तुलसीकृत रामायण पढ़ी है, बस? तुम खड़ी बोली को क्या जानते हो ?"

…….श्रीमती जी पूरे उच्छवास से खड़ी बोली के धुरंधर साहित्यिकों के नाम गिनाती गईं।


         निराला जी की अवस्था उस समय 16 वर्ष की थी। अत: यह घटना सन 1896 में उनके जन्म को देखते हुए सन् 1912 की होनी चाहिए। ' राम की शक्ति पूजा' में राम की प्रेरणा के रूप में सीता जी का चित्रण तथा ' तुलसीदास' में तुलसीदास जी की प्रेरणा रूप में रत्नावली का चित्रण - दोनों पर ही निराला जी के मन में बसी मनोरमा देवी की प्रेरणात्मक छवि का प्रभाव है। मनोरमा देवी की प्रेरणा से निराला जी ने अच्छी तरह से हिंदी व्याकरण सीखा और हिंदी में रचना लेखन का प्रयास आरंभ किया । अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" में निराला जी ने 'सरस्वती' और 'मर्यादा' पत्रिकाएं मंगा कर , पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को गुरु मानकर एकलव्य की तरह अच्छी तरह हिंदी व्याकरण सीखने का उल्लेख किया है- " पढ़कर भाव अनायास समझने लगा, पर लिखने में अड़चन   पड़ती थी। ब्रजभाषा या अवधी, जो घर की जबान थी, खड़ी बोली के व्याकरण से भिन्न है।……..लेकिन मेहनत सब कुछ कर सकती है। मैं रात दो-दो, तीन-तीन बजे तक सरस्वती लेकर एक-एक वाक्य संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला व्याकरण के अनुसार सिद्ध करने लगा।"


         उन्होंने 'जूही की कली' कविता , जो उनकी प्रथम प्रकाशित कविता है , की रचना  मनोहरा देवी के जीवन काल में ही की और इसे छपने के लिए सरस्वती पत्रिका में भेजा। पर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा यह रचना अस्वीकृत कर दी गई और कालांतर में यह माधुरी पत्रिका में छपी। मनोहरा देवी के निधन के उपरांत रची गई उनकी कविताओं में युवा मन का श्रंगारिक जोश नहीं दिखाई पड़ता है। वहां पर विरह, अतीत, छायावाद, विप्लव और क्रांति के स्वर ही मिलते हैं। 


         ससुराल आने - जाने के सिलसिले में ही निराला जी का परिचय डलमऊ कस्बे के ही कुल्ली भाट से हुआ जो उनके मित्र बन गए। अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" का नायक उन्होंने इनको ही बनाया ।


         सन 1918 में स्पेनिश फ्लू महामारी का शिकार होकर निराला जी की प्रेरणा मनोहरा देवी उनके जीवन से सदा के लिए विदा हो गईं। मनोरमा देवी का इलाज करने वाले डॉक्टर ने निराला जी को बताया कि उनके फेफड़े कफ से जकड़ गए थे और उन्होंने दवा आदि लेने से इनकार कर दिया था। स्पेनिश फ्लू महामारी ने निराला जी के जीवन को किस प्रकार प्रभावित किया इसका उल्लेख उन्होंने अपने उपन्यास "कुल्लीभाट" में किया है- 


" इसी समय इनफ्लुएंजा का प्रकोप हुआ । पिताजी एक साल पहले गुजर चुके थे इसीलिए नौकरी की थी। नहीं तो हर लड़के की तरह दुनिया को सुखमय देखते रहने के स्वप्न लिए रहता, कम से कम लिए रहूंगा, यही सोचता था।


