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मंगलवार, 24 जून 2014

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध कितना वास्तविक?

          भारत सरकार के राजभाषा हिंदी संबंधी कुछ रूटिन  परिपत्रों के जारी किए जाने पर (जो समय-समय पर जारी किए जाते हैं और पहले भी जारी किए गए हैं) करुणानिधिजी को सहसा एक बार फिर याद आ गया है कि यह अहिंदीभाषियों पर हिंदी थोपने की और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की साजिश है. इसके पहले जब 1996 में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी थी जिसमें करूणानिधि की पार्टी साझीदार थी और मुलायम सिंह यादव ने रक्षामंत्री के तौर पर आदेश जारी किया था कि उनके सामने समस्त फाइलें केवल हिन्दी में पेश की जाएंगी तब करूणानिधि को यह  याद नहीं  आया था कि यह हिंदी को थोपने की कोशिश है या अहिंदीभाषियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश है.  इसका कारण यह है कि उस समय वह सत्ता पक्ष के अंग थे. करूनानिधि का हिंदी- विरोध तभी जागृत होता है जब वे विपक्ष में रहते हैं और इस समय तो उनकी पार्टी चुनावों में बुरी तरह पिटने के बाद बुरी दशा में है. पर सवाल यह है कि क्या  काठ  की  हंडिया रोज-रोज चढ पाएगी. समय बदल चुका है और भाषा को मुद्दा  बना  कर करुणानिधि अपनी  पार्टी को तमिलनाडु में वापस सत्ता में नहीं ला  पाएंगे. आज तमिलनाडु की जनता हिंदी सीखने की जरूरत को समझती है और उसे अहमियत देती है. यही कारण है कि वहाँ हिंदी सिखाने वाले संस्थानों में भारी भीड होती है. तमिलनाडु में हिंदी शिक्षकों को आसानी से रोजगार मिल जाता है. यह परिदृश्य तमिलनाडु के हिंदी- विरोध की हकीकत को बयान करता है. वस्तुत: तमिलनाडु के राजनीतिज्ञों  ने तमिल जनता को हिंदी की शिक्षा से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा है. तमिलनाडु का नागरिक जब देश के दूसरे भागों में जाता है तब वह स्वयं को कटा हुआ महसूस करता है हिंदी की जरूरत को शिद्दत के  साथ अनुभव करता है. मैंने देखा है कि पूरे मनोयोग से प्रयास कर कुछ समय के बाद हिंदी सीख भी लेता है  पर इस दौरान वह भाषा को लेकर तमिलनाडु में होने वाली  राजनीति के दुष्प्रभाव को बडी ही बेबसी के साथ महसूस करता है.  दूसरी ओर तमिलनाडु का पडोसी राज्य केरल है जहाँ आजादी के समय से ही हिंदी हाईस्कूल तक अनिवार्य है.नतीजा यह है कि केरलवासी  आपको देश के हर भाग में सेवारत मिल  जाएगा.  उसे कहीं भी जाने पर समायोजन करने में कोई कठिनाई  सामने नहीं आती.

         मैं एक घटना बताता हूँ जिससे आपको यह पता चल  जाएगा कि तमिलनाडुवासियों का  हिंदी विरोध कितना वास्तविक है. पंद्रह वर्ष पूर्व मैं एक रक्षा प्रशिक्षण संस्थान में कक्षाएं लिया करता था जहाँ पूरे देश से मैकेनिकल इंजीनियर प्रशिक्षण के लिए आया करते थे. एक दिन मेरे पास लगभग पंद्रह प्रशिक्षणार्थियों का एक समूह आया .यह सभी तमिलनाडु से थे. उन्होंने मुझसे कहा कि वे हिंदी सीखना चाहते हैं और मैं इसमें उनकी मदद करूँ. मैंने उनसे कहा कि आप लोग डायरेक्टर महोदय के सामने अपनी बात रखें. यदि वे रोज एक घंटा इसके लिए निर्धारित कर दें तो मैं आप लोगों की सहायता इस अवधि के दौरान कर दिया करूँगा. इस पर उन्होंने कहा कि मैं उन्हें अलग से समय दूँ और वे मुझे इसके लिए जो भी देय होगा वह देंगे. मैंने उन्हें पुन: कहा कि उन्हें किसी प्रकार का कोई देय देने की जरूरत नहीं है. वे डायरेक्टर महोदय से बात करें और मैं भी बात करूँगा तथा कार्यालय अवधि के दौरान ही उनके लिए हिंदी सीखने की व्यवस्था हो जाएगी और अंततोगत्वा इसकी व्यवस्था हो गई. अपनी सेवाअवधि के दौरान मुझे ऐसे अनेक उत्साही तमिल मिले जो हिंदी सीखने के प्रति बडे ही कृतसंकल्प और दृढ्प्रतिज्ञ थे तथा उन्होंने बडे ही उत्साहपूर्वक हिंदी सीखी. ऐसे में मैं यह निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि अब तमिलनाडु में भाषा की राजनीति नहीं चलने वाली है. सन उन्नीस सौ  सरसठ के बाद अब तक के सैंतालीस वर्षों की अवधि में गंगा और कावेरी दोनों में ही बहुत पानी बह चुका है. इसलिए यदि करूणानिधि को अपनी राजनीति चमकानी है तो उन्हें इसके लिए कोई नया उपाय ढूँढना होगा.