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सोमवार, 29 दिसंबर 2014

पी के फिल्म क्या हिन्दू धार्मिक भावनाओं के खिलाफ है?

         पी के  फिल्म क्या हिन्दू धार्मिक भावनाओं के खिलाफ है?

          मैं फिल्में बहुत कम देखता हूँ। साल में एक या दो से अधिक फिल्में मेरे खाते में नहीं आतीं वह भी प्राय: तभी देखता हूँ जब मेरी श्रीमतीजी द्वारा किसी फिल्म को देखने की इच्छा व्यक्त करते हुए उसकी अनुशंसा की जाती है। तद्नुसार विगत रविवार को मैं राजकुमार हिरानी की फिल्म 'पी के' देखने गया। मुझे फिल्म बहुत ही अच्छी लगी । फिल्म में एक एलियन चरित्र के माध्यम से जिसे आमीर खान द्वारा निभाया गया है , व्यंग्यात्मक शैली में धर्म के नाम पर होने वाले व्यवसाय को कटघरे में खडा किया गया है।धार्मिक अंतर्विरोधों, अंधश्रद्धा और धर्म के नाम पर होने वाली ठगी को फिल्म बखूबी चित्रित करती है।फिल्म धार्मिक कार्य-व्यवहार तथा विश्वास पर बुनियादी सवाल खडे करती है जो पूरी तरह वाजिब हैं। मुझे फिल्म में कुछ दृश्य और डायलाग जरूर ऐसे लगे जिन्हें मेरे संस्कार बच्चों की उपस्थिति में देखने- सुनने की इजाजत नहीं देते। पर मुझे और मेरी पत्नी को फिल्म की मुख्य स्टोरीलाइन में कोई बात आपत्तिजनक नहीं लगी। जबकि यहाँ यह बताना वाजिब होगा कि मेरी पत्नी धार्मिक प्रवृत्ति की हैं तथा काफी पूजा-पाठ करती हैं।फिल्म आज की तिथि तक रूपए 236 करोड से अधिक का व्यवसाय कर चुकी है (जो वर्ष 2014 में किसी भी हिन्दी फिल्म द्वारा अब तक किया गया अधिकतम व्यवसाय है) और निश्चित रूप से यह राशि खर्च कर फिल्म देखने वाली अधिसंख्य जनता हिन्दू है और इन अधिसंख्य हिन्दुओं में से अनेक को मैंने फिल्म के डायलागों पर ताली बजाते हुए भी पाया।

          पर कुछ हिन्दूवादी संगठनों,धार्मिक हस्तियों तथा नेताओं ने फिल्म का विरोध शुरू कर दिया है। सुब्रमण्यम स्वामी तो यहाँ तक कह बैठे कि फिल्म आई एस आई द्वारा फाइनेंस की गई है। भोपाल और अहमदाबाद में फिल्म के खिलाफ प्रदर्शन की खबरें भी आई हैं। कुछ लोग आमीर खान को कठघरे में खडा कर रहे हैं और तुर्रा यह कि उसके मुसलमान होने का हवाला दे रहे हैं। पर यह लोग इस तथ्य को नजरअंदाज करते हैं कि आमीर खान ऐक्टर भर है और उसका काम निर्देशक के बताए अनुसार ऐक्टिंग करना मात्र है।फिल्म के निर्माता और निर्देशक (करण जौहर एवं राजकुमार हिरानी) हिन्दू हैं।

          ऐसे लोगों द्वारा फिल्म का विरोध करना स्वाभाविक है जिन्हें यह लगे कि फिल्म उनके पेट पर लात मारती है क्योंकि धर्म के नाम पर चल रही उनकी दूकान पर इस फिल्म के कारण असर पडेगा।पर जिन धर्म आधारित संगठनों की ऐसी कोई दुकानदारी नहीं है,उनके द्वारा फिल्म के विरोध का क्या कारण है? एक कारण तो मेरी समझ में यह आया कि फिल्म में एक हिन्दू लडकी को मुस्लिम लडके और वह भी पाकिस्तानी से प्यार करते हुए दिखाया गया है ।इस प्रकार यह तथाकथित 'लव जेहाद' की धारणा के अनुरूप है जिसे पिछले कुछ समय से यह संगठन उछालने की कोशिश कर रहे हैं। यह संगठन उन फिल्मों का विरोध नहीं करते जिनमें हिन्दू लडके को पाकिस्तानी मुस्लिम लडकी से प्यार करते हुए दिखाया जाता है।वी एस नयपाल ने पाकिस्तानी सेना की पृष्ठभूमि वाली मुस्लिम लडकी से शादी की है तो भी वे अटलजी की सरकार के सम्माननीय अतिथि थे।  प्रत्यक्ष तौर पर हिन्दू संगठन लव जेहाद की बात न कहकर हिन्दू धार्मिक भावनाएं आहत होने ,देवी-देवताओं के अपमान और हिन्दू धर्म के उपहास की बात कर रहे हैं। ऐसे लोग शायद इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं कि हिन्दू धर्म में धर्म के नाम पर ठगी करने वाले बाबाओं की बाढ आई हुई है और फिल्म देखने वालों की भारी संख्या यह बताती है जनमत इन बाबाओं के खिलाफ है।यदि वास्तव में लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई होतीं तो वे इतनी बडी संख्या में अपने बाल-बच्चों को लेकर यह फिल्म देखने नहीं जाते। यह तथ्य भी काबिले गौर है कि एकाध वर्ष पहले आई फिल्म 'ओ एम जी' के ऊपर इन संगठनों ने आपत्ति नहीं की थी जबकि उसे देखने पर मुझे वाकई लगा था कि कुछ दृश्य तथा डायलाग हिन्दू भावनाओं को आहत करने वाले हैं।इस कारण यह संभावना बलवती दिखाई देती है कि बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में इन संगठनों का साहस बढा हुआ है तथा येन केन प्रकारेण यह तत्व अपने एजेंडा को केन्द्र में रखना चाहते हैं। पर यदि ऐसा होता रहता है तो यह प्रधानमंत्री द्वारा प्रशस्त किए जा रहे विकास और सुशासन के मुद्दे को प्रभावित करेगा।

          एक अन्य बात जो ध्यान देने योग्य है वह यह कि फिल्म में कुछ दृश्य और डायलाग ऐसे हैं जिन पर मुस्लिम और ईसाई आपत्ति कर सकते थे पर इन समुदायों ने अब तक फिल्म पर कोई आपत्ति नहीं की है। तो क्या हिंदू जो ऐसे धर्म से ताल्लुक रखते हैं जो यदि जाति प्रथा को छोड दें तो अपने स्वरूप से लोकतांत्रिक हो चुका है,जो स्वभावतया इतना उदार है कि आत्मालोचना उसके लिए नई वस्तु नहीं है अब अनुदार हो चले हैं? निश्चय ही ऐसा नहीं है पर उन्हें ऐसा बनाने की कोशिश हो रही है और ऐसा करते हुए कुछ संगठन भारतीय जनता पार्टी के भीष्म पितामह सदृश लाल कृष्ण आडवानी को भी नजरअंदाज करने के लिए तैयार हैं जिनके अनुसार पी के में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तथा पी के अच्छी फिल्म है।


गुरुवार, 25 दिसंबर 2014

धर्मपरिवर्तन के मुद्दे पर राजनीतिक दलों का प्रवंचनापूर्ण व्यवहार

धर्मपरिवर्तन के मुद्दे पर राजनीतिक दलों का प्रवंचनापूर्ण व्यवहार

          संसद का शीतकालीन सत्र 22 दिसंबर को समाप्त हो गया ।इस सत्र के दौरान लोकसभा में जहाँ तय विधायी कार्यों के निष्पादन की दर 105 % रही वहीं राज्यसभा के लिए यह मात्र 21% रही। राज्यसभा को कुल आवंटित समय के मात्र 1% का उपयोग हुआ और पूरे सत्र के दौरान मात्र 2 सवालों के जवाब दिए गए। इसका एकमात्र कारण यह रहा कि विपक्ष ने धर्मपरिवर्तन का मुद्दा उठाकर इस पर प्रधानमंत्री के जवाब की मांग की और जब सरकार की तरफ से यह कहा गया कि जवाब गृहमंत्री देंगे तो विपक्ष हंगामा खडा करता रहा और उसने संसद को चलने नहीं दिया।

          यहाँ एक बडा प्रश्न यह खडा होता है कि हमारे माननीय सांसदजनों का संसद में दायित्व क्या है? संसद में उनका दायित्व विधायी प्रक्रिया में भाग लेकर उसे संपादित एवं निष्पादित करवाना है न कि संसद को चलने से रोकना और वहाँ हंगामा खडा करना है। हंगामा संसद के बाहर और पूरे देश भर में किया जा सकता है, संसद इसके लिए तो नहीं है।संसद का सत्र समाप्त हो जाने पर जब सरकार ने विलंबित हो गए विधेयकों के लिए अध्यादेश लाने का इरादा जाहिर किया है तो सीताराम येचुरी का कहना है कि यह लोकतंत्र की भावना के विपरीत है और विपक्षी दल राष्ट्रपतिजी से आग्रह करेंगे कि वे इन विधेयकों को मंजूरी न प्रदान करें। यहाँ सवाल यह उठता है कि फिर क्या विपक्ष सरकार को पैरालाइज करना चाहता है।एक तरफ तो वह सरकार को सदन में विधायी काम संपन्न नहीं करवाने देगा और दूसरी तरफ राष्ट्रपति को अध्यादेशों पर हस्ताक्षर करने से भी मना करेगा। विपक्ष के द्वारा ऐसा करना कहाँ तक देशहित में है ?  एक अन्य प्रश्न यह खडा होता है कि हमारे सांसदजन वेतन और भत्ते लेते हैं और जब उसके बाद संसद को चलने नहीं देते ,विधायी कार्यों को संपन्न नहीं करते तो उनके द्वारा संबंधित वेतन एवं भत्तों को क्या वापस नहीं कर दिया जाना चाहिए (कम से कम उनके द्वारा जो संसद के चलने को सक्रिय रूप से बाधित कर रहे हैं)। मेरे विचार से इस संबंध में नियम बनाए जाने की जरूरत है।

          नि:संदेह विपक्ष की धर्मपरिवर्तन संबन्धी जो शंकाएं हैं उनका निराकरण यदि वे प्रधानमंत्रीजी से चाहते थे तो प्रधानमंत्रीजी को ऐसा करना चाहिए था। पर यदि वे यह दायित्व गृहमंत्री को दे रहे थे तो विपक्ष को अपना विरोध दर्ज कराने के बाद विधायी दायित्वों को निभाना था।

          धर्मपरिवर्तन के मसले को विपक्ष स्वयं कितना महत्व देता है इसका पता इससे चलता है कि केरल के मुख्यमंत्री ओमन चंडी ने अलप्पुझा जिले के चेप्पड में आठ ईसाई परिवारों के 30 सदस्यों के हिन्दू धर्मांतरण में हस्तक्षेप करने से यह कह कर इनकार किया है कि राज्य में जबरन या पुनर्धर्मपरिवर्तन जैसा कोई मामला नहीं हुआ है। यह बताता है कि राजनीतिक दलों के मापदण्ड अपने लिए कुछ और हैं दूसरों के लिए कुछ और तथा संसद में किया जाने वाला सारा हंगामा प्रवंचना मात्र है।

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

जब तालिबानी मुकाबिल हो तो खवातीन को लडा दो! (व्यंग्य/Satire)

          जब तालिबानी मुकाबिल हो तो खवातीन को लडा दो!

          कारगिल की लडाई के दौरान कभी-कभी पाकिस्तानी सैनिक भारतीय सैनिकों से कहते थे कि वे माधुरी दीक्षित के बदले जम्मू-काश्मीर का दावा छोड देंगे और जवाब में भारतीय सैनिक कहते थे कि जम्मू-काश्मीर रहे न रहे माधुरी दीक्षित तो हिंदुस्तान की हैं और हिंदुस्तान की रहेंगी। पर एक खबर के मुताबिक अब पाकिस्तानी तालिबानियों के मुकाबले के लिए पाकिस्तानी सरकार माधुरी दीक्षित के शार्पशूटर रूपी पाकिस्तानी संस्करण उतार रही है। यह वास्तव में पाकिस्तान का आतंकवाद विरोधी महिला कमांडो दस्ता है। कभी शिखंडी  का उपयोग कर अर्जुन ने भीष्म पितामह पर प्रहार किया था। आज पाकिस्तान के शरीफ द्वय(नवाज और राहिल) महाभारत के इस फार्मूले का पाकिस्तान में प्रयोग करने की चेष्टा कर रहे हैं। भीष्म पितामह जहाँ औरतों और नपुंसकों पर शस्त्र नहीं उठाते थे वहीं तालिबानी जेहादियों के बीच अवधारणा है कि औरतों के हाथ मरने वालों को जन्नत नसीब नहीं होती। तालिबानी ठहरा जेहादी जो धर्मयुद्ध लड रहा है,वह भी खुदा के लिए और खुदा का रास्ता जन्नत से होकर ही गुजरता है इसलिए उसकी यह मजबूरी है कि इन महिला शार्पशूटर को देखकर वह किनारा कर ले।पाकिस्तान के इस महिला शार्पशूटर कमांडो दस्ते को सख्त ट्रेनिंग दी गई है और इनका निशाना अचूक है इसलिए इनसे मुकाबिल होने पर पाकिस्तानी तालिबानियों के लिए जन्नत से वंचित हो जाने का डर वास्तविक है।

          अगर तालिबानी एक बार यह इरादा कर भी लें कि चलो इन खवातीन से दो-दो हाथ कर लेते हैं और मरने के बजाय मार कर जन्नत का रास्ता खुला रखेंगे तो फाइटर पायलट आयशा फार्रूख की अगुवाई में  महिला फाइटर पायलट दस्ता बमबारी करने के लिए तैयार है । आयशा की हजार वाट की मुस्कराहट पर तमाम हिन्दुस्तानी यूँ ही मरने को तैयार हो जाएंगे ( वे सभी जिन्होंने हिना खार का पलक-पाँवडे बिछाकर स्वागत किया था और उनके चले जाने के बाद महीनों उनकी खूबसूरती और ड्रेस सेंस की चर्चा करते रहे थे)  पर इनकी टुकडी के महिला बमों की चपेट में आने पर जेहादियों का जन्नत का रास्ता पक्का बंद हो जाएगा। इसलिए फिलहाल जेहादियों को उत्तरी वजीरिस्तान से अफगानिस्तान भागना ही मुफीद दिखाई दे रहा है।

          अपनी तरुणाई के दिनों में मैंने लिखा था- 'अपनी आँखों का सागर यूँ न लहराइए,डूब कर मर न जाएं कहीं। जो डूब गए इनमें एक बार तो शायद फिर न उबर पाएं कहीं।।' मैं तो आखिरकार किसी की आँखों में डूब ही गया जिनमें से आज तक निकल नहीं पाया हूँ। पर इस शेर को और हिजाब के पीछे से झाँकती आँखों को पढने का आनन्द तो मेरे जैसे काफिर ही उठा सकते हैं जो गालिब के इस शेर पर यकीन करते हैं-' हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन दिल बहलाने को गालिब खयाल अच्छा है '। जहाँ तक खवातीन कमांडो देखकर  मरने- मारने के लिए तैयार जेहादियों के भागने की बात है , उनके लिए तो बकौल कतील शिफाई यही कहा जा सकता है- "जिसे मौत भी न मार पाई 'कतील' उसे जिंदगी ने मारा" । इन तालिबानी जेहादियों में से जो बुढापा आने तक शहीद होने से बचे रहेंगे उनके लिए बकौल एक शायर-'क्या खुश्क शेख की जिंदगानी गुजरी,बेचारे की न एक शब सुहानी गुजरी। दोजख के तसब्बुर में बुढापा गुजरा, जन्नत की दुवाओं में जवानी गुजरी।।

रविवार, 21 दिसंबर 2014

प्रधानमंत्रीजी को बोलना ही पडेगा!