तार आया - तुम्हारी स्त्री सख्त बीमार है, अंतिम मुलाकात के लिए आओ।' मेरी उम्र तब बाईस  साल थी। स्त्री का प्यार उसी समय मालूम दिया जब वह स्त्रीत्व छोड़ने को थी। अखबारों से मृत्यु की भयंकरता  मालूम हो चुकी थी। गंगा के किनारे आ कर प्रत्यक्ष की। गंगा में लाशों का ही जैसे प्रवाह हो। ससुराल जाने पर मालूम हुआ,  स्त्री गुजर चुकी है ; दादाजाद बड़े भाई देखने के लिए आकर बीमार होकर घर गए हैं। मैं दूसरे ही दिन घर के लिए रवाना हुआ। जाते हुए रास्ते में देखा,  मेरे दादाजाद बड़े भाई साहब की लाश जा रही है। रास्ते में चक्कर आ गया। सिर पकड़ कर बैठ गया।


घर जाने पर भाभी बीमार पड़ी दिखीं। पूछा, " तुम्हारे दादा को कितनी दूर ले गए होंगे?"  मैं चुप हो गया। उनके चार लड़के और एक दूध-पीती लड़की थी। उस समय बड़ा लड़का मेरे साथ रहता था, बंगाल में पढ़ता था। घर में चाचा जी अभिभावक थे। भाई साहब की लाश निकलने के साथ चाचा जी भी बीमार पड़े । मुझे देखकर कहा, "तू यहां क्यों आया?"


पारिवारिक स्नेह का वह दृश्य कितना करुण और हृदयद्रावक था,  क्या कहूं? स्त्री और दादा के वियोग के बाद हृदय पत्थर हो गया।  रस का लेश न था। मैंने कहा, "आप अच्छे हो जाएं, तो सबको लेकर बंगाल चलूं।"


उतनी उम्र के बाद यह मेरा सेवा का पहला वक्त था। तब से अब तक किसी-न-किसी रूप से फुर्सत नहीं मिली।  दादा के गुजरने के तीसरे दिन भाभी गुजरीं। उनकी दूध-पीती लड़की बीमार थी। रात को उसे साथ लेकर सोया। बिल्ली रात-भर आफत किए रही। सुबह उसके प्राण निकल गए। नदी के किनारे उसे ले जाकर गाड़ा ।  फिर चाचाजी ने प्रयाण किया। गाड़ी गंगा तक जैसे लाश ही ढोती रही। भाभी के तीन लड़के बीमार पड़े । किसी तरह सेवा-शुश्रूषा से अच्छे हुए। इस समय का अनुभव जीवन का विचित्र अनुभव है। देखते-देखते घर साफ हो गया। जितने उपार्जन और काम करने वाले आदमी थे, साफ हो गए। चार लड़के दादा के, दो मेरे।  दादा के सबसे बड़े लड़के की उम्र 15 साल, मेरी सबसे छोटी लड़की साल-भर की। चारों ओर अंधेरा नजर आता था।


घर से फुर्सत पाने पर मैं ससुराल गया। इतने दु:ख और वेदना के भीतर भी मन की विजय रही। रोज गंगा देखने जाया करता था। एक ऊंचे टीले पर बैठकर लाशों का दृश्य देखता था। मन की अवस्था बयान से बाहर। डलमऊ का अवधूतटीला काफी ऊंचा, मशहूर जगह है।  वहां गंगाजी ने एक मोड़ ली है। लाशें इकट्ठी थीं। उसी पर बैठकर घण्टों वह दृश्य देखा करता था। कभी अवधूत की याद आती थी, कभी संसार की नश्वरता की।


एक दिन पूछ-पूछ कर कुल्ली वहां पहुंचे।  पहले दुखी थे, मेरे लिए संवेदना लिए हुए थे, देख कर मुस्कुरा दिए- बड़ी निर्मल मुस्कान। मैंने देखा वह सच्चा मित्र है।


कुल्ली ने कहा, " मैं जानता हूं, आप मनोहर को बहुत चाहते थे। ईश्वर चाह की ही जगह मार देता है, होश कराने के लिए। आप मुझसे ज्यादा समझदार हैं, और मैं आपको क्या समझाऊं ?  पर यह निश्चित रूप से समझिएगा, भोग होता है, अच्छा वह है, जिसका अंत अच्छा हो।"


