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शनिवार, 17 सितंबर 2016

ये कौन कारवाँ छोड़ कर गया है (गजल)

             ~गजल~

ये कौन कारवाँ छोड़ कर गया है
दिल हमारा तोड़ कर गया है।।

यहाँ लौट कर आएगा वो फिर
जो हमसे मुँह मोड़ कर गया है।।

छोड़ कर चला भी गया तो क्या
कुछ तो नाता जोड़ कर गया है।।

रिश्ते निभाते गाँठें जो पड़ गईं
उनसे वो हमें बेजोड़ कर गया है।।

गालों पे ढलका अश्कों का समंदर।
'संजय' सितारों से होड़ कर गया है।।
-संजय त्रिपाठी

सोमवार, 29 अगस्त 2016

भिक्षावृत्ति- अतिरिक्त आय के साधनरूप में !

           कोलकाता के उपनगर बैरकपुर के समीपस्थ इच्छापुर - नवाबगंज में सप्ताह में दो दिन साप्ताहिक सब्जी बाजार लगता है। मैं वहाँ अपनी  तैनाती के दौरान प्रत्येक रविवार सब्जी लेने जाया करता था। सब्जी लेने मैं साइकिल से जाया करता था और सब्जी बाजार में जहाँ मैं साइकिल खड़ी करता था, वहीं एक लंगडा भिखारी पहले से  बैसाखी लिए खड़ा रहता था । मेरे वहाँ पहुँचते ही वह हाथ फैला दिया करता था । मलिन चेहरा,बढी हुई दाढी, चेहरे पर दैन्यता का भाव! मुझे कभी-कभी कोफ्त भी होती । आते ही आते पहले इस बंदे का सामना करना पडता है ।
 
          एक दिन श्रीमतीजी मेरे साथ गईं । सब्जी खरीदने केपश्चात  बोलीं- 'झोले भारी हो गए हैं ,कोई रिक्शा मिल जाता तो अच्छा रहता।' वह इधर- उधर देखने लगीं और जैसे ही उनकी निगाह भिखारी पर पड़ी प्रसन्न हो गईं । यह बोलते हुए कि 'वो रिक्शे वाला है ',  उधर लपकीं । 'अरे वो भिखारी है' मैंने कहा । 'नहीं वो रिक्शे वाला है', श्रीमतीजी बोलीं । मैंने कहा- 'लंगडा है रिक्शा कैसे चलाएगा?' 'चलाएगा'- श्रीमतीजी बोलीं। तब तक वो भिखारी के पास पहुँच गईं ।  दोनों में दुआ-सलाम और मित्रवत बातचीत ने उनके पहले से परिचित होने का संकेत दिया । श्रीमतीजी  बोलीं- 'घर चलना है,रिक्शा लेकर आए हो ? कहाँ है?'  'अभी लेकर आता हूँ, मेम साहब' भिखारी हँसकर बोला, उसके चेहरे से सारा दैन्य भाव गायब हो चुका था । हम लोग बाजार से बाहर आए और वो बंदा रिक्शा लेकर आ गया । रिक्शे में ही उसने बैसाखी एक जगह फिट कर दी । जब श्रीमती जी ने पैसे की बात की तो बोला- 'मेम साहब आप जितना हमेशा देती हैं वही दीजिएगा, ज्यादा थोड़े लूँगा।' फिर अपने एक सीधे और एक लंगडे पैर से रिक्शा चलाते हुए हम दोनों को घर पहुँचा दिया । श्रीमतीजी ने उसे कुछ पैसे ज्यादा दिये और मुझे बताया कि उसके पैरों को देखते हुए हमेशा उसे पैसे ज्यादा देती हैं ।
 
           उस दिन मुझे पता लगा कि भीख माँगने का उपयोग साइड बिजनेस के तौर पर भी होता है और जिसे मैं भिखारी समझता था वह वस्तुत: भिक्षावृत्ति का उपयोग  अतिरिक्त आय के साधनरूप  करता था । वैसे उस दिव्यांग रिक्शा वाले उर्फ भिखारी के जज्बे को मेरा सलाम है!