          भाजपा की भगवा ब्रिगेड के सदस्यों के बयानों पर तो प्रधानमंत्रीजी ने संसद सदस्यों की बैठक में माननीयों को अपने बयान पार्टी के विकास और सुशासन के एजेंडे तक सीमित रखने की ताकीद कर दी है पर वे माननीयजन जो आजीवन इसी प्रकार की बयानबाजी करते आए हैं ,स्वयं को कितने दिन और कितना  नियंत्रित रख पाएंगे यह आने वाला समय ही बताएगा। इसके लिए प्रधानमंत्रीजी को समय-समय पर इनकी नकेलें कसते रहना पडेगा।

          पर हिन्दू महासभा और इसके बाद आर एस एस ,विश्व हिन्दू परिषद एवं संघ के अन्य आनुषंगिक संगठनों के सदस्यों एवं पदाधिकारियों द्वारा नाथूराम गोडसे ,धर्म परिवर्तन , कुछ वर्षों में भारत को हिन्दू राष्ट्र बना देने तथा ईसाई एवं मुस्लिम धर्मों को लेकर कही गई बातें निहायत ही सिरफिरेपन की एवं आपत्तिजनक हैं जो निश्चित रूप से सामाजिक सौहार्द्र को प्रभावित कर सकती हैं तथा प्रधानमंत्रीजी द्वारा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर धार्मिक विवादों और झगडों पर दस वर्ष के लिए निषेध करने संबन्धी बात के विपरीत हैं। इनसे ऐसा लगता है कि जैसे प्रधानमंत्रीजी के विकास और सुशासन के एजेन्डे के समानान्तर कुछ लोग दूसरा एजेन्डा चलाना चाहते हैं। इसलिए भले ही संसद में गृहमंत्री बयान दें , राष्ट्र की जनता को प्रधानमंत्रीजी को यह संदेश देना ही पडेगा कि वे विकास और सुशासन के समानान्तर दूसरे एजेन्डे का अनुमोदन नहीं करते। प्रधानमंत्रीजी को इस देश की जनता ने विकास और सुशासन के नाम पर स्पष्ट एवं भारी बहुमत दिया है और कुछ लोगों के मतिभ्रम के कारण उनके प्रति आम जनता की सद्भावना और विश्वास पर आँच आए यह ठीक नहीं है। इसलिए प्रधानमंत्रीजी को सामाजिक सौहार्द्र को प्रभावित करने वाले किसी भी प्रयास को नकारने एवं नियंत्रित करने के साथ- साथ इस देश के लिए और इस देश की जनता के लिए बोलना ही पडेगा ।


शनिवार, 20 दिसंबर 2014

जब मैंने स्वयं को अपराधी अनुभव किया! (संस्मरण पर आधारित)

          सन  2004 की बात है , मैं उन दिनों बरेली में तैनात था ।नवंबर में मैंने विभागीय निरीक्षण का कार्यक्रम बना कर सभी अधीनस्थ कार्यालयों को प्रेषित कर दिया था और दिसंबर से इस कार्य में लग गया। 22-23 दिसंबर से ठंड अचानक ज्यादा बढ गई और ऐसे में ही किसी दिन (तिथि मुझे याद नहीं है) मेरा शाहजहाँपुर के कार्यालय में जाने का कार्यक्रम पहले से तय था। जिस दिन मुझे जाना था सुबह से ही ठंड बहुत ज्यादा थी। मैंने कमीज के नीचे इनर और ऊपर पूरी बाँह का लाल इमली के ऊन का  स्वेटर पहन  लिया।लाल इमली कंपनी के बंद होने के पहले मेरी माँ ने ऊन खरीद कर यह स्वेटर बनाया था। इसके ऊपर मैंने बंद गले का सूट पहना।पैंट के नीचे भी मैंने इनर पहना था।ऊनी मोजे और जूते ,हाथ में ऊनी दस्ताने तथा कान और गले पर मफलर लपेट कर मैं घर से निकला। लौटने में रात हो जाने का ख्याल कर मैंने अपने ब्रीफकेस में फाइलों के साथ खादी आश्रम से ली गई एक ऊनी शाल भी रख ली। भयंकर कुहरा था जिसमें से बीच-बीच में बूँदें टपक रही थीं। इस मौसम में बस से जाना ठीक न समझ कर मैं रिक्शा कर बरेली रेलवे स्टेशन पहुँच गया।सभी ट्रेनें लेट थीं। दिल्ली- शाहजहाँपुर पैसेंजर जो कई घंटे लेट थी लगभग ग्यारह बजे आई। अन्य कोई ट्रेन थी नहीं इसलिए यह सोचकर कि दो घंटे में तो पहुँच ही जाऊँगा मैं ट्रेन में बैठ गया।

           डिब्बे में भीड नहीं थी। मेरे सामने की बर्थ पर नीचे एक पंद्रह-सोलह साल का लडका कुंडली मुद्रा में सोया हुआ था। पर उसने कुछ ओढा नहीं था और ऐसा लगता था जैसे कमीज के नीचे भी उसने कुछ पहना नहीं था।थोडी देर में लडका उठ गया।उसकी कमीज के सामने के बटन भी टूटे हुए थे।कमीज के नीचे उसने वाकई कुछ नहीं पहना था। उसी के सामने मैं इतने कपडों से लैस बैठा था।मेरा मन कहीं खुद को कचोटने लगा और मैं स्वयं को अपराधी सा अनुभव करने लगा। मुझे निराला की याद हो आई जिन्होंने ठंड से काँपती एक भिखारिन को कहीं से भेंट में प्राप्त कीमती  दुशाला ओढा दिया था। मैंने अपना ब्रीफकेस खोलकर उसमें से  शाल निकाला और उस किशोर से कहा- 'इसे ओढ लो वरना ठंड लग जाएगी। '   मुझे लगा किशोर संकोच कर रहा है इसलिए मैंने फिर कहा- 'अब यह तुम्हारा है।'   किशोर मुस्कराया और शाल लेकर उठ गया तथा डिब्बे में दूसरी तरफ चला गया। एक उम्रदराज सज्जन जो मेरे पास में बैठे थे बोले- 'आप उसे जानते हैं क्या? '   'नहीं'मैंने कहा। 'फिर शाल आपने ऐसे कैसे दे दी'? वे बोले। 'देखिए इस ठंड में वो बच्चा कैसे बिना कपडों के है? '  मैंने कहा।   'वो तो है,पर वो ऐसे ही रहने का आदी हो चुका है।आपकी शाल वो बेच देगा' वे बोले। 'बेच देगा तो बेच देगा,मुझे जो ठीक लगा मैंने किया' मैं बोला। 'आप कहाँ- कहाँ ऐसा कर पाएंगे, भावुकता से जीवन नहीं चला करता' वे बोले। 'आपकी बात ठीक है, पर कभी-कभी मन नहीं मानता।फिर इतना भर कर लेने से मेरा कोई नुकसान नहीं हो रहा है' यह कह कर मैं उठ खडा हुआ क्योंकि शाहजहाँपुर आने वाला था और ब्रीफकेस उठाकर कंपार्टमेंट के दरवाजे की तरफ आ गया। वहाँ दरवाजे पर खडा वह किशोर फिर मुझे मुस्कराता दिखा। पर उसके पास शाल नहीं थी। 'क्या उन सज्जन की बात सही थी, क्या इसने शाल इतनी जल्दी ट्रेन में ही किसी को बेच दी' मैंने मन में सोचा। आखिर मैं उससे पूछ ही बैठा- ' जो शाल मैंने दी थी वो क्या हुई?' किशोर ने शौचालय के बगल लेटी एक बुजुर्ग महिला की तरफ इशारा किया।मेरा शाल वह महिला ओढे थी। 'मेरी माँ है' मेरी आँखों में कौतूहल सा देखकर किशोर वही टूटे बटन की कमीज पहने हुए बोला।

          शाहजहाँपुर स्टेशन आ चुका था। मैं एक बार पुनः स्वयं को अपराधी सा अनुभव कर रहा था और भारी मन लिए स्टेशन पर उतर गया। तब से हर वर्ष जब ठंड जोर पकडती है और मैं बाहर निकलने से पहले सर्दी से बचने के लिए जरा ज्यादा ही कपडे - लत्ते पहनने लगता हूँ मुझे वह घटना याद आ जाती है और एक बार फिर मेरा अपराध बोध जागृत हो जाता है।

गुरुवार, 18 दिसंबर 2014

पाकिस्तान आतंकवाद के कितना खिलाफ?

                  पाकिस्तान आतंकवाद के कितना खिलाफ?

          कभी लाहौर के एक कालेज में,जब भारत और पाकिस्तान के विभाजन की बात लगभग तय हो चुकी थी , कुलदीप नैयर के एक सवाल के जवाब में मुहम्मद अली जिन्ना ने कहा था कि विभाजन के बाद नए राष्ट्रों के बीच कोई द्वेषभाव नहीं होगा और अगर किसी पर कभी कोई संकट आता है तो हम एक साथ खडे दिखाई देंगे। पर आजादी के बाद कभी ऐसा दिखाई नहीं दिया।एक ही मुल्क रहे यह देश सदैव एक दूसरे के कट्टर शत्रु के ही रूप में दिखाई दिए ,भाईचारे की बात तो बहुत दूर है।पर 16 दिसंबर 2014 के दिन पेशावर के आर्मी पब्लिक स्कूल में आतंकवादियों द्वारा मासूम बच्चों की हत्या ने सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं हिन्दुस्तान के साथ पूरी दुनिया को हिला कर रख दिया क्योंकि यहाँ आतंकवाद का अब तक का भयंकरतम चेहरा दिखाई दिया ।एक अरसे के बाद उक्त दिन दोनों देश साथ खडे दिखाई दिए।भारतीय प्रधानमंत्री ने न केवल अपने दिली दुःख का इजहार किया बल्कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री से बात कर जिस भी सहायता की जरूरत हो मुहैया कराने औरआतंकवाद के खिलाफ साथ खडे होने की बात कही जो आजादी के पहले लाहौर के कालेज में जनाब मुहम्मद अली जिन्ना द्वारा व्यक्त की गई भारत-पाक के संकट की घडी में साथ खडे होने की भावना के अनुरूप था। पाकिस्तान में इस आतंकी घटना पर हुई तीव्र प्रतिक्रिया और क्षोभ ने बहुत से लोगों में उम्मीद जगा दी कि अब पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ उठ खडा होगा। पर वास्तविकता इससे बहुत अलग है।

          मैंने 17 दिसंबर को पाकिस्तान के वजीरे आजम जनाब नवाज शरीफ का पाकिस्तान की जनता को संबोधन बहुत ध्यानपूर्वक सुना।इसे सुन कर मुझे इस बात का अहसास हुआ कि जनाब नवाज शरीफ के दिमाग में सिर्फ उस आतंकवाद से लडने की बात है जो उनके अपने देश के लिए खतरा है। उन्होंने अपने मुल्क के अलावा सिर्फ अफगानिस्तान का नाम लिया और अफगानिस्तान के साथ मिलकर आतंकवाद से लडने की बात कही। उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तानी सेनाप्रमुख जनरल राहिल शरीफ इसके बारे में विचार- विमर्श करने के लिए काबुल गए हैं। पर उन्होंने एक भी बार अपने भाषण में हिन्दुस्तान का नाम नहीं लिया न ही उस आतंक का कोई जिक्र किया जो समय-समय पर हिन्दुस्तान की जडों को हिलाने की कोशिश करता है और  जिसकी खुद की जडें पाकिस्तान में हैं । न ही उन्होंने  हिन्दुस्तान के साथ मिल कर आतंकवाद के खिलाफ किसी प्रकार की कोशिश करने की कोई मंशा जाहिर की।मैं जनाब नवाज शरीफ की पूरी स्पीच में कहीं कोई संकेत पाने की कोशिश करता रहा कि हिंदुस्तान को प्रभावित करने वाला आतंकवाद उनके जेहन में है पर मुझे यह मिला नहीं।सिर्फ एक स्थान पर मुझे आशा की एक क्षीण किरण दिखाई दी जब उन्होंने  पूरे क्षेत्र से आतंकवाद को खत्म करने तथा पाकिस्तान की जमीन को आतंकवाद के लिए न इस्तेमाल करने देने की बात कही। पर उनकी इस बात को जब मैंने जनाब नवाज शरीफ की पूरी स्पीच के परिप्रेक्ष्य में तौला तो मुझे यह स्पष्ट सा हो गया कि पूरे क्षेत्र से उनका आशय पाकिस्तान -अफगानिस्तान से अधिक नहीं है।इसी तरह उनका पाकिस्तान की धरती को आतंक के खिलाफ न इस्तेमाल न होने देने का जो आश्वासन था वह भी सिर्फ अफगानिस्तान के लिए था। अफगानिस्तान को भी उनका यह आश्वासन सिर्फ इसलिए है कि तहरीके तालिबान पाकिस्तान के लोग बडी आसानी से अफगानिस्तान में जाकर छिप सकते हैं और ऐसी स्थिति में उन पर काबू पाने के लिए अफगानिस्तान का सहयोग पाकिस्तान के लिए जरूरी है।