मैं अवधूत की कुटी की गड़ी ईंटें देख रहा था। कुल्ली ने कहा, "यहां आप क्यों आए हैं? क्योंकि मृत्यु का दृश्य आपने देखा है।  मृत्यु के बाद मन शांति चाहता है। जो मर गए हैं, वे भी शांति प्राप्त कर चुके हैं। यह अवधूत-टीला है। बहुत पहले यहां एक अवधूत रहते थे।  बस्ती से यह जगह कितनी दूर है! मरघट से भी दूर है, यानी अवधूत मृत्यु के बाद जैसे पहुंचे हों। यहां जैसे शांति-ही-शांति हो।"


कुल्ली की बात बड़ी भली मालूम दी। बड़ा सुंदर तत्व जैसे निहित था।  मुझे बड़ा आश्वासन मिला। ऐसी बात इधर मैंने किसी से नहीं सुनी थी।


कुल्ली ने कहा, "चलिए,  रामगिरि महाराज के मठ में दर्शन कीजिए। आप वहां हो तो आए होंगे? "


मैंने कहा, " नहीं ।"


कुल्ली उठे। उनके साथ मैं भी चला गया।


         अपने जीवन की प्रेरणास्रोत के रूप में मनोरमा देवी का उल्लेख करते हुए निराला जी ने लिखा है- जिसकी हिंदी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आंखें नहीं मिला सका, लजाकर हिंदी की शिक्षा के संकल्प से  कुछ काल बाद देश से विदेश (बंगाल- महिषादल) पिता के पास चला गया था, और उस हिंदी-हीन प्रान्त में बिना शिक्षक के 'सरस्वती' की प्रतियां ले कर पद-साधना की, और हिंदी सीखी थी; जिसका स्वर गृहजन,परिजन और पुरजनों की सम्मति में मेरे (संगीत) स्वर को परास्त कर देता था; जिसकी मैत्री की दृष्टि  क्षण-मात्र में मेरी रुक्षता को देखकर मुस्कुरा देती थी, जिसने अंत में अदृश्य होकर, मुझसे मेरी पूर्ण परिणीता की तरह मिलकर मेरे जड़ हाथ को अपने चेतन हाथ से उठाकर दिव्य श्रृंगार की पूर्ति की, वह सुदक्षिणा स्वर्गीया प्रिया प्रकृति दिव्यधामवासिनी हो गई।


गीतिका में उन्होंने लिखा है-

रंग गई पग-पग धन्य धरा

हुई जग जगमग मनोहरा

श्रंगार, रहा जो निराकार,

रस कविता में उच्छ्वसित धार।


सरोज स्मृति में-

गाया स्वर्गीया प्रिया संग-

भरता प्राणों में राग- रंग


परिमल, निवेदन में-

एक दिन थम जाएगा रोदन

तुम्हारे प्रेम अंचल में।

लिपट स्मृति बन जाएंगे कुछ कन

कनक सींचे नयन जल में।


परिमल, प्रिया के प्रति में-

एक बार भी यदि अजान के

अंतर से उठ आ जातीं तुम

एक बार भी प्राणों की तम

छाया में आ कह जातीं तुम

सत्य हृदय का अपना हाल

कैसा था अतीत वह,अब यह

बीत रहा है कैसा काल


        निराला जी लिखते हैं- "कभी अवधूत की याद आती थी, कभी संसार की नश्वरता की । अब पिताजी नहीं,माताजी नहीं, पत्नी नहीं, केवल मैं हूं! केवल मैं! केवल मैं!!" निराला जी ने सारे दुखों से उबर कर स्वयं को संभाला और अपने भविष्य के जीवन संघर्ष में लग गए -

 अभी न होगा मेरा अंत

अभी -अभी ही तो आया है

मेरे वन में मृदुल बसंत।

मेरी जीवन का यह जब प्रथम चरण

इसमें कहां मृत्यु है जीवन ही जीवन

अभी पड़ा है आगे सारा  यौवन !