दशरथ माझी से दाना माझी तक! (कविता)

             दशरथ माझी से दाना माझी तक! (कविता)

माझी वह भी था माझी तुम भी हो
वह दशरथ था तुम दाना हो
उसने पहाड पार किया था
पत्नी को बचा लेने की आस में
तुम  कंधों पर जीवंसंगिनी
और साथ में बेटी को ले
पैदल निकल पडे
चौंसठ किलोमीटर रास्ता तय करने

अमंगदेई को  सती के समान
कंधों पर
शिववत लिए हुए
तुममें नहीं था
कोई रोष
कोई प्रतिकार की भावना नहीं
पत्नी वियोगी शिव ने तो दक्ष के यज्ञ
का कर दिया था विध्वंस

पत्नी को
अंतिम यात्रा कराते हुए
शीघ्र घर पहुँचने के लिए
थी उत्कंठा
ताकि अमंगदेई की ठंडी देह
प्रकृति को समर्पित कर सको
प्यार और सम्मान के साथ
अपने सामाजिक संस्कारों के साथ

पर तुम्हारे
ये ऐकांतिक क्षण
तुम्हारे न रह सके
उन्होंने झकझोर दिया है
उस समाज को
जो गरीबी
और भुखमरी देखकर
विचलित नहीं होता

अब नेता और पत्रकार
आते रहेंगे
तुम्हारे द्वार
आर्थिक सहायता की
होती रहेगी घोषणा
अमानवीय
कौन-कौन है
इसकी होगी गवेषणा

पर दाना
इस भुलभुलैया में तुम
अपना दानापन नहीं खोना
तुम दशरथ बनना
नया रास्ता बनाने का
हौसला रखना
अपनी दृढता, खुद्दारी
और हिम्मत नहीं खोना

सरलता तुम्हारे जैसे सीधे-सादे
आदिवासी की पूँजी हैं
इस सरलता में
वह शक्ति है
जो गहलौर से वजीरगंज पहुँचना
सहज बना देती है
पहाड को काट कर
रास्ता बना देती है


तुम्हारे सदृश दशरथ और दाना
इस देश के तमाम कोनों में
बिखरे हुए हैं
पर आँखें रहते न देखने का अभ्यस्त
यह समाज उन्हें कभी नहीं देखता
यह तभी देखता है
जब किरकिरी सा आँखों में गड
कोई मन को झंझोडता है

तुम्हें शवसंगी पथिक रूप में देखकर
दुनिया का सबसे बडा लोकतंत्र
लोककल्याणकारी राज्य
समाजवादी गणतंत्र
उन्नतशील राष्ट्र
सातवाँ बडा धनिक देश
सब झूठा लगता है
दंभ भरा ढकोसला लगता है
      - संजय त्रिपाठी












मंगलवार, 16 अगस्त 2016

स्वतंत्रता का सत्तरवाँ पर्व मनाएँ !

70वें स्वतंत्रता दिवस पर सभी को हार्दिक बधाई!

आओ तज धर्म-जाति का बंधन
एक पंक्ति में खड़े हो जाएं
आज फिर वीरों को याद करें
और तिरंगा प्यारा लहराएं।।

राजनीति छोड़ देश का विकास
हो ध्येय राजनीतिज्ञों को समझाएं
जोड़- तोड़ से नहीं, काम करोगे
तभी मिलेंगे वोट आओ इन्हें बताएँ।।

सांप्रदायिकता और जातिवाद से नहीं
सियासतदाँ जनता को भरमाएं
चैन से न बैठे कोई , जब तक
गरीबी और अशिक्षा से सब न मुक्ति पाएं।।

सभ्यता और संस्कृति का यह देश,
असभ्यता की बातें न इसको भाएं
संसद है देश के लोकतंत्र का आइना
आओ सड़कतंत्र से इसे बचाएं ।।

प्रहार करो,शब्दाघात करो पर
कमर के नीचे न वार करो इन्हें बताएँ
संसद है देश के सेवाव्रतियों के लिए
सत्ता और विपक्ष मिल कर इसे चलाएं।।

छल-प्रपंच में उलझी राजनीति
नीचे गिरने की अब तोड़ती सीमाएं
संसद में करो सार्थक बहस,
सब मिल- बैठ देश को आगे बढाएं ।।

मजहब के नाम पर देश बँटा एक बार
फिर न बँटेगा संकल्प यही दुहराएं
गंगा और सिन्धु में बह चुका बहुत है पानी
नापाक पड़ोसी को सख्त भाषा में बतलाएं।।