          काश्मीर में आजादी की तहरीक को नैतिक समर्थन के नाम पर पाकिस्तान का आतंकवादियों को समर्थन जारी रहेगा क्योंकि यह सब कुछ पाकिस्तानी सेना की मिलीभगत से और उसके सक्रिय सहयोग से होता है। भारत और उसकी शक्तिशाली सेना को उलझा कर रखने का पाकिस्तान के पास इससे बढिया दूसरा उपाय नहीं है।इसी तरह 'थाउजैंड कट्स 'की पालिसी के तहत आई एस आई अपने प्राक्सी आतंकवादी संगठनों के माध्यम से भारत को रक्तरंजित करने के प्रयासों में लगा रहेगा और सलाहुद्दीन, रियाज भटकल तथा दाऊद इब्राहिम जैसे भटके हुए भारतीयों को संरक्षण देना तथा जकीउर्रहमान लखवी और हाफिज सईद जैसे पाकिस्तानियों को पोषित करना जारी रखेगा। पाकिस्तान के सियासतदानों का पाकिस्तानी सेना पर कोई नियंत्रण नहीं है। इसके उलट पाकिस्तानी सेना सियासतदानों को नियंत्रित करती है। इसलिए जब तक पाकिस्तानी फौज की नीतियों में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता है भारत पाकिस्तान की तरफ से किसी फौरी राहत की उम्मीद नहीं कर सकता।

          आतंकवाद के खिलाफ लडाई की पाकिस्तान की मंशा पख्तून और बलूच विद्रोहियों तक ही सीमित रहेगी। भारत यदि अमेरिका के सहयोग से पाकिस्तानी फौज पर कुछ दबाव बना सके तो वह कुछ हद तक भारत के लिए पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को नियंत्रित करने में सहायक हो सकता है। परअफगानिस्तान को लेकर अमेरिका की अपनी मजबूरियाँ हैं और जहाँ तक मैं समझता हूँ वह भारत के पक्ष में पाकिस्तानी फौज पर कोई दबाव नहीं बनाएगा। कुल मिलाकर लब्बोलुबाब यह है कि हिंदुस्तान को अपनी लडाई खुद लडनी होगी, आतंकी घुसपैठ को रोकने के लिए सतर्क रहना होगा, गुप्तचर व्यवस्था को चुस्त और चाक-चौबंद बनाना पडेगा,आतंकियों के मुकाबले के लिए सतर्क,समर्पितऔर संगठित बल रखना होगा तथा देश के अल्पसंख्यक समुदाय में आश्वस्ति का एक भाव पैदा करना होगा ताकि उन्हें कोई बरगला न सके।

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पेशावर( पहले का पुरुषपुर) में नामर्दानगी पर! (गजल)

      -पेशावर( पहले का पुरुषपुर) में नामर्दानगी पर-

ऐ किस्साख्वानी बाजार वाले पेशावर, ये कैसी खबर आती है
असुर आए नए भेस में और मासूमों की जान पर बन आती है।।

कुछ अश्वत्थामाओं ने घुस तमाम द्रौपदियों की कोख उजाड़ी
खून -सने जूते-किताबें देख वो महाभारत फिर याद आती है।।

'पुरुषपुर' तेरे बौद्ध कनिष्क ने भरे-पूरे देश पर राज किया था
ऐ शहर वहीं से नामर्दानगी के कारनामे की ये कैसी बू आती है ।।

 जुदा होकर अलग घर बनाया तो क्या ,हमारा घर एक ही था
 दिल रोए न क्यूँ ,जब तुम्हारे घर में बच्चों की जान जाती है ।।

मेरा बच्चा उसका बच्चा किसी का भी हो, बच्चा तो बच्चा है
जहालतभरी दहशतगर्दी कहर बन क्यूँ इनपे बरस जाती है ।।

खबर ये थी कि एक सौ बत्तीस फरिश्तों की जानें चली गईं
बड़ी खबर ये है कि हैवानियत अब स्कूलों के रास्ते आती है।।

शैतानों को ठिकाने लगाना है तो उन्हें पालना भी तो छोड़ो
बताओ तो कि उनकी राह खुदा तक नहीं दोजख को जाती है।।

कुछ ऐसा करो कि माँ की गोद न किसी बाप का चमन उजड़े
संभल  जाओ कि इंसानियत की रूह भी अब काँप जाती है।।

पड़ोसी के घर लगाई आग की आँच खुद के घर तक आती है
तुम भी समझ लो' संजय' मासूम बेगुनाहों पे भी बन आती है।।
                                                                 -संजय त्रिपाठी

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

गाँवों के शहरीकरण की अजगरी प्रक्रिया !

          कविवर सुमित्रानंदन पंत के अनुसार 'भारतमाता ग्रामवासिनी' है। डा रामकुमार वर्मा ने  ग्रामवासियों को देवता बताया है- 'हे ग्राम देवता नमस्कार।सोने चाँदी से नहीं किन्तु मिट्टी से तुमने किया प्यार'।  पर इन दिनों नगरों के समीप स्थित गाँवों को निरंतर अस्तित्व के संकट से जूझना पड रहा है क्योंकि इनके समीपवर्ती नगरों की भूख अजगर के समान निरंतर बढती जा रही है और इनका भोजन यही गाँव हैं।समीपवर्ती गाँवों को खाकर भी शहर तृप्त नहीं होता। उसका आकार बढने के साथ-साथ उसकी भूख और बढ जाती है और फिर वह आस -पास के और भी गाँवों को निगलने के लिए तैयार हो जाता है।जितना बडा शहर उसकी भूख उतनी ही ज्यादा है और उसके समीपवर्ती गाँवों का जीवन उतना ही सीमित है। इस देश में गाँधीजी के नाम की कसम सब खाते हैं पर जब गाँव ही नहीं रहेगा तो उनकी स्वावलम्बी गाँव  संबन्धी परिकल्पना का क्या होगा यह सोचने के लिए कोई तैयार नहीं। आज विकास की परिभाषा बदल गई है। शहरीकरण को विकास का पर्याय बताया जा रहा है। कहा जाता है कि कुछ वर्षों के पश्चात भारतवर्ष की पचास प्रतिशत आबादी शहरी होगी और जिस दिन देश की अस्सी प्रतिशत आबादी शहरी हो जाएगी उस दिन भारतवर्ष विकसित देश की श्रेणी में आ जाएगा। पर विकास सस्टेनेबल हो और उससे सामाजिक समस्याएं न पैदा हों इस तरफ सरकार/प्रशासन का ध्यान नहीं है।


          लखनऊ स्थित सुशांत गोल्फ सिटी शहर का हाल ही में विकसित नया हिस्सा है जहाँ उपर्युक्त प्रकार से ही गाँवों को निगल कर शहर के बढ जाने की प्रक्रिया दुहराई गई है। इस शहरीकरण की प्रक्रिया को अंजाम उपहार सिनेमा फेम अंसल ग्रुप द्वारा दिया जा रहा है। जब कोई यहाँ आता है तो यहाँ की हरीतिमा,चौडी सडकें, हरे-भरे पार्क और गोल्फ ग्राउंड देखकर प्रभावित हो जाता है। पर यहाँ मेरे देखने में ऐसी समस्याएं आईं हैं जो सस्टेनेबल डेवलपमेंट की शर्तों को झुठलाती हैं। पहली बात तो यह कि तमाम ऐसी आबादी का जो खेती पर निर्भर थी ,आजीविका का साधन समाप्त हो गया है। इनमें से कुछ भूमिहीन मजदूर बन गए हैं, कुछ छोटा-मोटा रोजगार कर रहे हैं और कुछ निठल्ले बैठकर दिन गुजार रहे हैं। जि न्होंने इस हाईटेक सिटी की योजना आते ही अपनी जमीन बेच दी उन्हें ज्यादा मुआवजा नहीं मिला। इसलिए वे उन लोगों की तुलना में स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं जिन्होंने अपनी जमीन बाद में बेची। ऐसे तमाम लोग जिन्हें अच्छा मुआवजा मिला है पढे -लिखे या स्किलफुल नहीं हैं। उन्होंने अपना पैसा बैंक में जमा कर दिया है तथा इसी जमा-पूँजी के सहारे जीवन काट रहे हैं। गाँव के कुछ लोगों ने अभी भी और अच्छा पैसा मिलने की आशा में अपनी कुछ जमीन रोक रखी हैं और अपना घर बचा रखा है। गाँव में आपको शराब की दूकान और मुर्गे भी बिकते हुए मिल जाएंगे जो इस बात का द्योतक है कि गाँव में अनेक लोग चार्वाक दर्शन के अनुयाई बन चुके हैं तथा वे बिना शराब और मुर्गे के भोजन नहीं करते और अपनी जमा-पूँजी इसी पर खर्च कर रहे हैं। इनमें जो थोडा बुद्धिमान हैं उन्होंने रोजमर्रा की जरूरत के सामान,, पान-गुटखा सिगरेट तंबाकू या सब्जी की दूकान डाल ली है। पढाई,स्किल या फिर अनुभव एवं मार्गदर्शन के अभाव में पास में पैसा होते हुए भी कोई बडा काम करने की ये नहीं सोच सकते। पर पास में पैसा है तो अनाप-शनाप खर्च ये लोग करने में नहीं हिचकते हैं , यथा मेरी जानकारी में आया कि एक व्यक्ति ने जो अपनी जमीन बेच चुका है तथा अब सब्जी का ठेला लगाता है अपनी बेटी का जन्मदिन मनाया तथा उसमें दो लाख रूपए व्यय किए। उनके लिए जो निठल्ले हैं और यह समझते हैं कि वे बिना कुछ किए अपनी जमा पूँजी के सहारे अपने दिन काट सकते हैं ,जुआ खेलना समय व्यतीत करने का सबसे अच्छा साधन है।गाँव में आपको जुए की महफिल दिन भर जमी हुई मिलेगी।

          अब इस शहरीकृत विकास का दूसरा पक्ष देखिए। तमाम लोगों ने इस नवविकसित क्षेत्र में घर, फ्लैट या जमीन खरीदे। इनकी भी दो श्रेणियाँ हैं। एक तो वे जिन्होंने दो का चार बनाने की दृष्टि से अपना पैसा इन्वेस्ट किया। ऐसे लोग काफी खुश हैं क्योंकि घर और जमीन दोनों के दाम काफी बढ गए हैं और उन्हें लग रहा है कि उन्हें अपनी पूँजी पर बहुत अच्छा रिटर्न मिल रहा है। दूसरी श्रेणी ऐसे लोगों की है जिन्होने रहने के लिए एक आशियाना पाने की दृष्टि से घर या फ्लैट लिए । इनमें से अधिकांश ने लोन लिया है। लोन का भार कम करने की दृष्टि से घर या फ्लैट मिलते ही इन्होंने आकर रहना शुरू कर दिया। इनमें से भी बहुत से लोग खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं क्योंकि घर बनाते समय कंपनी द्वारा कई वादे पूरे नहीं किए गए यथा टीकवुड के स्थान पर शीशे के दरवाजे लगा दिए गए हैं। बात करने पर कंपनी के साहबान  कहते हैं कि आप हमारा ब्रोशर देख लीजिए उसमें लिखा हुआ है कि जहाँ कंपनी उचित समझे वह परिवर्तन कर सकती है। घरों में फिटिंग मे सबस्टैंडर्ड सामग्री प्रयोग में लाई गई है। इस कारण पानी के रिसाव तथा दीवारों में आर्द्रता की समस्या आम है। दरवाजों में दिए गए लाक ठीक से काम नहीं करते। इसके कारण या तो दरवाजा बंद नहीं होता या जहाँ बंद होता है वहाँ कई बार लाक के अचानक खराब हो जाने के कारण आदमी अंदर ही लाक रह जाता है। घरों को तैयार कर दिए जाने में बैकलाग बहुत ज्यादा है।इस कारण जिन लोगों ने लोन लिया है वे परेशान हैं क्योंकि घर तो मिला नहीं, जिस घर में वे रह रहे हैं उसका किराया दे रहे हैं साथ ही लोन की किश्त अलग दे रहे हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जिन्हें अब कंपनी कह रही है कि वह उन्हें घर देने की स्थिति में नहीं है और वे ग्यारह प्रतिशत ब्याज  की दर से अपना पैसा वापस ले लें क्योंकि जिस स्थान पर नियत योजना थी वहाँ जमीन मिल नहीं सकी और यदि उन्हें घर चाहिए ही तो वे अन्यत्र जहाँ घर बन रहे हैं वहाँ ले लें पर उन्हें पैसा वर्तमान मार्केट रेट से देना होगा जिसमें पिछला पैसा एडजस्ट कर दिया जाएगाा। वह व्यक्ति स्वयं को ठगा महसूस करता है क्योंकि पाँच साल पहले जब उसने घर बुक किया था तब से अब तक मार्केट रेट दोगुना हो चुका है। अनेक लोग न्यायालय चले गए हैं परंतु कंपनी के पास पैसे की कमी नहीं है और जैसाकि एक सज्जन ने मुझे बताया कंपनी ने अपने मुकदमे लडने के लिए 22 वकीलों का पैनल बना रखा है।

          कुल मिलाकर नगरीकरण की इस अजगरी व्यवस्था में अनेक खामियाँ हैं जिसमें मध्यम वर्ग का तेल निकालकर(जिन्होंने घर की आशा में पैसा लगाया) तथा गरीब वर्ग का खून चूसकर पूँजीपति वर्ग तथा उनके साथ जुडा सपोर्ट ग्रुप जिसमें बिल्डर ,ठेकेदार तथा जमीन के दलाल शामिल हैं लाभ उठा रहा है। अनेक नेताओं तथा बडे नौकरशाहों के भी बंगले यहाँ हैं। कानाफूसी है कि
यह ऐसे नहीं आबंटित हुए हैं।  सरकारें यदि वास्तव में गरीबों की हितैषी हैं तो उन्हें इस अजगरी प्रक्रिया को दुरुस्त करने की तरफ ध्यान देना चाहिए।
          









बुधवार, 3 दिसंबर 2014

भोपाल की वो सर्द रात !