स्वर्ण किरण करलोलों पर

बहता रहे यह बालक मन



        रोजी- रोटी का संघर्ष, स्वयं को एक साहित्यकार के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और परिवार के बच्चों के पालन-पोषण का संघर्ष। बेटे रामकृष्ण और बेटी सरोज की देखभाल करते हुए वे पत्नी से विछोह को भूले हुए थे-

"खण्डित करने को भाग्य-अंक

देखा भविष्य के प्रति अशंक"


         साहित्य के क्षेत्र में आरंभिक  असफलताओं के बादमु क्त छंद और सौंदर्य बोध के बल पर निराला जी ने स्वयं को हिंदी साहित्य के चर्चित कवि के रूप में स्थापित कर लिया। उनका विरोध करने वाले भी थे पर अपने विद्रोही स्वभाव के बलबूते वे उन्हें जवाब देने में  सक्षम थे। अन्य छायावादी कवियों की भांति उनकी कविता पर निराशा नहीं हावी थी , उसमें आशा का स्वर था। परंतु पुत्री सरोज के विवाहोपरांत सन् 1935 में उसका बीमारी से देहावसान हो जाने पर पहली बार निराला जी के काव्य में निराशा के स्पष्ट स्वर दिखाई देते हैं। सरोज स्मृति में लिखी उनकी सुप्रसिद्ध पंक्तियां हैं - 

दु:ख ही जीवन की कथा रही

क्या कहूं आज जो नहीं कही

कन्ये मत कर्मों का अर्पण

करता तेरा तर्पण।





मंगलवार, 19 मई 2020

वर्ष 1918 में भारतवर्ष में स्पेनिश फ्लू का प्रकोप

वर्ष 1918 में भारतवर्ष में स्पेनिश फ्लू का                                 प्रकोप

       द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वर्ष 1918 में दुनिया के विभिन्न देशों में एक विशेष प्रकार के फ्लू ने भयानक महामारी के रूप में फैलना आरंभ कर दिया था। इस फ्लू को स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया पर इसका अर्थ यह नहीं कि इसका आरंभ स्पेन से हुआ। एक विचार के अनुसार स्पेन के प्रथम विश्वयुद्ध में निरपेक्ष रहने के कारण तथा  स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग होने के कारण वहां के मामले अधिक प्रकाश में आए और इसे स्पेनिश फ्लू का नाम दे दिया गया। परंतु इस बीमारी ने महामारी का रूप पहले अमेरिका के कन्सास में लिया और वहां से यह बीमारी यूरोप पहुंची तथा यूरोप से इसका आगमन भारत में हुआ। पर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सेंसरशिप होने के कारण यूरोप के इंग्लैंड, फ्रांस जर्मनी आदि देशों ने अपने यहां महामारी की बात छुपाई और सही आंकड़े प्रकाश में नहीं आने दिए। एक स्थान से दूसरे स्थान पर सैनिकों के आवागमन ने इस बीमारी के फैलने में अपना योगदान दिया। भारतवर्ष में इस महामारी की शुरुआत जून 1918 में हुई और 1920 तक यह कभी अधिक प्रकोप और कभी कम प्रकोप के साथ देश में बनी रही। 

        प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों को लेकर एक जलयान मई,1918 के अंत में लौटा था जिसने मुंबई बंदरगाह पर लंगर डाला। ऐसा माना जाता है कि इस जलयान में संक्रमित सैनिक थे। उनके द्वारा यह महामारी जून, 1918 में मुंबई  और फिर मुंबई से अगस्त 1918 तक पूरे देश में फैल गई। ब्रिटिश सरकार इस बात से सहमत नहीं थी कि यह बीमारी सैनिकों की लाई हुई थी। सरकार का कहना था कि सैनिक ही मुंबई में आकर संक्रमित हो गए थे। सितंबर के अंतिम सप्ताह में मुंबई में यह महामारी  अपने चरम पर पहुंच गई और अनेक मुंबई वासियों के लिए जानलेवा सिद्ध हुई। मध्य अक्टूबर में मद्रास (आज का चेन्नई शहर) और मध्य नवंबर में कोलकाता में इस महामारी ने कहर ढाया।