देशहित में काम करने का सब लें संकल्प,
यही राजनीतिज्ञ भी दुहराएं
निराशा से रख ऊपर आशा, चलो
स्वतंत्रता का सत्तरवाँ पर्व मनाएँ।।
           -संजय त्रिपाठी

रविवार, 24 जुलाई 2016

जम्मू एवं काश्मीर समस्या की पृष्ठभूमि (विमर्श)

कमलाकान्त त्रिपाठी जी :
Krishna Chandra Pandey ji, तथ्यों के अपने निष्कर्ष होते हैं। सबूत नहीं है पर समकालीन सुधी लोगों का अनुमान था कि नेहरू के लिए जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में जाना एक दुःस्वप्न सरीखा था। दो कारण - शेख अब्दुल्ला से मित्रता और अपनी कश्मीरियत और कश्मीर के प्रति सहज, मानवीय भावात्मक लगाव। यह तथ्य है कि पटेल जम्मू और कश्मीर को पाकिस्तान में जाने की स्थिति से reconciled थे, क्योंकि जूनागढ़ और हैदराबाद के प्रति उनके रुख़ की यह स्वाभाविक परिणति थी और वे इतने अंतर्विरोधी व दोहरे मानदंड वाले नहीं थे। कहा तो यहां तक जाता है कि नेहरू का कश्मीर लगाव ही वह कारक था जिसके चलते रेडिक्लिफ़ द्वारा जल्दबाजी में सीमा-रेखा खीचते समय मुस्लिम-बहुल गुरुदासपुर को हिन्दुस्तान में और उसकी नैतिक काट के तौर पर लाहौर की हिन्दू-बहुल कैनाल कालोनी को पाकिस्तान में डालने का निर्णय लिया गया। इसके बिना जम्मू कश्मीर में भारत का स्थल मार्ग से प्रवेश संभव नहीं था। कश्मीर को मैदान से जोड़नेवाले दोनों प्राकृतिक और पारंपरिक मार्ग भावी पाकिस्तान से होकर ही जाते थे और उन्हीं से उसकी सारी आपूर्ति होती थी। रेडिक्लिफ पर प्रभाव का रूट कहा जाता है--नेहरू-एडविना-माउंटबैटन-रेडिक्लिफ़। जैसे भी हुआ, एक बार विलय हो जाने के बाद पटेल को विलय में पूरा involvement हो गया और उन्हें उसका U N O में ले जाना गवारा नहीं था। महाराजा के साथ हो रहे अन्याय के प्रति भी उन्हें अंत तक तीव्र आक्रोश रहा क्योंकि वे शेख को विश्वसनीय नहीं पाते थे जो अंतत: सही साबित हुआ। पर पटेल कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि नेहरू ने कश्मीर को गृह मंत्रालय से निकालकर परराष्ट्र मंत्रालय में रख लिया था जो उनका खुद का पोर्टफोलियो था।


मेरी प्रतिक्रिया:
मैंने जो कुछ पढ़ा है उसके अनुसार जम्मू-काश्मीर को भारत में शामिल करने की नेहरूजी की उत्कट अभिलाषा थी। इसके लिए नेहरू ने एक ओर शेख अबदुल्ला का सहारा लिया और दूसरी ओर ब्रिटिश कर्ता-धर्ता जन के साथ अपने संबन्धों का उपयोग किया। पुस्तकें अभी मेरे पास नहीं हैं और याददाश्त भी धोखा दे रही है इसलिए विस्तार में नहीं जा पाऊँगा। माउंटबेटन पूरी तरह मानते थे कि काश्मीर को पाकिस्तान में जाना चाहिए । जिन्ना इसके प्रति आश्वस्त थे। आजादी के कुछ महीनों बाद जब महाराजा से जिन्ना ने काश्मीर प्रवास और इसके लिए व्यवस्था करने को कहा तो महाराजा ने इन्कार कर किया। इससे जिन्ना हतप्रभ रह गए। पर महाराजा अपनी स्वतंत्र स्थिति बनाए रखना चाहते थे, वे भारत में आने के लिए भी तैयार नहीं थे। जब कबायलियों की आड़ में पाकिस्तानी हमले ने महाराजा को मजबूर कर दिया तो वे भारत में आने के लिए सहमत हुए। नेहरूजी ने अपने प्रभाव का उपयोग कर माउंटबेटन को काश्मीर के भारत में आने देने के लिए सहमत किया। पर वे अंतरतम से इसके पक्ष में नहीं थे।शेष नेहरु-एडविना-रेडक्लिफ तिकडी का आपने उल्लेख किया ही है। महाराजा की शुरू की हीलाहवाली ने पाकिस्तान को कबायलियों की आड़ में हमले का अवसर मुहैया कराया और इसके बाद महाराजा की महत्वाकांक्षाएं धाराशायी हो गईं तथा वे भारत में आने के लिए तैयार हुए। तदुपरांत वे स्ट्रेटिजिक गल्तियाँ हुईं जिनके परिणामस्वरूप एक तिहाई काश्मीर पाकिस्तान के पास चला गया। इनका उल्लेख आपने किया है। पर इस सबके बावजूद यदि नेहरूजी को दो-तिहाई काश्मीर के भारत मे आने के श्रेय से भी वंचित किया जाता है तो संभवतः यह उनके साथ नाइंसाफी होगी।