                                                          भोपाल की वो सर्द रात

           आज से तीस वर्ष पूर्व मैंने कम्बाइंड डिफेन्स सर्विसेज की लिखित परीक्षा उत्तीर्ण की थी और मुझे साक्षात्कार हेतु 15 दिसम्बर ,1984 के दिन भोपाल सर्विसेज सेलेक्शन बोर्ड के समक्ष उपस्थित होना था। दिनांक 2-3 दिसम्बर ,1984 की रात भोपाल गैस काण्ड घटित हो गया और मैं यह आशा कर रहा था कि साक्षात्कार स्थगित हो जाएगा परंतु ऎसी कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई यद्यपि इस बीच यह खबर भी अखबारों में आ गई कि यूनियन कार्बाइड के प्लांट में बची हुई एम आइ सी गैस को भी खत्म करने के लिए उसे 16 दिसम्बर के दिन पेस्टिसाइड में परिवर्तित किया जाएगा।

          अंततोगत्वा मैं 14 दिसम्बर के दिन लखनऊ से भोपाल के लिए रवाना हो गया। इसके पूर्व रेलवे स्टेशन पर मेरी और मेरे पिताजी की बातचीत सुनकर एक बुजुर्ग सज्जन पास आए और कहने लगे- 'आप भोपाल जा रहे हैं? इस समय वहाँ जाना ठीक नहीं है।' जब हमने उन्हें प्रयोजन बताया तो कहने लगे-' मैं तो मानवता के नाते आप को मना कर रहा था,बाकी आपकी मर्जी।

          ट्रेन में मेरे साथ एक बंगाली परिवार बैठा था जो भोपाल से लखनऊ किसी विवाह समारोह में भाग लेने आया था और उसके उपरान्त वापस भोपाल लौट रहा था। उन लोगों ने बताया कि जिस रात गैस का रिसाव हुआ उन लोगों की नींद रात में तकलीफ होने के कारण खुल गई। किसी के द्वारा यह बताने पर कि यूनियन कार्बाइड में गैस लीक हो गई है वे परिवार सहित कार में बैठकर तुरंत शहर से बाहर चले गए। उन्होंने बताया कि इस समय भी लोग भोपाल छोडकर भाग रहे हैं ,अधिकांश घरों में ताले बंद हैं तथा प्रशासन ने इस आशय की घोषणा शहर में करवा दी है कि जो लोग ताला लगा कर घर छोडकर जा रहे हैं उनके यहाँ यदि ताला टूट जाता है या अन्य कोई घटना घट जाती है तो प्रशासन की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी।

           सर्विसेज सेलेक्शन बोर्ड के साक्षात्कार पाँच दिनों तक चलते हैं तथा साक्षात्कार स्थल तक  उम्मीदवारों को ले जाने और उनके रहने आदि की व्यवस्था बोर्ड के द्वारा ही की जाती है। मैं चिंतित था कि पता नहीं साक्षात्कार होगा या नहीं और यदि साक्षात्कार नहीं होता है तो  मुझे वापस लौटना होगा तथा जब तक वापस लौटना नहीं हो पाता है तब तक कहीं रहने की व्यवस्था करनी होगी और जैसा कि सूचनाएं मिल रही थीं भोपाल में प्राय: अधिकांश प्रतिष्ठान बंद थे और इस स्थिति में मैं क्या करूँगा। एक सहयात्री युवा सज्जन  लखनऊ के थे और नाबार्ड की भोपाल शाखा में तैनात थे । उन्होंने मुझे अपना पता और फोन नं. दिया एवं कहा कि किसी भी तरह की परेशानी होने पर मैं उनसे संपर्क कर लूँ या फिर उनके आवास पर आ जाऊँ।  ट्रेन लेट हो गई थी और रात 1 बजे के लगभग भोपाल पहुँची। पहाडियों में बसा भोपाल शहर रोशनी में जगमगाता हुआ दूर से सुंदर दिखाई दे रहा था , पर इस शहर के आँचल तले दूसरा ही नजारा था जो मैंने वहाँ पहुँचने पर देखा। मुझे कुछ गंध का भ्रम हुआ और जब मैंने एक सहयात्री से इसकी चर्चा की  तो वे हँसने लगे और बोले कोई गंध नहीं है , मनोवैज्ञानिक कारणों से आपको ऐसा लग रहा है।

          भोपाल स्टेशन पर गाडी पहुँची ही थी और अभी रुकी भी नहीं थी कि स्टेशन से धडाधड यात्री मय माल-असबाब के चढने लगे। कुली अलग सामान लादे-फाँदे चढे चले आ रहे थे। हम उतरने वालों के लिए उतरना मुश्किल हो गया था । किसी तरह स्टेशन पर उतरे तो वहाँ अलग ही दृश्य था। चारों तरफ एक जन सैलाब सा दिख रहा था और प्राय: सभी के सर पर गठरी या कुछ सामान लदा हुआ था। अनेक लोग कुली से बात कर रहे और कुली उन्हें आश्वासन दे रहे थे कि वे उन्हें किसी न किसी ट्रेन में सामान सहित घुसा देंगे। कुल मिला कर आलम यह था कि जैसे पूरा भोपाल शहर ही भोपाल छोडकर भाग रहा हो । किसी तरह हम लोग उतरे और अन्य यात्री तो अपने-अपने गंतव्य की तरफ चल दिए और मैं मन में किंकर्तव्यविमूढता का भाव लिए टू टायर वेटिंग रूम की तरफ आ गया।

          वेटिंग रूम में मैं एक आराम कुर्सी पर बैठ गया। मेरी आँखों से नींद गायब थी और मैं पूरी रात भर भोपाल स्टेशन पर  सामान लिए हुए और ट्रेनों में बैठकर भागते हुए लोगों को देखता रहा ,साथ ही मन में एक चिंता समाई हुई थी कि दिन में मुझे क्या करना होगा। खैर प्रात: लगभग चार बजे मुझे एक समवयस्क युवक दिखाई पडा और मुझे लगा कि हो न हो यह भी मेरे ही पथ का राही है। जब मैंने बातचीत की तो मेरा अनुमान सत्य निकला । वे भी मेरी ही तरह साक्षात्कार के लिए हरियाणा से आए हुए एक यादवजी थे। मन में एक सांत्वना का भाव आया कि चलो  एक से दो तो हुए।  प्रात: साढे छ: बजे मैंने फिर एक युवक को कुर्सी पर बैठकर पुस्तक पढते पाया और उन्हें भी अपने जैसा समझ कर जब बात की तो पता लगा कि वे आलोक पाराशर हैं जो सेंट जेवियर्स लेबर इंस्टीट्यूट,राँची से एम.बी.ए. कर रहे हैं तथा मेरी ही तरह साक्षात्कार देने आए हैं। अब हम तीन लोगों की तो टोली हो ही गई । सेलेक्शन बोर्ड के लोगों ने दिन में बारह बजे का समय स्टेशन पर मिलने के लिए दिया था। हम लोग बाहर की खाक छनने के लिए निकल पडे। स्टेशन के सामने कुछ होटल थे जहाँ पोहे के बडे-बडे ढेर लगे हुए थे । होटल वालों ने बताया कि खाने के लिए यही पोहा और चाय  है तथा दस बजे के बाद वह भी नहीं मिलेगा क्योंकि वे सब दस बजे होटल बंद करके भोपाल से बाहर चले जाएंगे । दरअसल भोपाल की जनता 2-3 दिसंबर की घटना को देखते हुए एम.आइ. सी. यानी कि मिथाइल आइसो सायनेट गैस को पेस्टिसाइड में परिवर्तित कर खत्म करने की योजना से बेहद डरी हुई थी। हम लोग पोहा और चाय का सेवन करके तथा दूकान आदि ढूँढकर कुछ अन्य सामान खरीदकर वापस स्टेशन की तरफ लौटे। रास्ते में हमने कुछ लोगों से बात करने की कोशिश की पर लोग प्राय: बात करने के मूड में नहीं थे। एक मौलाना साहब ठेले पर सामान आदि लादे चले आ रहे थे । उनसे जब हम लोगों ने बात करने की चेष्टा की तो पता लगा कि वे भी एम.आई.सी. के डर से शहर छोडकर जा रहे थे। उन्होंने बताया कि गैस के प्रभाव से उनकी माताजी का निधन हो गया है तथा वे बात करने में असमर्थ हैं।  जब व्यक्ति बहुत दु:खी अवस्था में या अवसादग्रस्त हो और फिर से सामने मौत का डर सामने मंडराता दिखाई दे रहा हो तो उसका मौन हो जाना बहुत ही स्वाभाविक है।

         स्टेशन पर बारह बजे सर्विसेज सेलेक्शन बोर्ड की गाडी आई । अब तक तीन उम्मीदवार और आ गए थे और हम छ: लोग उसमें बैठकर कैंट स्थित बोर्ड आ गए। बोर्ड में सामान्यत: जिस दिन उम्मीदवार पहुँचते हैं उस दिन केवल फार्म आदि भरवाया जाता है, पर हम लोगों से कहा गया कि अगले दिन होने वाले सारे टेस्ट ( जो साइकोलॉजिकल टेस्ट होते हैं) उसी दिन शाम को हो जाएंगे । शाम को हमें फार्म आदि भरवाने के लिए एक सज्जन आए जो जे.सी.ओ. रैंक के थे, हालांकि सामान्यत: इस कार्य के लिए कोई मेजर रैंक का अधिकारी आया करता है। उन्होंने कहा - 'स्थिति यह है कि पूरा भोपाल शहर छोडकर भाग रहा है पर फौजी आदमी बांड से बँधा हुआ है वह भाग भी नहीं सकता और शाम को अपनी चिंताओं को परे रखकर पेट में शराब आदि डालकर सो जाता है। चीफ मिनिस्टर को क्या है, वह तो कल मास्क पहनकर अपने चमचों से पूछ रहा था कि उस पर वह कैसा लग रहा है। जहाँ भी स्थिति खराब होती है आर्मी बुला ली जाती है और फौजी आदमी अपनी जान की परवाह न कर काम पर लग जाता है।' उनके जाने के बाद एक सरदारजी आए जो साइकोलॉजिस्ट थे। उन्होंने ऐसी परिस्थिति में  भी भोपाल आने पर हम सबको बहादुर बताया। साइकोलॉजिकल टेस्ट खत्म होने के बाद बताया गया कि हम सब को अगले दिन प्रात: सात बजे नहा-धोकर और नाश्ता आदि करके तैयार हो जाना है। उस दिन कोई भी टेस्ट नहीं होगा पर हम सबको अपनी डॉरमिटरी में ही रहना है। यदि गैस लीक होती है तो तुरंत एक साइरन बजेगा और नियत स्थान पर बस खडी रहेगी जिसमें हम सबको बैठ जाना है।वह बस हम सबको लेकर बीस कि.मी. दूर बैरागढ कैंट चली जाएग़ी। अगले दिन हम लोगों ने दिए गए निर्देशों का पालन किया पर गैस लीक की कोई घटना नहीं हुई और न ही हम सबके बैरागढ जाने की नौबत आई। 

          अगले चार दिनों तक हम लोगों के साक्षात्कार अच्छी तरह संपन्न हुए और हममें से तीन - मुदित शर्मा, आलोक पाराशर और आर एस यादव चयनित होकर सैन्य अधिकारी बने। मेरे उसी बैच के एक साथी आर. के. ठाकुर अगले बैच में चुने गए। वे लोग मेरा इंतजार करते रहे कि मैं अगले बैचों में उन्हें ज्वाइन करूँगा पर ऐसा कुछ नहीं हुआ । मेरे इन मित्रों से मेरा कुछ  समय तक पत्राचार रहा पर अब मैं आउट आफ टच हूँ।





शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

नए हैं कई चेहरे जो अनजाने दिखाई देते हैं (गजल)

                        -गजल-

नए हैं कई चेहरे जो अनजाने  दिखाई देते हैं
पर कुछ तो हैं पहचाने जो अपने दिखाई देते हैं।।

 हसरत से देखता हूँ अपने उस पुराने घर को
ईद बिना भी लोग बेइंतिहा शाद दिखाई देते हैं।।

सारे के वो सारे हैं बाजार-ए-शहर के बख्शी
आज उनके हाथ बख्शीशों से भरे दिखाई देते हैं।

जीत का सेहरा जब बँधा है सर पर उनके
आज जनाब वो फैजमआब दिखाई देते हैं ।।

लालींलब कितने थे देखे उस हुस्न भरे नगर में
आज हमें फराखसीने भी दिखाई देते हैं।।

उस शहर में कभी फलकजनाब थे "संजय"
जहाँ अब फरहमंद फलकताज दिखाई देते हैं।।
                                            -संजय त्रिपाठी

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

बिन अंग्रेजी सब सून का भ्रम !

          राहुल भैया ने 13 नवंबर के दिन पंडित नेहरू के 125वें जन्मदिवस के उपलक्ष्य में कांग्रेस की तरफ से आयोजित समारोह में अपने एक वक्तव्य में बडे रोष के साथ कहा कि मोदी अंग्रेजी को हटा रहे हैं.राहुल भैया के अनुसार भारत की सारी प्रगति अंग्रेजी के कारण हुई है .इसी कारण देश में ज्ञान-विज्ञान की तरक्की हुई और हमारे वैज्ञानिक तथा डॉक्टर और इंजीनियर विदेशों में गए तथा वहाँ नाम कमाया.राहुल भैया के अनुसार इस बात का श्रेय पंडित जवाहरलाल नेहरू को है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं जिसके कारण यह सब प्रगति संभव हुई.

          राहुल भैया से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि मोदी ने कौन सा ऐसा वक्तव्य दिया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है अथवा उनकी सरकार ने कौन सा ऐसा आदेश जारी किया है जिसमें अंग्रेजी को हटाने की बात कही गई है या उसके प्रयोग में कमी लाने की बात कही गई है.यह जरूर है कि मोदी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर और विदेशी सरकारों के साथ अपने कार्य-व्यवहार के दौरान आधिकारिक तौर पर हिंदी का ही प्रयोग कर रहे हैं . इस प्रकार वे हिंदी को उसका वह स्थान प्रदान करने की चेष्टा कर रहे हैं जिसकी वह भारतीय संघ की राजभाषा होने के कारण वास्तविकता में अधिकारिणी है. इसका तात्पर्य राहुल ने यह कैसे निकाल लिया कि मोदी सरकार अंग्रेजी को हटा रही है. राहुल के इस प्रकार के चिंतन के  पीछे निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  •  राहुल उस एलीटिस्ट चिंतन के तहत इस प्रकार की भावना व्यक्त कर रहे हैं जिसके अनुसार अंग्रेजी    बिना संसार सूना है,अंग्रेजी ही सारे ज्ञान का भंडार है तथा हिंदी समेत सारी भारतीय भाषाएं पिछडेपन का प्रतिनिधित्व करती हैं.प्रगतिशील होने के लिए अंग्रेजी जानना,बोलनाऔर व्यवहार में लाना आवश्यक है.राहुल के लिए ऐसे विचार रखना स्वाभाविक है क्योंकि उनका पालन-पोषण इसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले एलीटिस्ट और स्नॉब वातावरण में हुआ है.
  •  किसी भी प्रतिष्ठित मंच पर और वह भी विदेशों में किसी को हिंदी अथवा कोई अन्य स्वदेशी भाषा बोलने का अधिकार नहीं है. इसके लिए अंग्रेजी ही प्रयोग में लाई जानी चाहिए और यदि कोई हिंदी अथवा किसी अन्य स्वदेशी भाषा का प्रयोग करता है तो यह अंग्रेजी के खिलाफ षडयंत्र है.
  • राहुल भैया ने केवल इसलिए इस मुद्दे का उल्लेख किया क्योंकि यह कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों में संवेदनशील मुद्दा है और इसे उठाकर वहाँ राजनैतिक लाभ उठाया जा सकता है.