        इस बीमारी ने सबसे अधिक 20 से 40 की उम्र की युवा जनसंख्या को प्रभावित किया। मरने वालों में महिलाओं का प्रतिशत अपेक्षाकृत अधिक था।  इसका कारण यह था कि उन दिनों महिलाओं की खुराक समुचित नहीं होती थी और कमजोर होने के कारण प्रतिरोधक क्षमता के अभाव में वे आसानी से इसका शिकार बन गईं। 1918 की एक सैनिटरी कमिश्नर रिपोर्ट के अनुसार मुंबई और चेन्नई दोनों ही स्थानों पर 1 सप्ताह के भीतर 200 से अधिक मौतें हुईं। 

        इस वर्ष मानसून भी असफल रहा जिसके कारण अकाल जैसी परिस्थितियां बन गईं। लोगों के पास खाद्य सामग्री का अभाव हो गया। खाने के अभाव में लोग कमजोर हो गए थे। इनमें से  रोजगार की तलाश में बहुत से लोग गांव से शहर की तरफ आए। यह शहर सघन आबादी वाले थे और वहां पर परिस्थितियां बहुत अच्छी नहीं थीं। इस स्थिति ने महामारी के प्रकोप को बढ़ाने में और अधिक योगदान दिया।

        महात्मा गांधी का साबरमती आश्रम भी इस बीमारी की चपेट में आ गया और वे स्वयं जो उस समय 48 वर्ष के थे, इस बीमारी से संक्रमित हो गए। उन्होंने कहा - जीवित रहने में जैसे सारी रुचि समाप्त हो गई है। इस पर एक स्थानीय समाचार पत्र ने लिखा- गांधी जी का जीवन उनका नहीं है,यह भारत का है। इस दौरान गांधीजी ने  पूरी तरह द्रव खाद्य पदार्थों का सेवन किया और वे तथा उनका आश्रम इससे मुक्ति पाने में सफल रहे।

        महामारी ने भारतवर्ष में रहने वाले ब्रिटिश जनों और भारतीयों के बीच का अंतर बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था। ब्रिटिश जन इस महामारी से विशेष प्रभावित नहीं हुए। संभवतः इसका कारण यह था कि वे साफ, खुले,हवादार और बड़े घरों में रहते थे। जिन कामों के लिए बाहर निकलने की जरूरत होती, उन कामों को वे नौकरों के माध्यम से संपन्न करवाते थे। समाज के शासक वर्ग और आम जनता के बीच ऐसे भी संपर्क कम ही था।

        देश में ब्रिटिश शासन डेढ़ सौ वर्षो से चल रहा था। पर उस समय की स्वास्थ्य प्रणाली इस बीमारी से निपटने में अक्षम सिद्ध हुई। इस प्रकार की धारणा है कि इस बीमारी के कारण हुई मौतों, उपजे दुख और आई  आर्थिक तंगी ने भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिकूल भावनाओं के प्रतिफलन में विशेष योगदान दिया। राष्ट्रवादी विचारधारा के एक समर्थक ने लिखा- किसी भी सभ्य देश की सरकार ने बिना कुछ किए धरे अपनी जिम्मेदारियों को इस प्रकार छोड़ नहीं दिया होता, जैसा कि इस भयानक और जानलेवा महामारी के समय ब्रिटिश भारत की सरकार ने किया।

        भारतीय जनता का अनुभव ब्रिटिश जन से अलग था। उस समय प्रकाशित एक पत्र के अनुसार भारतीय जनता ने इतना कठिन समय पहले कभी नहीं देखा था। हर तरफ रूदन ही रूदन था। पूरे देश भर में कोई ऐसा गांव या शहर नहीं था जहां लोगों ने बड़ी संख्या में अपनों को न खोया हो। पंजाब के सैनिटरी कमिश्नर ने लिखा -- शहरों की गलियां मृतकों और मर रहे लोगों से भरी पड़ी थीं। हर तरफ आतंक और भ्रम की स्थिति थी।