परमेश्वर रूँगटा :
I am clear in my mind that Nehru was primarily responsible for the Kashmir problem. Sanjay Tripathiji, you want to give credit to Nehru for retaining 2-3rd of Kashmir with India, but it is this 2-3rd which has created problems for us since independence. Over the years the problem has become more acute. Can we honestly say that this 2-3rd of Kashmir has become ours? The ground situation is quite different. As far as the Kashmir valley is concerned, it is India's only for namesake. The sooner we accept this ground reality, the better for us. Perhaps the best solution of the Kashmir issue could have been partition of the state on the lines of Punjab and Bengal, India retaining the Hindu majority Jammu and the valley and rest of Kashmir going to Pakistan. I think Pakistan would have accepted this. Even now Pakistan is eyeing the Kashmir valley only. It is not keen for Jammu. Even now this solution can be tried if there is statesmanship on both sides.

मेरी प्रतिक्रिया :
Roongta Sahab I am in agreement with you upto some extent. Many a times similar thought occurs to me. Just as in a venture it is better to shed away loss making part, would it be better to shed Kashmir valley away? As far as I rememher, during Vajpayee regime similar solution on the line of trifurcation of J& K in Muslim, Hindu and Buddhist area and then reaching on some sort of solution with Pakistan by making Muslim area accessible to them was suggested by some RSS quarters and it was actively considered at that time. But there are two things. First there would be an uproar in the country and whosoever suggests the same would be termed as a traitor. Secondly within a few years of independence it could have been an ideal solution but now any such solution would create a backlash against the Muslim community all over the country and that may complicate the problem on communal lines. Now it is an emotive issue directly linked to integrity of the nation. It is also akin to accepting Jinna's two nation theory. Third it may encourage  separatists in other parts of the country.

So far as Nehru is concerned I'm neither his supporter nor detractor. But my view is- any historical evaluation has to be neutral and based on facts. It is a fact that but for Nehru's emotional attachment and his firmness on that count with Mountbaten, Kashmir would have never been an Indian territory. On moral ground when we claimed Hyderabad and Junagarh as ours we should have allowed Pakistan to have Kashmir on the same grounds. To overcome this moral dilemma Nehru took Shekh Abdullah on his side. Many a times it also occurs to me, when Nehru made a case for Kashmir to be with India, why didn't he make a similar case for NWFP to be with India where a Congress Govt. was ruling. That is because the kind of emotitonal attachment he felt for J & K he did not have for NWFP.


 So far as delay in sending forces to Kashmir after Pakistani attack in garb of tribals is concerned, I don't think Nehru and Patel differed. Looking at the Maharaja Hari Singh's wayward ways neither Nehru nor Patel could feel assured by his verbal assurances and therefore insisted upon signing accession treaty before dispatching forces to J & K. No doubt Nehruji committed strategic mistakes but I'm not in agreement if due to those he is painted as a villain and an effort is made to discredit him totally.A rightist propaganda on these lines is being made and efforts are being made to blame Nehru for every ill of the country. Again I would like to make it clear that I'm neither a leftist nor a rightist, neither a committed Congress Supporter nor a committed BJP or RSS supporter. My effort is just to evaluate the history without wearing any sort of tinted glasses.