           जहाँ तक पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय देने  की बात है कि उन्होंने अंग्रेजी को हटाया नहीं और इसके कारण ज्ञान-विज्ञान तथा उद्योग के क्षेत्र में देश की प्रगति संभव हुई, इसमें सत्य आंशिक  है. नि:संदेह आजादी के समय वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली और साहित्य की दृष्टि से हिंदी इवोल्यूशन की स्थिति में थी और इस बात के लिए तैयार नहीं हो पाई थी कि उसमें ज्ञान- विज्ञान की पढाई तुरंत आरंभ कर दी जाए. इसी बात को मद्देनजर रखते हुए तथा साथ ही साथ गैर हिंदीभाषी राज्यों विशेषकर दक्षिण भारत के राज्यों की शंकाओं को ध्यान में रखते हुए संविधान के सन उन्नीस सौ पचास में लागू होने के बाद हिंदी को राजभाषा के रूप में पूरी तरह लागू करने के लिए पंद्रह वर्षों की अंतरिम अवधि  हिंदी को इस हेतु तैयार करने के लिए रखी गई. पर इसका श्रेय  पूरी तरह पंडित जवाहरलाल नेहरू को देना गलत है. इसका श्रेय संविधान सभा के अध्यक्ष और सदस्यों , संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष और सदस्यों तथा विशेषकर संविधानसभा के उन सदस्यों को  दिया जाना चाहिए जो आजाद भारत में भाषा के मुद्दे को बेहद संवेदनशील मानते हुए इसके समुचित निराकरण के प्रयास में लगे हुए थे. यदि आप इतिहास का अध्ययन करें तो पाएंगे कि उन लोगों ने इसके लिए काफी मेहनत की थी. ऐसे लोगों में गोपालस्वामी आयंगर,डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी का नाम उल्लेखनीय है. राजभाषा का प्रश्न हल करने के लिए संविधानसभा ने जिस फार्मूले को अपनाया उसे "मुंशी आयंगर फार्मूला" कहा गया और इस फार्मूले के अंतर्गत संविधानसभा में निम्नलिखित प्रस्ताव रखा गया- हम इस बात के पक्ष में हैं कि भारत के संविधान में व्यवस्था की जाए कि राजभाषा और राजभाषा की लिपि क्रमश: हिंदी और देवनागरी होंगी. प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि हिंदी को एकदम अपनाने में व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए अंग्रेजी का प्रयोग अगले पंद्रह वर्षों तक जारी रखा जाए. नेहरूजी की इच्छानुसार प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप का प्रयोग किया जाए . पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी के प्रयोग तथा अंकों के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप संबन्धी बात पर  सेठ गोविंददास द्वारा कडी आपत्ति दर्ज कराई गई. 14 सितम्बर 1949 को के.एम. मुंशी ने सेठ गोविंददास तथा उनके समर्थकों की भावनाओं को समायोजित करने का प्रयास करते हुए एक संशोधित प्रस्ताव रखा जिसके अंतर्गत यह जोडा गया कि लोकसभा पंद्रह वर्षों की अवधि के बाद देवनागरी अंकों के प्रयोग को विधि द्वारा अधिकृत कर सकती है. राष्ट्रपति की अनुमति से क्षेत्रीय तथा उच्च न्यायालयों में  हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जा सकेगा. बिल आदि के लिए राज्य अपनी भाषा का प्रयोग कर सकेंगे. साथ ही संविधान के आठवें अनुच्छेद में संस्कृत को जोडने की व्यवस्था की गई. संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को पारित कर दिया.सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने सभी को बधाई देते हुए कहा-"आज यह पहली बार हो रहा है कि हमारा अपना एक संविधान है. अपने संविधान में हम एक भाषा का उपबंध कर रहे हैं जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी."

          पंडित जवाहरलाल नेहरू को इस बात का श्रेय अवश्य दिया जाना चाहिए कि वे खुले दिमाग के तथा किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह अथवा दुराग्रह से मुक्त व्यक्तित्व के धनी थे . गाँधीजी के साथ-साथ वे स्वयं हिंदुस्तानी (हिंदी और उर्दू का मिला-जुला स्वरूप) के प्रबल पक्षधर थे . फिर भी जब संविधान सभा में इस प्रश्न पर मतदान हुआ और हिंदी, पुरुषोत्तमदास टंडन तथा सेठ गोविंददास जैसे प्रबल समर्थकों के कारण  हिंदुस्तानी पर भारी पड गई तो नेहरूजी ने सदस्यों की इच्छा का आदर किया तथा हिंदुस्तानी की बात छोड दी.  

         नेहरूजी ने देश के लिए प्रगति का एक खाका तैयार किया और देश को उस रास्ते पर आगे बढाया.  वहीं लोकतांत्रिक मूल्यों और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों तथा संस्थाओं के प्रति अपने आदर,अपनी सरलता तथा कूटनीतिक चालाकी के अभाव और कुछ लोगों पर विश्वास कर लेने के स्वभाव के कारण कुछ गल्तियाँ भी कीं पर ऐसी गल्तियाँ किसी के द्वारा भी की जा सकती हैं. अटल बिहारी बाजपेयी का भी नेहरूजी जैसा ही स्वभाव था और इस कारण कुछ  गलतियाँ उनके द्वारा भी प्रधानमंत्रित्वकाल में हुईं .इनके कारण यदि कोई इन महापुरुषों को विलेन के रूप में चित्रित करने  प्रयास करता है तो वह गलत है. आज भाषा की बात तक सीमित रहते हुए इसकी मैं फिर कभी चर्चा करूँगा. 

         पर राहुल भैया से मैं एक बात कहना चाहता हूँ कि वे कहीं बोलने के पहले ठीक से होमवर्क करके आएं . आज हिंदी में वैज्ञानिक साहित्य भी लिखा जा रहा है और तरक्की या उन्नति किसी एक भाषा की बपौती नहीं है. यदि ऐसा होता तो जर्मनी, फ्रांस,रूस,जापान और चीन दुनिया के पिछडे राष्ट्रों के रूप में जाने जाते क्योंकि इन राष्ट्रों में उच्चतर वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा-दीक्षा भी इनकी अपनी भाषा के माध्यम से दी जाती है.

सोमवार, 17 नवंबर 2014

इस देश में कुम्भकर्ण ही कुम्भकर्ण हैं!

          कुछ माह पूर्व गंगा की सफाई के मामले में एक मामले की सुनवाई करते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार की तुलना कुम्भकर्ण से की थी . माननीय सर्वोच्च न्यायालय की इस टिप्पणी को पढकर मेरे मस्तिष्क की प्रतिक्रिया थी कि केवल केंद्र सरकार ही क्यों इस देश में तो कुम्भकर्णों की भरमार है . अगर कुम्भकर्णों की भरमार न होती तो बिलासपुर के नसबंदी कांड जैसी घटनाएं जिसमें अब तक पंद्रह महिलाओं की मौत हो चुकी है बार-बार क्यों घटित होतीं या फिर तीस वर्ष पूर्व घटित ललित नारायण मिश्र हत्याकांड के अंतिम फैसले का आज भी इंतजार क्यों रहता. बी सी सी आई के पदाधिकारी आई पी एल बेटिंग की तरफ से मुँह फेरे दूसरी दिशा में देखते बैठे न रहते।अपने कर्तव्य से आँख मूँद कर बैठे रहने वाले कानून व्यवस्था को देखने वाले अधिकारी न होते तो जादवपुर के निकट हुए राजनीतिक संघर्ष में एक व्यक्ति की यूँ ही जान न चली गई होती और यही क्यूँ , शायद  रोज घटने वाली तमाम सारी आपराधिक घटनाएं इतनी तादाद में न घटतीं.

          देश को अपने गिरफ्त में ले चुकी कुम्भकर्णी प्रवृत्ति  का एक उदाहरण स्वयं मेरे साथ है. सन 2005 में मेरे विभाग ने सेवानिवृत्ति के नजदीक पहुँच चुकी एक महिला को जो मुझसे कनिष्ठ थी पदोन्नति प्रदान कर दी जिसके कारण  अंततोगत्वा मुझे न्यायालय की शरण लेनी पडी. सन 2011 में लंबी लडाई के बाद कैट ने मेरे पक्ष में फैसला दिया जिसके बाद मामला उच्च न्यायालय में चला गया. उच्च न्यायालय में मैं विभाग द्वारा पदोन्नति में की गई घोर अनियमितता और इस संबंध में कैट में विभाग द्वारा दिए गए झूठे वक्तव्यों को प्रकाश में ले आया. इसका परिणाम यह हुआ कि विभाग ने संपूर्ण समर्पण करते हुए मुझे जल्द से जल्द पदोन्नति देने का वायदा कर मामले को समाप्त करने का निवेदन किया. उच्च न्यायालय ने यह निर्देश देते हुए कि मुझे पीछे जिस तिथि से पदोन्नति मिल जानी चाहिए थी उसी तिथि से पदोन्नति दी जाए, मामले को समाप्त कर दिया. माननीय उच्च न्यायालय ने विभाग के इस निवेदन पर कि मामले को यू.पी.एस.सी. भेजना पडेगा और वहाँ से अनुमत्य होकर आने में एक साल लग जाएंगे उन्हें एक साल का समय अपने द्वारा दिए गए निर्णय को कार्यान्वित करने के लिए दे दिया. तब से लगभग  तीन वर्ष का समय होने को आया मैं अभी भी अपनी पदोन्नति का इंतजार ही कर रहा हूँ . गत वर्ष मैंने निर्णय का कार्यान्वयन न होने के कारण माननीय उच्च न्यायालय के समक्ष 'न्यायालय की अवमानना' का मामला दायर किया परंतु इसके बाद डेढ वर्ष से अधिक का समय होने को आया मेरे केस की लिस्टिंग ही नहीं हो रही है. वकील कह देता है- 'देयर इज नो बेंच'. जब  मैंने वकील से परामर्श किया तो उन्होंने कहा कि मेरे केस में निर्णय देने वाले दोनों जज अलग बेंचों में चले गए हैं पर चूँकि निर्णय उनका था इसलिए अवमानना का मामला भी नियमानुसार  उनके ही द्वारा सुना जाएगा. जब तक उक्त दोनों जज आपस में बात कर विशेष रूप से मेरे मामले को सुनने के लिए तिथि नहीं निर्धारित करेंगे  तब तक मेरा मामला सुना नहीं जाएगा. सप्ताह में केवल एक घंटे का समय अवमानना के मामलों को सुनने के लिए निर्धारित है. उसमें भी मेरे मामले में जजों के अलग-अलग होने के कारण - जो ब्रोकेन बेंच कहलाती है , मामले के सुने जाने की संभावना अत्यंत क्षीण है. कुल मिलाकर इसके सिवाय कि मैं हाथ पर हाथ धरे न्यायालय की कृपा का इंतजार करता रहूँ कोई चारा नहीं है और यह कृपा कब होगी इसका भी कोई भरोसा नहीं है. मैंने अन्य वकीलों से भी बात की पर सबने हाथ खडे कर दिए. इस प्रकार कैट से और फिर उच्च न्यायालय से ( और वह भी विभागीय संपूर्ण समर्पण के बाद) दस साल तक लडाई लड कर मामला जीतने के बाद भी मेरी हालत 'धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का' वाली है क्योंकि मेरे द्वारा दायर किए गए न्यायालय की अवमानना के मामले की जल्दी या निकट भविष्य में सुनवाई की कोई आशा नहीं है. वे विभागीय अधिकारी जिन्होंने मेरे साथ अन्याय किया इस प्रकार की न्यायिक व्यवस्था को देखते हुएअपने-अपने स्थान पर आनंद मना रहे हैं.

          माननीय सर्वोच्च न्यायालय क्या केंद्र सरकार के अलावा अन्य स्थानों पर हो रहे कुम्भकरणीय आचरण के बारे में भी कुछ करेगा या कहेगा.

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

आई. पी. एल. अंतर्कथा : इज्जत का फालूदा बना तो क्या कुर्सी तो सलामत रहे! (व्यंग्य)

      
          देश के तमाम लोग कह रहे हैं कि एन.  श्रीनिवासन साहब  बी. सी. सी. आई. के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दें. पर आखिर क्यों ? जमाई के  द्वारा किया गया पाप श्वसुर के सर क्यों मढ रहे हैं आप लोग ? जमाई तो सदियों से श्वसुर  की लुटिया  डुबोते आए  हैं. सबसे पहले तो  प्राचीनकाल में "स्यामंतक"  हीरे की खोज में निकले हमारे भगवान श्रीकृष्ण ने जाम्बवान को मुष्टियों के प्रहार से अधमरा कर दिया फिर  उनकी सुपुत्री जाम्बवती को अपनी अर्धांगिनी बनाने के  लिए भी  सहमति  प्रदान कर दी.  कालांतर में  पृथ्वीराज चौहान  दिनदहाडे   शेष भारत के राजाओं के सामने  इस बात को नजरअंदाज करते हुए कि जयचंद उनका मौसेरा  भाई था और इस  नाते संयोगिता रिश्ते में उनकी भतीजी ही थी, संयोगिता को  घोडे पर बिठाकर भगा ले गए;  भले ही देश के हक में उनकी इस हरकत का अंजाम बुरा हुआ. आधुनिक इतिहास के आरंभिक दौर में  मीर कासिम ने मीरजाफर को बंगाल की नवाबी से बेदखल करवा कर  गद्दी कब्जियाई  और ज्यादा  पीछे न जाएं तो यही कोई बीस-इक्कीस साल पहले चंद्राबाबू नायडू ने एन.टी  रामाराव का तख्तापलट कर खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली. अगर भगवान  श्रीकृष्ण को छोड दें जिन्होने खुल्लमखुल्ला जाम्बवान को चैलेंज किया था (आखिर वो तो भगवान थे न), तो  बाकी सबने श्वसुरों को इस बात का कोई इमकान न होने दिया कि वे  पलीता लगाने वाले हैं  और जब आतिशबाजी शुरू हुई तो पहले तो उन्हें(श्वसुरजन को ) यह  समझ में ही नहीं आया कि कि उसका कर्ता-धर्ता कौन है. तो कुल कहने का आशय यह है साहब, कि ये सोलह आने संभव है कि बेटे समान प्रिय दामाद क्या कर रहा है इसका कुछ भी भान श्रीनिवासनजी  को न रहा हो. आप कहते हैं कि कोडाइकोनाल  में दो दिन पहले तक तो दोनो साथ-साथ थे  और आनंद मना रहे  थे. तो आप कहते रहिए साहब!अब आप क्या उम्मीद करते हैं कि पृथ्वीराज, मीर  कासिम   और चंद्राबाबू की श्रेणी  का दामाद  अपने तुरुप के पत्ते श्वसुरजी को   दिखाकर कहेगा-" पिताजी देखिए ,अगली चाल  में मैं  इसे डालने वाला हूँ."  तो साहब आप  श्रीनिवासन साहब की इस बात  पर पूरा भरोसा रखिए कि वह दामाद जिसे उन्होने विवादों से बचने के  लिए चेन्नई सुपर किंग के मालिक के रूप में प्रचारित करवा रखा था, लाखों-करोडों रूपए आई पी एल की बेटिंग पर लगा रहा था,फिक्सिंग कर रहा था पर उन्हें कुछ भी मालूम  नहीं था. जब बंसल साहब का भांजा करोडों का लेन-देन कर  रहा था  और बंसल साहब को  कुछ भी मालूम नहीं था  तो यह कोई अजूबे की  बात नहीं कि श्रीनिवासन साहब को कुछ भी मालूम नहीं  था. अब इस देश में यही हो  रहा है , माँ-बाप  और सास-श्वसुर की पूरी एक जमात धृतराष्ट्र बन चुकी है. उनके बेटे, दामाद, भतीजे और भांजे उनकी नाक के नीचे क्या कर रहे हैं उन्हे मालूम  नहीं रहता.मांएं कहती हैं -उनका बेटा भोला भाला है,वो कोई गलत काम कर ही नहीं सकता. न यकीन हो तो पिछले चर्चित बलात्कार के मामलों में सारे आरोपियों की मांओं के बयान पढ लीजिए. तो साहब मैं बार-बार कहता हूँ कि श्रीनिवासन साहब को यह बिलकुल मालूम नही था कि उनका दामाद  क्या कर रहा है.