       उत्तर भारत और पश्चिमी भारत में इस बीमारी का कहर खासतौर पर बरपा हुआ, विशेषकर मुंबई  तथा संयुक्त प्रांत में। वहां पर मृत्यु दर 4.30 से 6% के मध्य रही। दक्षिण भारत और पूर्व भारत में असर थोड़ा कम था, क्योंकि वहां पर वायरस कुछ देर से पहुंचा था  । इन क्षेत्रों में मृत्यु दर 1.5 से 3% के बीच रही। सितंबर 1918 से दिसंबर 2019 के बीच श्मशानों में 150 से 200 के बीच शव प्रतिदिन आते थे। श्मशान घाट और कब्रिस्तान शवों से पट गए थे। कई स्थानों पर लाशों को उठाने वाला कोई नहीं था और ऐसे लोग गिद्धों तथा सियारों का ग्रास बन गए।

       महामारी के प्रकोप के कारण वर्ष 1919 में भारत की जन्म दर में लगभग 30% की गिरावट आई। इसके परिणामस्वरूप 1911 से 1921 के दशक के लिए भारतवर्ष की जनसंख्या वृद्धि की दर 1.2% रही जो पूरे ब्रिटिश शासन काल में सबसे कम वृद्धि दर थी।


        पूरी महामारी के दौरान कुल मिलाकर 1 करोड़ 20 लाख से 1 करोड़ 30 लाख  के बीच तक लोग कालकवलित हुए। एक अन्य अनुमान के अनुसार प्राण खोने वालों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख तक थी और देश की आबादी का 5% से 6% तक स्वर्ग सिधार गए। उस समय पूरी दुनिया की आबादी डेढ़ अरब थी । अनुमानत: पूरी दुनिया में 50 करोड़ लोग इस महामारी से प्रभावित हुए थे तथा 5 से 10 करोड़ के बीच लोगों ने अपने प्राण गंवा दिए। आंकड़े बहुत स्पष्ट न होकर विभिन्न आधार लेकर अनुमान द्वारा निर्धारित किए गए हैं, क्योंकि उस समय  विभिन्न देशों ने इस फ्लू के कारण होने वाली मौतों के आंकड़े छिपाने का प्रयास किया। होने वाली मौतों में भारतीयों का हिस्सा उनकी आबादी के हिस्से के अनुपात में बहुत अधिक था।


        बाद में एक सरकारी समीक्षा रिपोर्ट में तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए व्यवस्था में सुधार और इसमें विस्तृत भागीदारी की सिफारिश की गई। समाचार पत्रों में इस बात को लेकर सरकार की आलोचना की गई कि महामारी के समय में भी ब्रिटिश भारत की  सरकार का प्र‌शासन संभालने वाले, चारों तरफ फैली महामारी और जनता की तकलीफों की उपेक्षा करते हुए हिल स्टेशनों में अपना समय बिताते रहे। उन्होंने लोगों को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था। 'पेल राइडर : दि स्पेनिश फ्लू ऑफ 1918 ऐन्ड हाऊ इट चेन्ज्ड दि वर्ल्ड' की लेखिका लारा स्पिनी के अनुसार मुंबई के अस्पतालों के सफाई कर्मचारियों ने फ्लू का इलाज करवा रहे ब्रिटिश सैनिकों से दूरी बनाकर रखी । उनके दिमाग में 1886 एवं 1914 के बीच फैले प्लेग और उस दौरान ब्रिटिश जनों द्वारा भारतवासियों की उपेक्षा की स्मृति थी, जिसके कारण 80,00000 भारतीय काल का ग्रास बन गए थे। स्पिनी के अनुसार ब्रिटिश प्रशासन भारतीयों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं था एवं उपेक्षा का भाव रखता था। स्पेनिश फ्लू की महामारी  तथा इसके कारण होने वाले विनाश के लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं थे। प्रथम विश्व युद्ध के कारण देश के बहुत से डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ युद्ध स्थलों पर चले गए थे, अतः देश में उनकी भी कमी थी। इस सबकी एक बड़ी कीमत देश को तथा सामान्य जन को चुकानी पड़ी।