कृष्णचंद्र पांडेय :
आदरणीय रूंगटा जी एवं त्रिपाठी जी,आप लोगों जैसे बुद्धिमान एवं अनुभवी लोगों से ऐसी बातें सुनकर आश्चर्य व दुःख होता है। आप कहाँ- कहाँ से हटेंगे। समस्या का हल खोजने की बजाय उससे भागना समस्या का हल नहीं , उसकी जटिलता को बढ़ावा देना और उसका विस्तार करना है। आप के अनुसार किये जाने वाले कश्मीर के हल से खालिस्तान, तमिलनानाडु, उत्तर पूर्व और अंततः बंगाल और तेलंगाना जैसी दो दर्जन समस्यायें खड़ी हो जाएँगी। कश्मीर की समस्या का केवल एक हल है, वह है धारा 370 का खात्मा। इस तथ्य को जितनी जल्दी लागू करेगें उतनी जल्दी समस्या का समाधान होगा । मैं किसी राजनितिक दल का सदस्य नहीं हूँ । मैंने काश्मीर में कुछ वर्ष बिताए हैं। जब कोई लगातार गलती करते हुए उसको सुधारने की कोशिश नहीं करेगा तो वही होगा जो हो रहा है। मैं अपने पूरे विश्वास से कहता हूँ कि जिस दिन राज्य सभा में बीजेपी और शिवसेना तथा पैंथर पार्टी की इतनी संख्या हो जायेगी की वह सविधान संशोधन पास करा सके, उस दिन धारा 370 ख़त्म होगी और वहीं से काश्मीर समस्या का समाधान की शुरूआत होगी। आप से निवेदन है कि कृपया उन सुझाओं को मत व्यक्त करें क्यों कि सोशल साइट को देखने वाले वे लोग भी हैं जो इस तरह के विचारों की ताक में रहते हैं और बाद में।इसे समूह की आवाज बता कर प्रचारित करते हैं ,इसका कहीं न कहीं गलत संदेश जाता है।

मेरी प्रतिक्रिया :
पांडेयजी आपकी बात सही है कि जम्मू एवं काश्मीर का विभाजन समस्या का सटीक हल नहीं है। यह समस्या का अति सरलीकरण है। इसमें क्या समस्याएँ हैं इसका उल्लेख मैंने ऊपर अपनी टिप्पणी में किया है। देश के विभाजन के समय जो माहौल बना था, उसी समय इस तरह का कोई समाधान किसी प्रकार की अन्य समस्या उत्पन्न नहीं करता। अब इस तरह का कोई भी समाधान नई समस्याएँ पैदा करेगा । पर यह एक तथ्य है कि अटल जी की सरकार के समय इस लाइन पर काश्मीर समस्या के हल के बारे में पर्दे के पीछे विचार किया गया था। आज की स्थिति में पाकिस्तान कुछ भी पाकर संतुष्ट होने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी पाकिस्तान के साथ संबन्ध सुधार के लिए उस हद तक गए हैं जहाँ तक के लिए उनसे कोई उम्मीद नहीं की जा सकती थी। पर नतीजा सिफर रहा है। पाकिस्तान में सत्ता के कई केन्द्र होने के कारण पाकिस्तान के साथ बातचीत कर संभवतः कोई कारगर समाधान नहीं निकलेगा। तो चारा यही है कि पाकिस्तान को मुँहतोड जवाब देने में सक्षम बनिए, काश्मीरियों के हृदय परिवर्तन का प्रयास करते रहिए, अलगाववादी तत्वों से कड़ाई से निपटिए। यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहेगी, अत: लंबे समय तक इसे झेलते रहने और इसके प्रतिकार के लिए तैयार रहिए।किसी भी प्रकार के कैंसर का इलाज खर्चीला और लंबा होता है तथा कैंसर ठीक होगा या नहीं या ठीक होने में कितना समय लेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है। रूँगटा साहब ने कैंसर की सर्जरी वाला इलाज बताया है। पर कैंसर के मामले में कई बार सर्जरी कारगर नहीं होती या फिर रोग दोबारा उभर आता है।यह भी विचार करने वाली बात है कि 1989 के बाद हम क्या-क्या गल्तियाँ करते रहे कि हालात बिगड़ते गए और अब पुराना समय फिर कैसे लाया जा सकता है। पाकिस्तान के अलगाववादी तत्वों को सक्रिय समर्थन दीजिए। पाकिस्तान की दुम दबाने के लिए यह जरूरी है।