          फिर मेरियप्पन का कहना है कि उसे दारापुत्र विंदू ने बहकाया है.बच्चा है बेचारा, आ गया बहकावे में! श्रीनिवासन साहब का कहना है कि मेरियप्पन क्रिकेट एंथूसिएस्ट है. इतना भी आप लोग नहीं समझते. वह तो अपने एंथूसियाज्म में महज कौतूहलवश चेन्नई सुपर किंग की  टीम के  साथ-साथ घूम  रहा   था. अब अगर लोग उसे चेन्नई सुपर किंग का   मालिक समझने लगे ,राजीव शुक्ला उसे यही मान कर  ई-मेल भेजने  लगे तो इसमें न तो श्रीनिवासन की कोई गलती है और न ही मेरियप्पन की .

          आप कहते हैं कि अगर श्रीनिवासन साहब को दामाद  की  करतूतों के बारे में नहीं भी मालूम था तो भी वह नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दें. आखिर क्यों दें भाई? कौन है इस देश में जो नैतिक आधार पर इस्तीफा दे  रहा है? लालबहादुर शास्त्री की बात करते हो,अरे वो जमाना चला गया भाई! क्यों पुरानी बातों को कलेजे से चिपकाए बैठे हो? भूल जाओ नैतिकता-फैतिकता! अब तो जब तक कुर्सी पर से धकियाया नहीं जाता या हाथ पकड कर ऐंठा  नहीं जाता तब तक कोई कुर्सी नही छोडता. फिर श्रीनिवासन साहब  ही आपको मिले हैं नैतिकता का पाठ पढाने  के लिए. जब इस आई. पी. एल. का आगाज ही नीलामी के साथ होता है  जिसमें खिलाडियों पर बोली लगती है और जिसे पहली बार देख कर एक नीलाम हो रहे विदेशी खिलाडी ने कहा था-"आई वाज फीलिंग लाइक ए काऊ",तो किस  नैतिकता की बात आप करते हैं? आई.पी.एल. की  सफलता के पीछे मार्केटिंग के सारे नुस्खे हैं. मार्केटिंग का मूलमंत्र है- पैसा लगाओ और पैसा कमाओ ,उसके लिए जो भी हथकंडा जरूरी  हो अपनाओ :फनफेयर ,चीयरलीडर और पार्टियाँ ,ये सब वही तो हथकंडे थे. आई. पी. एल. तो एक बिकाऊ माल है,खाली स्पोर्ट्स-स्पोर्ट्स आप क्या लगाए बैठे हो? श्रीनिवासन साहब  का कहना है -"आई कांट बी बुलडोज्ड इन टू   रिजाइनिंग". तो आप लोगों को ये मालूम नहीं है कि श्रीनिवासन साहब खुद बुलडोजर हैं. आपकी क्या औकात कि उन्हें बुलडोज करें. ये उनकी ही हैसियत थी  कि उन्होंने ये कानून ही बदलवा दिया था कि बी. सी. सी. आई. के पदाधिकारी आई. पी. एल. टीमों के मालिक नहीं बन सकते. तो  साहब  वे अपनी मनमर्जी करते हैं और ये उनकी आदत में शुमार है. बी. सी. सी. आई. के किसी सदस्य या पदाधिकारी की हिम्मत उनके आगे चूँ करने की नहीं है. उसे उन्होंने कौरवों की सभा में तब्दील कर दिया है जहाँ बडे-बडे दिग्गज बैठे हैं पर सारी नैतिकता भूल कर चुपचाप  बैठे हैं. वे राजनीतिक सूरमा भी जो बात-बात पर प्रतिद्वंदी दल के लोगों  से इस्तीफे की माँग  करते हैं.

          श्रीनिवासन साहब ने जब कहा कि कानून अपना काम करेगा और दोषियों को सजा मिलेगी तो  उन पर भरोसा करना चाहिए था और न्यायालय को इसमें दखल देने की क्या जरूरत थी, भले ही उनके दामाद  के बारे में आने  वाली रिपोर्ट  और उनकी आई. पी. एल. टीम (दुनिया जानती है कि चेन्नई सुपर किंग  किसकी टीम है) के  बारे  में उन्हें खुद ही फैसला करना था. आप लोगों को खामखाँ उनकी नीयत पर  शक नहीं करना चाहिए था. उन्हें शेरशाह सूरी की श्रेणी का मानिए जिसने अपने बेटे द्वारा किसी की पत्नी के ऊपर थूक दिए जाने पर उसके लिए भी  इसी तरह के  बर्ताव का प्रावधान किया था. भले ही आज के भारत में इस तरह के सारे आश्वासन झूठे साबित हो रहे हों पर आप जगजीत सिंह की गाई गजल के मुताबिक झूठे वादे पर यकीन करके अपनी उम्र बढा लीजिए. आखिर आने वाले साल तक आप ये सारी बातें भूल चुके होंगे और   किसी न किसी आई. पी. एल.  टीम को  सपोर्ट कर उसकी जय-जयकार में लगे  होंगे.इस देश में तमाम सारे  गम हैं और क्रिकेट तथा आई पी एल का कांबीनेशन उन गमों को भुलाने की सबसे अच्छी दवा है.

          अब इस न्यायिक व्यवस्था को क्या कहा जाए जिसने आज खुल्लमखुल्ला श्रीनिवासन साहब का नाम उजागर कर उन पर तोहमत लगा दी  है. 

         

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

चाँद जो नहीं है फिर चाँदनी जहाँ में बिखरेगी कैसे (गजल)

                              
                                 गजल

चाँद जो नहीं है फिर चाँदनी जहाँ में बिखरेगी कैसे
धरती दिखी नहीं आफताब बेताब न भी हो तो कैसे।। 

फूल जब नहीं है भँवरा यहाँ गुनगुनाए भी तो कैसे
शरीके हयात है नहीं पड़ोसियों से मन लगाएं कैसे।।

 तुम्हारी और बेटे की आवाज आती रहती सी हो जैसे
टूटी हुई है कमर  दवा ले फिर भी उठता हूँ कैसे ।।

किसी तरह हिम्मत कर बनाता हूँ रोटियाँ  कैसे
माँ को खिलाता हूँ और खुद भी खाता हूँ कैसे।।

 क्या सोचती हो एक पहिए से ये गाड़ी चलेगी कैसे
तुम जो चली गई हो फिर भी गृहस्थी सजेगी कैसे।।

इस शहर में नवाबी मिजाज के लोगों से बाबस्ता हूँ
 अच्छा है मिल गए हैं चंद दोस्त करके भी कैसे।।

उम्मीद है जब आओगे तो घर को उम्दा ही पाओगे
सजा रहा है घर को 'संजय' जतन करके भी कैसे।।
                                -संजय त्रिपाठी

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

स्वच्छता अभियान और कचरा बीनने वाला वर्ग !

          मोदीजी द्वारा गाँधी - जयंती से आरंभ किए गए  स्वच्छता अभियान के संदर्भ में  माननीय प्रधानमंत्रीजी का ध्यान समाज के एक वर्गविशेष की तरफ दिलाना चाहता हूँ जो समाज में हाशिए पर होने के बावजूद इस कार्य में सर्वाधिक योगदान करता है.यह तबका है कूडा-कचरा बीनने वालों का. चार पैसे पाने की आशा में इस वर्ग के लोग  इस कार्य के साथ संलग्न बीमारियों के खतरे की परवाह किए बिना कचरा बीनने के काम में लगे रहते हैं. कई बार इनमें बच्चे होते हैं जिन्हें शायद बाल श्रम नियंत्रण कानून के अनुसार काम नहीं करना चाहिए पर पेट की आग इन्हें काम करने के लिए मजबूर करती है. आज से आठ-नौ   वर्ष पूर्व मैं बरेली में रहा करता था. मेरे घर से कुछ आगे जाकर म्युनिसिपैलिटी की कचरागाडी का एक कैरियर रहा करता था जिसमें लोग कचरा डाला करते थे .बहुत सा कचरा बाहर भी निकल कर पडा रहता था एक परिवार भोर में ही आकर वहाँ कचरा बीनने में लग जाता था. एक बुजुर्ग जो शायद बच्चों का पिता था और साथ में चार-पाँच छोटे बच्चे रहते थे. यह बच्चे उक्त स्थान पर कचरा बीनने के बाद शायद पास-पडोस के दूसरे कचरे के ढेरों की तरफ चले जाते थे.  बच्चे श्याम वर्ण के होने के बावजूद सुंदर थे और उन्हें देखकर मैं सोचता कि शायद यही जरा साफ-सुथरे और किसी विद्यालय में होते तो कितने अच्छे लगते. एक दिन मेरी श्रीमतीजी कुछ कचरा उक्त स्थान पर डालने गईं और   जब उन बच्चों को कचरा छाँटते देखा तो व्यथित हुईं क्योंकि वहाँ बहुत सी ऐसी सामग्री पडी थी जो बच्चों को नहीं छूना चाहिए. इसके बाद मेरी श्रीमतीजी उन बच्चों को बुलाकर कई बार खाने-पीने का सामान दे दिया करती थीं.

          मैं माननीय प्रधानमंत्रीजी से अनुरोध करता हूँ कि स्वच्छता के कार्य में  इस वर्ग के लोगों द्वारा किए जा रहे योगदान को देखते हुए ( भले ही वे ऐसा मजबूरीवश कर रहे हों ) इन्हें बूट तथा दस्ताने आदि प्रदान किए जाएं तथा इन्हें सुरक्षित ढंग से कचरा बीनने का तरीका बताया जाए. साथ ही इनके बच्चों के लिए अनौपचारिक रूप से शिक्षा देने  की व्यवस्था की जाए क्योंकि इनके लिए औपचारिक रूप से विद्यालयों में जाकर शिक्षा ग्रहण करना शायद  पारिवारिक हालातों के कारण संभव न हो. साथ ही कचरे का संग्रहण यदि आरंभिक या घरों के स्तर से ही चार भागों : 1.-सामान्य कचरा , 2.- बायोडिग्रेडेबल 3.- जूठन एवं खाद्य 4.- जोखिम वाले पदार्थ  (Hajarduous  material)_ में अलग-अलग किया जाए तथा ऐसा करने के बारे में लोगों को शिक्षित किया जाए तो यह कचरा बीनने वालों के साथ-साथ गाय एवं एवं अन्य पशुओं के लिए भी अच्छा होगा जो खाद्य सामग्री के साथ तमाम सारा पॉलिथिन खा जाते हैं. इन कार्यों हेतु एन. जी. ओ. संस्थाओं की मदद ली जा सकती है.साथ ही म्युनिसिपैल्टियों को भी इस दिशा में सक्रिय प्रयास करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.

गुरुवार, 2 अक्तूबर 2014

गाँधीजी,सांप्रदायिकता और स्वच्छता (विमर्श )

रघुवंशमणि (मेरे मित्र)-
          गाँधीजी के विचारों में सबसे महत्वपूर्ण विचार धर्मसमभाव का था। जब तक धर्म के नाम पर घृणा और पूर्वाग्रह बने रहेंगे गाँधीजी के विचार प्रासंगिक बने रहेंगे। जब तक मन साफ नहीं होगा बाहरी सफाई बेकार है। पहले मन साफ होना चाहिए। मन के कलुष पर झाडू मारिए।

अनिल अविश्रांत (रघुवंशमणिजी के मित्र)-
          रघुवंश सर जब धर्म में ही समभाव नहीं है तो उनसे संबन्धित विचारों में कहाँ से होगा. धर्म जिन भौतिक कारकों से प्रेरणा ग्रहण करता है अनिवार्य रूप से उसके पक्ष में झुका रहता है और एक बड़े तबके के शोषण का कारण बनता है.

मेरी प्रतिक्रिया-
          शहरों में दंगों का भयंकरतम रूप मलिन बस्तियों में और उनके आस-पास देखने को मिलता है जबकि सफेदपोश इलाके अपेक्षाकृत सुरक्षित रहते हैं. यह इस तथ्य का संकेतक है कि बाहरी सफाई शायद कहीं मन को भी प्रभावित करती है. जब हम अपने घर में या बाहर कहीं निष्कलंक अथवा नैसर्गिक वातावरण में बैठते हैं तभी मन में अच्छे विचार भी आते हैं. कूडे-कचरे के बीच संभवत: हम सभी अच्छे चिंतन को जन्म नहीं दे सकते. धर्म के नाम पर घृणा और पूर्वाग्रह भी व्यक्ति विशेष के चतुर्दिक प्रदूषित (विचारों का प्रदूषण) वातावरण में पनपते हैं. समग्र स्वच्छता का भाव मन और बाहर दोनों ही जगह की मलिनता के निराकरण में सहायक होगा. सारे सांप्रदायिक लडाई-झगडों के मूल में धर्म का स्थूल स्वरूप और अधिकांश लोगों की समझ का वहीं तक सीमित होना है . इस बारे में अनिल अविश्रांतजी के विचार काफी हद तक सच्चाई के निकट हैं. समग्र स्वच्छता इसके निराकरण में सहायक होगी.