        उस समय देश में महामारी से लड़ने में एनजीओ तथा स्वयंसेवियों एवं उनकी संस्थाओं ने विशेष भूमिका निभाई। उन्होंने औषधालय  और छोटे-छोटे अस्पताल खोले जहां मरीजों के इलाज की व्यवस्था की गई। शवों को हटाने की और उनके दाह संस्कार तथा दफनाने की व्यवस्था की गई। कपड़े और दवाओं का वितरण किया गया तथा इस सबके लिए पैसे भी जुटाए गए। कई स्थानों पर नागरिकों द्वारा एंटी इन्फ्लूएंजा कमेटी बनाई गईं। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार - भारतवर्ष के इतिहास में इसके पहले कभी भी विपदा काल में समाज के शिक्षित तथा बेहतर स्थिति  रखने वाले लोग, इतनी बड़ी संख्या में अपने गरीब भाइयों की मदद के लिए आगे नहीं आए थे।



सन 1918 की स्पेनिश फ्लू महामारी और सन 2020 की कोविड महामारी में समानताएं


        सन 1918-19 की फ्लू महामारी तथा सन 2020 की कोविड-19 महामारी दो अलग-अलग तरह के संक्रमण हैं, फिर भी हमें स्थितियों में कुछ समानताएं दिखाई देती हैं और कुछ सीखने लायक बातें भी हैं।


        स्पेनिश फ्लू महामारी का कारण एच वन एन वन वायरस का एक स्ट्रेन था। पर इस वायरस के विषय में उस समय कोई भी जानकारी नहीं थी। साथ ही एंटीबायोटिक दवाओं की भी खोज उस समय तक नहीं हो पाई थी। आज सार्स कोविड-19 वायरस के बारे में भी हमें बहुत अच्छी जानकारी नहीं है। साथ ही इसके लिए किसी औषधि अथवा टीके की जानकारी भी अब तक नहीं हो पाई है। प्रयास चल रहे हैं। फिर भी सन 1918 से स्थिति इस मायने में थोड़ा बेहतर है कि कुछ दवाओं का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है। दूसरे वर्ष 1918 में युवा जनसंख्या महामारी से बड़े स्तर पर प्रभावित हुई थी जबकि इस बार वृद्ध लोग इससे अधिक प्रभावित हो रहे हैं।

       उस समय देश के सबसे घनी जनसंख्या वाले नगरों में से एक मुंबई संक्रमण का केंद्र बना था, जहां से पूरे देश में संक्रमण फैला। वर्तमान में देश में कोविड-19 महामारी की शुरुआत मुंबई से तो नहीं हुई, पर मुंबई इस महामारी के संक्रमण का देश में सबसे बड़ा केंद्र बना हुआ है और इस बात की प्रचुर संभावना है कि यदि वहां पर संक्रमण नियंत्रण में नहीं आता है तो पूरे देश से कोविड-19 का संक्रमण समाप्त होने के जल्दी कोई आसार नहीं हैं।

        जून 1918 के अंत में मुंबई में फ्लू महामारी के कारण मृत्यु दर 75 व्यक्ति प्रति दिन की थी, जो सितंबर, 1918 में 230 व्यक्ति प्रति दिन तक पहुंच गई और 3 गुनी हो गई थी। कोविड-19 के संदर्भ में वर्तमान वर्ष 2020 में जहां 1 अप्रैल को मुंबई में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या 437 थी वही 18 मई को लगभग डेढ़ महीने के बाद यह संख्या 5242 है, जो दर्शाती है कि डेढ़ महीने में संक्रमित लोगों की संख्या 12 गुनी हो चुकी है।

        सन 1918 में किसी प्रकार के औपचारिक लॉकडाउन की घोषणा नहीं की गई थी परंतु कार्यालयों और कल-कारखानों में लोगों लोगों की उपस्थिति अत्यधिक कम हो गई थी। कुछ समाचार पत्रों ने लोगों को घर से बाहर न निकलने का सुझाव दिया था। टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें भीड़भाड़ वाले स्थानों मेला, त्यौहार, थियेटर, स्कूल-कालेज, सभा हॉल, सिनेमा और पार्टियों तथा भीड़ से भरे वाहनों में जाने से बचने के लिए कहा। वर्तमान समय की ही भांति यह सलाह दी गई थी कि फ्लू का संक्रमण मानव संसर्ग तथा  नाक और मुंह के रास्ते निकले कणों से फैलता है अतः किसी के निकट आने से बचा जाए। लोगों को बंद कमरों के बजाय खुले और हवादार स्थानों पर विश्राम करने ,पौष्टिक भोजन करने तथा व्यायाम करते रहने की भी सलाह दी गई। वर्ष 1918 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ स्थानों पर महामारी को नियंत्रित रखने के लिए आज की ही तरह सैनिटेशन,मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग का अनुपालन करने के लिए कहा गया। 