गुरुवार, 23 जून 2016

चिंपूजी की शादी (बाल-गीत)

 एक सहकर्मी के आग्रह पर उनके बेटे के लिए लिखी गई कविता
    
          ‍‍- चिंपूजी की शादी (बाल-गीत) -

एक पेड़ पर रहते थे एक बंदरिया और बंदरजी
कुछ दिन बीते पैदा हो गए उनके छोटे चिंपूजी॥

मम्मी- पापा का लाड़ पा चिंपूजी हो गए बड़े शैतान
दिन भर धमाचौकड़ी करते, छोडें न कोई पेड़-मकान ॥

बंदरिया ने कहा एक दिन कहा करेंगे तुमको पाजी
बंदर ने कहा सुधर जाओ तो कहा करेंगे राजाजी ॥

चिंपूजी बोले सुधर जाऊँगा मम्मीजी और पापाजी
शर्त यही है ला दो एक दुल्हनिया मेरे लिए छोटीजी ॥

बंदर-बंदरिया ने कई जगह फिर शादी की बात चलाई
पर हर वानर-वानरी बोले, लड़का  दुष्ट बहुत है भाई ॥

बंदर और बंदरिया के पास आए एक सूटेड-बूटेड दम्पति
हैट उतार कर बोले मैं हूँ मिस्टर मंकी, ये है मिसेज मंकी ॥

हमारी बिटिया बी ए यानी बड़ी एक्सपर्ट, हो चुकी सयानी
शादी कर देंगे चिम्पू से, शर्त है आप बना कर रखें  रानी ॥

बंदर-बंदरिया बोले आपकी बेटी हुई हमारी,भर दी हामी
बैंड-बाजे संग चली बारात,नाचे बिल्ली मौसी कुत्ता टामी ॥

बारात लौटी तब दुल्हनिया को चिंंपूजी ने काटी चुटकी
दुल्हनिया चीखी- खौं-खौं ,दूल्हा चिंपू लगता है सनकी ॥

मैं जा रही हूँ तुरंत मायके अपने मम्मी-पापा के पास
जब तक नहीं सुधरेगा चिंपू,डालूँगी न मैं इसको घास ॥
      -संजय त्रिपाठी


सोमवार, 6 जून 2016

आसमां पे बादलों का पहरा (गजल)





















आसमां पे बादलों का पहरा बैठा हुआ है
पर बेखबर शहर अभी सोया हुआ है।।

कलेजे में ठंडक लिए आ गए हैं मेहमां
जिनके आगोश में जहाँ सिमटा हुआ है।।

तपन और उमस से हर शख्स परेशां था
सहला रही है मौजे नसीम ये किसकी दुआ है।।

चले न जाएं दिल को सुकूँ देने वाले यायावर
रोकना आसमां पे कारवाँ जो ठहरा हुआ है।।

गमकने लगी धरती फिर से लिए सोंधी महक
गिरती अमृत की बूँद ने उसे छू क्या लिया है।।

तान कर हिफाजत के लिए बरसाती चादर
धरती के दामन में गरीब दुबका हुआ है।।

 देख श्याम मेघ छटा दिल में लिए उल्लास
नाचता कवि मन 'संजय' आज मोर हुआ है।।
   - संजय त्रिपाठी


सोमवार, 30 मई 2016

पाकिस्तानी संसद में पत्नी की पिटाई संबंधी विधेयक (विमर्श)


Alpana Verma की फ़ोटो.


श्री अनूप शुक्ल:

          इधर भारत में कुछ महिलाओं द्वारा यौन सम्बन्धों में आजादी की बात चल रही है उधर पाकिस्तान में पत्नी द्वारा शारीरिक संबंध के लिए मना करने पर पिटाई की आजादी मांगी जा रही है।पाकिस्तान में प्रस्तावित विधेयक में यह कहा गया है कि यदि पत्नी पति की बात नहीँ मानती, उसकी इच्छा के मुताबिक कपडे नहीं पहनतीं और शारीरिक संबन्ध बनाने को तैयार नहीं होती तो पति को अपनी पत्नी की थोड़ी सी पिटाई की इजाजत मिलनी चाहिए।यदि कोई महिला हिजाब नहीं पहनती है, अजनबियों के साथ बात करती है, तेज आवाज में बोलती है और अपने पति की सहमति के बगैर लोगों की वित्तीय मदद करती है तो उसकी पिटाई करने की भी आजादी मिलनी चाहिए।
        हालांकि हाजी मोहम्मद सलीम का कहना है कि यह अव्यवहारिक है पर कुछ लोग तो यह मांग कर ही रहे हैं।
        हिंदुस्तान में इधर कुछ महिलाएं 'फ्री सेक्स' की बात कर रही हैं वहीँ पाकिस्तान में कुछ पुरुष 'थोड़ी पिटाई' की इजाजत मांग रहे हैं। कितनी विविधता है मांगों में। क्या पता पाकिस्तान में विधेयक पारित होने पर कुछ 'हिंदुस्तानी मर्दों' के मन पाकिस्तान जाने के लिए मचलने लगें।
        अब अगर हम पूछने लगें कि क्या दोनों देशों की आजादी में नेहरू और जिन्ना का अंतर है तो क्या यह पोस्ट राजनैतिक हो जायेगी?अगर हाँ तो भैया हम नहीं पूछ रहे कुछ ऐसा। फिर तो सिर्फ यही कहेंगे -'भारतमाता की जय, वन्देमातरम, इंकलाब जिंदाबाद।'


मेरी प्रतिक्रिया:

          जिन भारतीय महिलाओं के संदर्भ में यह बात कही जा रही है उनकी संख्या नगण्य है और महज एक शोशेबाजी है जबकि पाकिस्तान में इस प्रकार की मांग महिलाओं पर पुरुषों का नियंत्रण बनाए रखने की इच्छा के कारण है। दोनों में कोई विरोधाभास नहीं है क्योंकि भारत में जिस मांग की बात कही जा रही है, सभी जानते हैं कि वह शोशेबाजी है इसलिए कोई उसे गंभीरता से नहीं लेता,यदि यहाँ महिलाएँ मुखर होती हैं तो भी हम उसके लिए मानसिक रूप से तैयार हैं। यही कारण है कि पत्नियों को लेकर सबसे ज्यादा जोक बनते हैं जो सोशल मीडिया पर चलते रहते हैं। वास्तविकता यह है कि हमें अपनी पत्नियों से कोई भय नहीं लगता इसलिए हम उनकी माँगों को हँसी में टाल जाते हैं। पर पाकिस्तान में समस्या वास्तविक है। वहाँ मुखर महिलाओं से पुरुष वास्तविक रूप में भयभीत हैं। इसलिए वे महिलाओं की पिटाई रूपी शस्त्र या सुरक्षा कवच की माँग कर रहे हैं। यह अंतर लोकतांत्रिक और सामंतवादी समाज के अंतर का है। लोकतंत्र में कोई किसी से भयभीत नहीं होता पर सामंती समाज में अधिकारप्राप्त वर्ग सदैव दूसरों की तनिक भी आजादी बर्दाश्त करने को तैयार नहीं होता क्योंकि उसे अपने अधिकारों के छिन जाने का और अपने जमीन पर आ जाने का भय सताता रहता है। आजादी के पहले के भारत में कांग्रेस की स्थापना समाज के संभ्रांत वर्ग द्वारा की गई थी पर लोकतांत्रिक प्रभाव से वह आम लोगों की कांग्रेस बन गई ।मुस्लिम लीग की स्थापना नवाबी और जमीनदार तबके द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप धर्म की आड़ में सामंती अधिकारों की रक्षा के लिए की गई थी। सन 1940 के बाद मुस्लिम अधिकारों की रक्षा के नाम पर पहली बार मुस्लिम लीग को मुसलमानों के एक बड़े हिस्से को अपने साथ जोड़ने का मौका मिला पर मुस्लिम लीग का स्वरूप सामंती ही रहा वह लोकतांत्रिक नहीं हो पाया। इस कारण भिन्न वातावरण में, सत्ता में आने वाले दलों की भिन्न पृष्ठभूमि के साथ आजाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान का जन्म हुआ। परिणामस्वरूप एक कुलोद्भव होने के बावजूद भारत और पाकिस्तान के डी एन ए में फर्क आ गया और यह आगे भी बना रहने वाला है।