रघुवंशमणि-
       तमाम वातानुकूलित कमरों में बैठे कलुषित मन वाले नेता और राजनीतिक लोग दंगे कराते हैं ।यह एक बहुत बड़ी गलतफहमी है कि दंगे होते हैं । दंगे कलुषित मन वाले राजनीतिक संभ्रांत कुटिल लोगों द्वारा कराए जाते है। इसलिए जब तक विचार और मन साफ नहीं होगा, तब तक ये समस्याएँ बनीं रहेंगी । गरीबों के सिर पर ठीकरा फोड़ना उचित नही^ । उन्हें सफेदपोश लोग ही बरगलाते हैं । साफ- सफ्फाक लोग कितनी कालिमा फैलाते हैं इसका प्रमाण वे तमाम दंगे हैं जिनके सूत्र दिल्ली की राजनीति से जुड़े रहे हैं । यह विडम्बना ही है कि साम्प्रदायिक लोगों के हाथ में ही सफाई की बागडोर है। करते गंगा को खराब देते गंगा की दुहाई! सामान्य जनता को मूर्ख बनाया जाता है और इस्तेमाल किया जाता है। उच्च स्थानो पर बैठे कुटिल लोग जब तक ठीक तरीके से सोच नहीं बदलेगे कुछ नहीं ठीक होने वाला । मीडिया के सामने झाड़ू नाचना दूसरी बात है।

मेरी प्रतिक्रिया-
          दंगे जहाँ कई बार प्रायोजित होते हैं वहीं स्वत:स्फूर्त भी होते है। स्वत:स्फूर्त दंगों के पीछे प्राय: गोवध, धार्मिक जुलूस और उन पर पत्थर फेंका जाना, उसका मंदिर या मस्जिद के बगल से निकलना, मस्जिद के सामने हिन्दू धार्मिक संगीत का बजना अथवा हिन्दू धार्मिक कार्यक्रम के समय अजान का होना, दो अलग-अलग संप्रदायों के जुलूसों का आमने-सामने आ जाना,उन्हें एक खास रास्ते से ले जाने की जिद करना जैसे कारण होते हैं । इन दिनों इनमें एक नया कारण समुदाय विशेष की लड़की को छेड़ा जाना और जुड़ गया है। दंगा प्रायोजित हो अथवा स्वत:स्फूर्त दोनों में ही लोगों की नासमझी एक बहुत बड़े कारक और उत्प्रेरक ( catalyst)  दोनों का काम करती है। इसी का फायदा सांप्रदायिक जहर फैलाने वाले उठाते हैं । मैंने अपनी पहले की टिप्पणी में कहा है कि धर्म के नाम पर घृणा और पूर्वाग्रह भी व्यक्ति विशेष के चतुर्दिक प्रदूषित (विचारों का प्रदूषण) वातावरण में पनपते हैं भले ही ऐसा व्यक्ति वातानुकूलित वातावरण में रह रहा हो तो भी क्या? जिन्हें आप सांप्रदायिक कहते हैं उनका सत्ता में आना भी उनकी असफलता का द्योतक है जो स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं । उन्हें स्वयं का विश्लेषण करना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ। वे क्यों भारतवासियों की नजर में असफल थे जिसके कारण उन्होंने तथाकथित साम्प्रदायिक लोगों के हाथों में सत्ता सौंप दी । उन्हें स्वयं से यह प्रश्न भी करना चाहिए कि उन्होंने गाँधीजी को क्यों अनाथ छोड दिया था जिससे एक दक्षिणपंथी को गाँधीजी को अपना बनाने का मौका मिल गया । अब यह तथाकथित कम्यूनल लोग लोग पावर में आ गए हैं और पूर्ण बहुमत के साथ अगले पाँच साल तक रहेंगे। तो आने वाले पाँच सालों तक क्या उनके द्वारा उठाए जाने वाले अच्छे कदमों का विरोध भी मात्र इस आधार पर किया जाए कि वे कम्यूनल हैं । क्या सड़क पर,स्टेशन पर और चौराहों पर पड़ा कचरा आपको विचलित नहीं करता? क्या यह कचरा और गंगा में डाला जाने वाला कचरा मात्र कम्यूनल लोगों का योगदान है? क्या इसके लिए सभी भारतीय जिम्मेदार नहीं हैं और क्या सभी भारतीयों को अपने चारों तरफ के वातावरण को साफ रखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए? वैसे मुझे व्यक्तिगत तौर पर मोदी के स्वच्छता अभियान की सफलता में संदेह है क्योंकि हम भारतवासी अपनी आदतों विशेषकर गंदी आदतों को बदलेंगे यही संदेहास्पद है, पर एक अच्छा प्रयास सराहनायोग्य है। अगर कोई आसमाँ की तरफ पत्थर उछाल कर सूराख करने की कोशिश भर कर रहा है तो भी उसके हौसले की दाद देनी चाहिए. मेरे पिताजी कहते थे कि यदि अपने मातहतों से काम कराना चाहते हो तो पहले खुद काम करके उनके सामने उदाहरण प्रस्तुत करो । मैंने अपने काम के दौरान इसे सफलतापूर्वक आजमाया है। वही काम मोदी कर रहे हैं, इसमें महज फोटो खिंचवाने जैसी बात नहीं है। सांप्रदायिकता और स्वच्छता दो अलग-अलग मुद्दे हैं जिनका एक दूसरे में घालमेल करने से एक अच्छी बात दब जाएगी । सांप्रदायिकता का विरोध एक अलग मुद्दे के रूप में किया जाना चाहिए। मन के कलुष को साफ करने के लिए अलग दूसरे प्रयासों की जरूरत है। वैसे मन की सफाई करना बाहरी भौतिक सफाई से बहुत अधिक कठिन और श्रमसाध्य है।

सोमवार, 15 सितंबर 2014

प्रकृति का दुर्लभ लौकिक संगीत!-2 (विमर्श )

     


          मैंने और मेरे मित्र संजय त्रिपाठी ने अपने जिन अनुभवों की चर्चा की है( देखिए: प्रकृति का दुर्लभ लौकिक संगीत!-1), उन्हें कोई धार्मिक व्यक्ति ब्रम्हज्ञान या दैवीय से जोड़ सकता है। यह उसके धार्मिक दृष्टिकोण की बात होगी । दूसरे शब्दों में यह निर्वचन interpretation का मामला है । मुझे इस प्रकार के अनुभव अपने मनोजगत से जुड़े लगे । मैं इन्हें किसी भी तरह से धर्म या आस्था से नहीं जोड़ पाता । मेरे अन्य मित्रों ने भी मुझे कुछ ऐसे अनुभव बताये हैं । वास्तव में ये अनुभव मूलतः धार्मिक नहीं होते । उन्हें हमारे दृष्टिकोण या आग्रह ही ऐसे रंग प्रदान करते । इन्हें धार्मिक मान लेने पर इन्हें ब्रम्ह से जोड़ कर अनिर्वचनीय सिद्ध कर दिया जाता है और इस प्रकार इनके विश्लेषण अथवा निर्वचन का सवाल स्थगित हो जाता है। - रघुवंशमणि (मेरे मित्र)
  
                           प्रकृति को जानने का कोई भी प्रयास ब्रह्मज्ञान की ही दिशा में किया गया प्रयास है
          रघुवंशजी !निश्चय ही यह पूरी तरह अपने-अपने interpretation की ही बात है. ऐसे भी लोग हैं जो मेरे घर आने पर कहते हैं कि मैं जंगल में रहता हूँ और दूसरी तरफ आस्था से भरे ऐसे भी लोग हैं जो स्थान विशेष पर पंडों की कहा-सुनी और सौदेबाजी तथा धक्का-मुक्की के बाद देवी प्रतिमा का दर्शन कर लेने के बाद स्वयं को धन्य मानते हैं. उनका मानना है कि स्थान विशेष पर देवी के दर्शनों की महिमा अलग होती है.वस्तुत: उनका interpretation आस्था में सना रहता है तथा इस कारण धार्मिक स्थलों की अव्यवस्था तथा व्यावसायिकता उन्हें धार्मिक व्यवस्था का ही एक भाग लगती है. उन्हें यह उपेक्षणीय लगती है अथवा इसमें उन्हें कोई बुराई नजर नहीं आती. 
          मेरा मानना है कि इस चराचर जगत में जो कुछ भी है वह प्रकृति में मौजूद है चाहे उसे खुदा कहो नेचर कहो या फितरत कहो. जो वैज्ञानिक खोजें भी होती हैं वे भी प्रकृति में पहले से ही मौजूद हैं ,वैज्ञानिक उन्हें interpret करने में सक्षम होकर उनकी खोज का श्रेय पा जाता है. इस प्रकार की खोजों का समायोजन कर जब वह एक सिस्टम को बना लेने में सक्षम हो जाता है तो वही नया आविष्कार कहलाता है . न्यूटन का कहना था कि उसने सारे जीवन में जो ज्ञान अर्जित किया वह समुद्र की एक बूँद के बराबर था. गुलाम अली का कहना है कि संगीत उस महासागर की तरह है जहाँ कहीं भी थाह लेने का प्रयास करने पर सुर का गहरा जल ही जल हाथ आता है,इतना कुछ सीखने के लिए है कि एक जीवन अपर्याप्त है. स्टीव जॉब्स नीम करौली बाबा से भेंट की आस लेकर भारत आए थे. एक दिन उन्हें अहसास हुआ कि मानवता का भला करने वाला एक आविष्कार 1000 नीम करौली बाबाओं से भेंट करने से बेहतर है तथा वे अमेरिका वापस लौट गए. इसके बाद उन्होंने एक गैराज किराए पर लेकर एपल के साम्राज्य की नींव डाली तथा उनके आविष्कारों ने दुनिया को बदल डाला.पर उन्होंने जो कुछ भी किया वह प्रकृति के नियमों और संरचनाओं की खोज ,उनका समायोजन और उन्हें नया स्वरूप प्रदान करना भर था. क्या न्यूटन ,गुलाम अली या स्टीव जॉब्स के प्रयास ब्रह्म को जानने की ही दिशा में किए गए प्रयास नहीं थे? मुझे तो लगता है कि वे सभी जो इस प्रकृति को जानने- समझने की कोशिश में लगे हैं ब्रह्मज्ञान की ही दिशा में ही प्रयास कर रहे हैं और निश्चय ही एक व्यक्ति का जीवन प्रकृति के संपूर्ण रहस्यों को जानने के लिए अपर्याप्त है. हजारों-हजार मानवों के द्वारा खोजें करने के बाद भी हम हिग्स-बोसान की संभावना की पुष्टि तक ही पहुँच पाए हैं और इस ब्र्ह्मांड के अनंत विस्तार में अभी तक पृथ्वी जैसा दूसरा गृह नहीं ढूढ पाए हैं .हम लोग तो उस शिशु की तरह हैं जो प्रकृति को देखकर अभिभूत हो जाता है, उन्हें शब्दाकार देने का प्रयास करता है और कभी-कभी इस प्रयास में कविता सी कर जाता है. 

रविवार, 14 सितंबर 2014

प्रकृति का दुर्लभ लौकिक संगीत!-1 (विमर्श )


      

        " कई साल पहले की बात है मैं अपने एक मित्र से मिलने गया था जिनका घर नदी के किनारे था। उस घर के पास पेडों के सिलसिले थे।वह दृश्य कुछ जंगल जैसा था हालाँकि उसे जंगल कहना ठीक नहीं । मैं अपने मित्र से मिलने के बाद पेड़ों के बीच घूमने निकल गया । मुझे उस वातावरण में अपूर्व शान्ति का अनुभव हुआ । यह अहसास काफी गहरा था और कुछ समय के लिए वहीं बैठ गया । फिर कुछ देर बाद जब मैं उस अनुभूति से बाहर निकला तो मुझे वर्ड्सवर्थ की वह पंक्ति याद आयी जिसमें उन्होंने प्रकृति में मनुष्यता का दर्द भरा संगीत सुना था।
           यह अनुभूति कहीं से भी धार्मिक नहीं थी। मगर वह अहसास आज भी बना हुआ है। मैं इस प्रकार की अनुभूतियों को आध्यात्मिक ही कहूँ गा।"- रघुवंशमणि (मेरे मित्र)

                                               प्रकृति का दुर्लभ संगीत बनाम धर्म का व्यवसाई रूप
          रघुवंशजी! आपने जिस वातावरण की चर्चा की है संयोग से मैं पिछले सात वर्षों से कुछ वैसे ही स्थान पर रहता हूँ. जब मैं शुरू में इस स्थान पर आया तो जैसा आपने कहा वैसा ही कुछ मुझे अनुभव हुआ. मैं इस वातावरण में भ्रमण कर आनंदातिरेक से भर जाता था.गंगा के किनारे बैठना ,जाती हुई लहरों को देखना, वृक्ष आच्छादित सुरम्य वातावरण मन को निस्सीम शांति से भर देते थे. यह मेरा नित्य का क्रम बन गया. यह स्थिति तीन-चार वर्षों तक रही. इस बीच पत्नी ने यहाँ अध्यापनकार्य शुरू कर दिया . आगे चलकर माँ की तबियत भी गडबड रहने लगी जिससे मेरे लिए यह अनिवार्य हो गया कि मैं प्रात: घर में पत्नी की सहायता करूँ ताकि वह समय पर विद्यालय के लिए निकल सकें. इस प्रकार नित्य प्राकृतिक सानिध्य का जो क्रम मैंने बनाया था वह टूट गया. पर कई बार जब प्रात: मैं अपनी खिडकी से बारिश की फुहारें पडता देखता हूँ तो ऐसी स्थिति में मेरा मन पिंजरें में कैद पंछी की तरह फडफडाता है और मैं बाहर निकलने को आतुर हो उठता हूँ. पहाडों पर भी मैंने प्रकृति की सामीप्यता के सुख का अनुभव किया है पर वह सरिता या समुद्रतट के जैसी अनिर्वचनीय नहीं प्रतीत हुई. मैंने इसके विश्लेषण का प्रयास किया और मुझे लगा कि संभवत: इसका कारण पहाड का जड होना है जबकि नदी या सागर सदैव गतिमान दिखाई देते हैं. आवश्यक नहीं है कि दूसरे की अनुभूति भी मेरी तरह हो क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अनुभूति का स्तर भी अलग-अलग होता है.मैं इसे प्रकृति में मनुष्यता का दर्द भरा संगीत नहीं बल्कि प्रकृति के दुर्लभ लौकिक संगीत की संज्ञा दूँगा. 

          इसके विपरीत कई धार्मिक स्थलों पर जहाँ पंडे-पुजारी, धार्मिक ग्राहक को लुभाने या उससे पैसा वसूलने की होड सी करते दिखाई देते हैं मेरा मन वितृष्णा से भर जाता है और धर्म का व्यवसाई रूप देख कर मन क्षुब्ध हो जाया करता है. मैं बीस वर्ष पूर्व कोलकाता के कालीघाट मंदिर गया था उसके बाद दोबारा नहीं गया. इस वर्ष एक मित्र के आगमन पर बीस वर्ष बाद पुन:गया और फिर से वही विक्षुब्ध कर देने वाला अनुभव रहा. इसी प्रकार वर्ष 2008 में मैं जगन्नाथपुरी गया था. मेरी एक सहकर्मी ने मुझसे कहा था -"दादा आप एक दिन पुरी का मुख्य मंदिर देखने के बाद अगले दिन एक आटो कर लीजिएगा और वह आपको नगर के सारे मंदिर घुमा देगा!" पर पुरी के मंदिर में पंडों और धर्म का व्यवसाई स्वरूप देखने के बाद अगले दिन किसी मंदिर में जाने के बजाय मैंने अपना दिन समुद्र के किनारे बिताना बेहतर समझा. मैं नहीं समझ पाता कि जहाँ किसी बाजार का सा कोलाहल है वहाँ कैसे कोई कुछ पल के लिए भी ध्यान लगा सकता है या कोई इहलौकिक अनुभव कर सकता है.