        आज जब हम कोविड-19 का सामना कर रहे हैं,  देश में वर्ष 1918 की तरह कोई विदेशी शासन नहीं है बल्कि  लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र स्तर पर तथा प्रांतों के स्तर पर चुनी हुई सरकारे हैं। वे अपनी तरफ से स्थिति को संभालने के लिए भरसक जो भी प्रयत्न बन पड़ रहा है,  कर रही हैं। पर देश के नागरिक के तौर पर हम सबका भी यह कर्तव्य है कि एक शताब्दी पहले की ही तरह जो देशवासी बेहतर स्थिति में हैं, उन लोगों की मदद करें जिन्हें इसकी जरूरत है।  निसंदेह अब तक बहुत से लोगों ने संस्थाओं के स्तर पर तथा अपने व्यक्तिगत स्तर पर इस दिशा में अपना योगदान दिया है। पर आगे चलकर संक्रमण के और भी बढ़ने की संभावना है तथा उस स्थिति में इसकी और भी जरूरत रहेगी।









बुधवार, 13 मई 2020

Movement of people under the shadow of Corona

      Movement of people under the                     shadow of Corona


         I don't know about specialists, but per se my observation, I was sure that lockdown will only slow rate of proliferation and as proliferation increases albeit slowly, people living in congested and not very clean atmosphere and conditions would be greater at risk and become a fresh source of proliferation. People can't be made to stay at a place where they have gone basically  to earn their livelihood, beyond a limit when the source of livelihood itself has become dry.


         That is happening now. In slums effective social distancing is not possible at all. The best option would have been to allow people in the beginning of lockdown,  to move to their native places with a provision for a quarantine period at home. It would have decongested slums and the situation would have been less threatening there. Initially, poor people were not that much infected also, as in the initial phase the main source of infection were visitors coming from other countries or Indians/NRIs coming from outside. 


         Now slums and poor localities have become infected and people are being allowed to move. This step is while too late for such localities, native places where people are moving to, would be at greater  peril now. I could imagine this situation in the beginning, but the Govt. and advisors might have been optimistic . Hard measures and risk taking are hallmarks of the present Central Govt. So the Govt. didn't hesitate in asking the people to stay put where they were although with a good sense, yet lacking in farsightedness. In this whole process the marginalised section of society was ignored.


         We are sitting pretty at our home, but I shudder thinking about those who have so far been at mercy of others in the lands which are not their own,  and where they have been to serve others and earn livelihood for themselves. While some have been fortunate enough to travel by train or bus , many of them are moving now towards their homes on foot, in a rickety carriage, rickshaw or auto rickshaw, ready to go 1200 and 1500 KMs along with their families facing all the hardships on the way. Some are moving hidden in a goods carrier truck as if they are escaping a war ravaged country. The initial optimism and calculation has proven wrong now. I had written about the need to get slums evacuated and possibility of their becoming a source of infection,  to my friend Ravhuvansh Mani ji when he asked about options for the poor in the beginning of this lockdown. 


         I'm not blaming anyone. In total unfamiliar crisis situations our assumption may go wrong. I think so far if we have not done very good , we have not done bad either. Yet,  I feel our approach should have been more humanistic , especially with the marginal section of society. Many a times I fear if Mumbai is going to become another Wuhan or Newyork. The day cases crossed 60,000 mark in India, I couldn't sleep properly in the night feeling that  the situation may now go out of hand for us. Lockdown is the only hope for Indians but the problem is that one day this lockdown has to be lifted.