शनिवार, 23 अगस्त 2014

उनको तो हर तरफ रकीब दिखाई देते हैं (गजल)


                                                                   गजल

( यह गजल मेरे मित्र विक्रम सिंह जी की सपत्नीक उजबेकिस्तान यात्रा पर आधारित है )

उनको तो हर तरफ रकीब दिखाई  देते हैं
पर हमको वो खुशनसीब दिखाई देते हैं    ॥

रश्क क्यूँ न करे ये दुनिया तुम पे ऐ दोस्त
जब यूँ वो तुम्हारे करीब दिखाई देते हैं  ॥

जब भी जेहन में उठने लगते हैं चंद सवाल
उनके चेहरे ही हमें मुजीब दिखाई देते हैं॥

उजबेकों के बीच राजा-रानी हिंदुस्तानी
कुछ वाकये बेहद अजीब दिखाई देते हैं  ॥ 

जिस वतन में भी मिल जाएं अदबनवाज
वहीं हमें लोग लिए  तहजीब दिखाई देते हैं ॥

नायाबों की महफिल में कहाँ जाएं "संजय"
यूँ भी हम आदमी बेतरतीब दिखाई देते हैं ॥
                                                                 -संजय त्रिपाठी




मंगलवार, 29 जुलाई 2014

हिंदी है पहचान देश की !

- हिंदी है पहचान देश की -

हिंदी है पहचान देश की
हिंदी में हम काम करें॥

राजभाषा अधिनियम की
 धारा 343 का सम्मान करें॥

हिंदी में हम बनें प्रवीण
कार्यालय में अपना नाम करें ॥

पुरस्कार भी हैं मिलते प्रचुर
कुशलता प्रदर्शित कर प्राप्त  करें ॥

अंग्रेजी से सरलतर  हिंदी
बिना भय राजभाषा में काम करें॥

त्रुटियाँ हैं हमें कुछ न कुछ सिखातीं
त्रुटियाँ होने से  नहीं डरें॥

 राजभाषाकर्मियों  से लें सहायता
 और काम में सुधार करें॥

हिंदी है शान देश की
हर दिन हिंदी में ही नई शुरुआत करें॥

हिंदी है पहचान देश की
हिंदी में हम काम करें॥
                              -संजय त्रिपाठी

बुधवार, 23 जुलाई 2014

माहे ताबाँ की जुबाँ ने ले भी लिया क्या नाम हमारा (गजल)

          मेरे प्रिय मित्र विक्रम सिंहजी ने आज एक शेर पोस्ट किया था. उसी से प्रेरित होकर लिखी गई यह गजल प्रस्तुत है -


                         गजल
माहे ताबाँ की जुबाँ ने ले भी लिया क्या नाम हमारा
रकीबों की फेहरिस्त में लिख बैठा वो नाम हमारा॥

दुश्मन समझने लगा है जब वो सारे जमाने को
इसमें कर भी पाएगा क्या अब कोई दोस्त बेचारा॥

माहजबीं की जुल्फों के पेंचोखम में यूँ उलझ गया वो
सालों माँ से पूछा भी नहीं उसने है क्या हाल तुम्हारा॥

अरसा हो गया माँ ने सुनी ही नहीं है बेटे की आवाज
हुई भरपूर बारिश तो बोली वो है कोई पुर्सानेहाल हमारा॥

खेतों -अमराइयों में जाने का अब उठता  है कहाँ सवाल
कई सालों से जा भी नहीं पाया है गाँव वो दोस्त हमारा॥

किसी के दिल की गिरह को सुलझाने में हूँ  यूँ मुब्तला
खूबसूरती हो मुजस्सम"संजय" पर आता नहीं दिल हमारा॥
                                                        -संजय त्रिपाठी

मंगलवार, 24 जून 2014

तमिलनाडु में हिंदी का विरोध कितना वास्तविक?

          भारत सरकार के राजभाषा हिंदी संबंधी कुछ रूटिन  परिपत्रों के जारी किए जाने पर (जो समय-समय पर जारी किए जाते हैं और पहले भी जारी किए गए हैं) करुणानिधिजी को सहसा एक बार फिर याद आ गया है कि यह अहिंदीभाषियों पर हिंदी थोपने की और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की साजिश है. इसके पहले जब 1996 में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनी थी जिसमें करूणानिधि की पार्टी साझीदार थी और मुलायम सिंह यादव ने रक्षामंत्री के तौर पर आदेश जारी किया था कि उनके सामने समस्त फाइलें केवल हिन्दी में पेश की जाएंगी तब करूणानिधि को यह  याद नहीं  आया था कि यह हिंदी को थोपने की कोशिश है या अहिंदीभाषियों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश है.  इसका कारण यह है कि उस समय वह सत्ता पक्ष के अंग थे. करूनानिधि का हिंदी- विरोध तभी जागृत होता है जब वे विपक्ष में रहते हैं और इस समय तो उनकी पार्टी चुनावों में बुरी तरह पिटने के बाद बुरी दशा में है. पर सवाल यह है कि क्या  काठ  की  हंडिया रोज-रोज चढ पाएगी. समय बदल चुका है और भाषा को मुद्दा  बना  कर करुणानिधि अपनी  पार्टी को तमिलनाडु में वापस सत्ता में नहीं ला  पाएंगे. आज तमिलनाडु की जनता हिंदी सीखने की जरूरत को समझती है और उसे अहमियत देती है. यही कारण है कि वहाँ हिंदी सिखाने वाले संस्थानों में भारी भीड होती है. तमिलनाडु में हिंदी शिक्षकों को आसानी से रोजगार मिल जाता है. यह परिदृश्य तमिलनाडु के हिंदी- विरोध की हकीकत को बयान करता है. वस्तुत: तमिलनाडु के राजनीतिज्ञों  ने तमिल जनता को हिंदी की शिक्षा से वंचित कर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बना रखा है. तमिलनाडु का नागरिक जब देश के दूसरे भागों में जाता है तब वह स्वयं को कटा हुआ महसूस करता है हिंदी की जरूरत को शिद्दत के  साथ अनुभव करता है. मैंने देखा है कि पूरे मनोयोग से प्रयास कर कुछ समय के बाद हिंदी सीख भी लेता है  पर इस दौरान वह भाषा को लेकर तमिलनाडु में होने वाली  राजनीति के दुष्प्रभाव को बडी ही बेबसी के साथ महसूस करता है.  दूसरी ओर तमिलनाडु का पडोसी राज्य केरल है जहाँ आजादी के समय से ही हिंदी हाईस्कूल तक अनिवार्य है.नतीजा यह है कि केरलवासी  आपको देश के हर भाग में सेवारत मिल  जाएगा.  उसे कहीं भी जाने पर समायोजन करने में कोई कठिनाई  सामने नहीं आती.

         मैं एक घटना बताता हूँ जिससे आपको यह पता चल  जाएगा कि तमिलनाडुवासियों का  हिंदी विरोध कितना वास्तविक है. पंद्रह वर्ष पूर्व मैं एक रक्षा प्रशिक्षण संस्थान में कक्षाएं लिया करता था जहाँ पूरे देश से मैकेनिकल इंजीनियर प्रशिक्षण के लिए आया करते थे. एक दिन मेरे पास लगभग पंद्रह प्रशिक्षणार्थियों का एक समूह आया .यह सभी तमिलनाडु से थे. उन्होंने मुझसे कहा कि वे हिंदी सीखना चाहते हैं और मैं इसमें उनकी मदद करूँ. मैंने उनसे कहा कि आप लोग डायरेक्टर महोदय के सामने अपनी बात रखें. यदि वे रोज एक घंटा इसके लिए निर्धारित कर दें तो मैं आप लोगों की सहायता इस अवधि के दौरान कर दिया करूँगा. इस पर उन्होंने कहा कि मैं उन्हें अलग से समय दूँ और वे मुझे इसके लिए जो भी देय होगा वह देंगे. मैंने उन्हें पुन: कहा कि उन्हें किसी प्रकार का कोई देय देने की जरूरत नहीं है. वे डायरेक्टर महोदय से बात करें और मैं भी बात करूँगा तथा कार्यालय अवधि के दौरान ही उनके लिए हिंदी सीखने की व्यवस्था हो जाएगी और अंततोगत्वा इसकी व्यवस्था हो गई. अपनी सेवाअवधि के दौरान मुझे ऐसे अनेक उत्साही तमिल मिले जो हिंदी सीखने के प्रति बडे ही कृतसंकल्प और दृढ्प्रतिज्ञ थे तथा उन्होंने बडे ही उत्साहपूर्वक हिंदी सीखी. ऐसे में मैं यह निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि अब तमिलनाडु में भाषा की राजनीति नहीं चलने वाली है. सन उन्नीस सौ  सरसठ के बाद अब तक के सैंतालीस वर्षों की अवधि में गंगा और कावेरी दोनों में ही बहुत पानी बह चुका है. इसलिए यदि करूणानिधि को अपनी राजनीति चमकानी है तो उन्हें इसके लिए कोई नया उपाय ढूँढना होगा.

शनिवार, 17 मई 2014

Modi : A puzzle or a vision


 
           Next P.M. of India Narendra Modi is a puzzle for many,specially for people of other countries and they have been making an effort to crack this puzzle. To simplify the matter many of them have been comparing him with their own politicians. American political commentator David B Cohen compares him with Ronald Reagan due to their  rising on the state horizon first, advocating  free market,giving less importance to welfare programs. Scholar Rob Jenkins compares him with Richard Nixon due to being secretive about their personal lives,dependence upon trusted aids,tendency for denial and giving no importance to intellectuals.Some political observers compare him with Margaret Thatcher due to humble backgrounds,band of economic advisers,pushing market driven economy,slashing welfare programs,authoritarian ways,non tolerance of dissent and contempt for opposition.On the basis of his campaign running tactics, he is being compared with Barack Obama.His strongman like chest thumping has compelled some to take notice of him as next Vladimir Putin on the global stage.

           In an article in TOI, Indira Bagchi has made efforts to find similarities in him and some other Asian Nationalist leaders. She compares him to Shinzo Abe ,the Japanese P.M. as both of them have the enormous task of overcoming security challenges before their respective countries and turning around the economy. Chinese compare him with Xi Zinping for their capacities to get the economy going,targeting corruption and having trade friendly policies. Due to the taint of 2002 Gujarat riots he has been compared to Ariel Sharon and Mahinda Rajpaksa also. Some are comparing him to Recep Tayyip Erdogen the Turkish strongman also.Writer Ramchandra Guha compares him to Indira Gandhi as both have made efforts to make the party,the Government and country an extension of their personalities.

          Just as an elephant had different connotations for different persons of a group of blind people, various scholars have been trying to understand the Modi phenomenon in their own way. No doubt Modi is not a pushover,a great survivor, a strong person who believes in himself.  He has fought all the odds since he became Chief Minister of Gujarat and came thumbs up.Once he started to emerge as a possible P.M. candidate of his party, many in  his own party including his mentor made efforts to bloc his path. Politicians of other parties heaped all the calumnies upon him but he remained undeterred. With the help of a group of persons and support of general workers of the party he continued with the single minded pursuit of achieving the top job of the country. He blazed a trail through his tireless campaign and proved to be a master dream seller whose promises have been lapped up by the youth ,the middle and lower middle classes and even by the poverty ridden people. Today they all have become ambitious,not ready to accept the status quo and want to change their fate for a better future. They are no further ready to tolerate corruption and deteriorating law and order position.   Fed up with the policy paralysis of the Manmohan regime, the corporate sector also rooted for him. The Man called Narendra Modi exploited all their aspirations and hopes,charmed them with his ready wit and humour and did the unbelievable as he brought his party to power with a clear mandate. A political party has achieved this feat after thirty long years.

          Modi puzzle is solved if we go through his interviews and speeches.He has a vision and has a clear road map to achieve this.He has taken an enormous and tough task of nation building on his shoulders.Being a hard taskmaster,quick decision maker,methodical with  total involvement, and above all his  himself being a committed  hardworking and above reproach person, we can hope that he would prove to be beneficial for our country. The renowned economist Jagadish Bhagwati says he has a vision where he will take us.His model of development is about using the wealth that is created to increase social spending and avoiding self indulgence.He believes that his path towards economic prosperity will have salutary effect on the poverty also.Salient features of Modi's administration, as indicated by him on different occasions, would be as given below-
  • He promises  inclusive  development meant for everyone. 
  • Promises to reform the institutions and strengthen them so that they can function effectively and professionally.
  • To run the administration as per rule of law.
  • Zero tolerance approach towards naxalism/maoism.A clear legal framework to sort out impediments in this . Modernizing police and paramilitary forces.( Here I think Modi should include making efforts to address root cause of such violence also).
  • No confrontational approach towards any country including the neighbours.Having a sense of trust and mutual cooperation with neighbours.Instead of mere talks he is in favour of concrete action and bridging the trust deficit. Pakistan should take effective and demonstrable action towards terror networks to enable this. Modi talks of common history,culture and tradition between these two countries and their biggest common problem poverty. He is in favour of not being constrained by the past.
  • He is in favour of good relations with China and take these to higher level after solving the problems between the two.
  • Although U.S. has denied visa to Modi for years, he is in favour of  treating U.S. as a natural ally and taking the relationship to a new level.
  • Believes in the right to form opinion and express it.
  • Regarding perception of law, favours going by what is decided as final by the Judicial system.
  • Regarding defence procurement, he favours efficient procurement system in transparent manner.Favours indigenization of military equipments.He favours involving Indian Corporates in Public Private Partnership for defence manufacturing. He is also in favour of giving incentives for the purpose of defence production.
  • Promises to put economy back on the track,revive growth and investor sentiments with focus on infrastructure and manufacturing sector.He says there has to be adequate focus on the micro,small and medium enterprises.  Desires to pay maximum attention towards generating employment for youth.  Modi is in favour of expediting decision making process for clearing projects by removing procedural bottlenecks. To control inflation he will addresss supply side concern.
  • Modi wants to make agriculture remunerative and promises to invest heavily on irrigation and agro infrastructure to revive the farm sector .  He wants to create value addition for the products. He talks of taking agricultural research from lab to land and ushering in second green revolution.
  • Regarding housing, he says that by the time our country completes 75 years of independence every family should have a house of its own with access to toilets,water and electricity. To achieve the purpose he is in favour of  a mix of public and private investment with easy access to credit.He will focus on the economically weaker section.
  • NRGEA will continue but it will be reviewed  and stress will be put upon creating durable community assets,rural housing and sanitation as well as providing skills.
  • Favours addressing environmental issues in such a way that sanctions for the projects are not delayed.
  • Modi believes that only holy book of the Government is the Indian Constitution.
          Modi has a gargantuan task ahead and I believe from the day one he will be right on the job like Arjuna as he is a target oriented person.