शुक्रवार, 27 मई 2016

~ स्वच्छता का चले अभियान (कविता) ~

~ स्वच्छता का चले अभियान ~

स्वच्छता का चले अभियान।
देश बने स्वस्थ- समृद्ध -महान।।
स्वच्छता का प्रयास करे हर इंसान।
स्वच्छता में ही बसते हैं भगवान।।

चारों तरफ रखें स्वच्छ वातावरण।
उत्पादन हेतु बनेगा समुचित पर्यावरण ।।
स्वच्छता के लिए करते रहना यत्न ।
उच्च उत्पादकता के लिए है सही प्रयत्न।।

जब स्वच्छ रहेगा चतुर्दिक वातावरण।
तब ही स्वस्थ रहेगा भारत का जन-जन।।
स्वच्छ वातावरण अर्थात स्वच्छ पर्यावरण।
स्वस्थ तन ,स्वस्थ मन ,स्वस्थ जन- गण।।

हर भारतवासी स्वच्छता ऐसी अपनाए।
देवों का मन हो धरती पर उतर आएं।।
प्रसन्नता से हर हृदय भर जाए।
देश हमारा धरती का स्वर्ग कहलाए।।
-संजय त्रिपाठी








गुरुवार, 26 मई 2016

अच्छे दिन ( गजल)

हवा के खिलाफ चलकर पास आ जाने वाले हमेशा साथ निभाते हैं।
हवा के साथ बह भी आते हैं जर्द पत्ते ,जो हवा के साथ वापस चले जाते हैं।।

अच्छे दिनों में न भूलो कभी दुश्वारियों में साथ रहने वालों को।
अच्छे दिनों की आस में साथ आने वाले गमकशी में साथ छोड जाते हैं।।

जब दिन किसी के अच्छे हों, बताना उससे रिश्ता जमाने की फितरत है।
जो आ जाएं गर्दिश भरे दिन सिर्फ सच्चे रिश्ते वाले साथ रह जाते हैं।।

खाली दामन को भी जो थाम लें मुहब्बत से वो आखिर तक साथ निभाते हैं।
दामन भरा देख थामने वाले, दामन खाली होते ही तोबा कर जाते हैं।।

अच्छे दिनों  का वादा करने वाले ,अपने वादे को निभाने का हौसला रखना।
वादे तो यूँ  टूटा भी करते हैं पर सरताज भूले वादे तो मुल्क के अरमां टूट जाते हैं।।  
          -संजय त्रिपाठी

शनिवार, 21 मई 2016

भगवान का घर और मन में चोर!




 
          एक सप्ताह पूर्व शनिवार 14 मई के दिन मैं चेन्नै में था। अपने मित्र श्री कार्तिकेयन के द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार मैं चेट्टिनाड म्यूजियम देखने के बाद महाबलिपुरम गया और वहाँ घूमने के बाद वापस चेन्नै लौटते समय उस दिन के लिए मेरे सारथि जयमोहनजी मुझे इस्कान मंदिर ले गए । भव्यता और सौंदर्य से युक्त मंदिर आकर्षक है। मंदिर पहुँचने पर मैंने चित्र लेने चाहे पर समस्या यह थी कि मोबाइल और कैमरे दोनों ही की बैटरियाँ मेरे सुपुत्र प्रत्यूष द्वारा जमकर फोटोग्राफी करने के कारण समाप्त हो चुकी थीं। मैंने मंदिर में देखा कई स्थानों पर प्लगहोल की व्यवस्था संभवत: पंखे आदि या अन्य बिजली उपकरणों के लिए की गई थी । स्वत: मन में आया कि यहाँ मोबाइल की रिचार्जिंग की जा सकती है। मंदिर में प्रवेश करते समय मैं एक सूचना पढ चुका था कि मंदिर में मोबाइल आफ कर रखना है। इस कारण मन में शंका थी कि मोबाइल चार्जिंग के लिए लगाना उचित होगा या नहीं। मंदिर में भीड-भाड नहीं थी, पुजारी आदि भी कोई नहीं था । इसलिए अपने सारे संकोच को दरकिनार कर मैं मोबाइल चार्जिंग के लिए लगाने लगा।  प्रत्यूष ने मुझे टोक दिया और कहा कि यहाँ मोबाइल आफ करने के लिए लिखा है पर आप उसे चार्जिंग में लगा रहे हैं,किसी  से पूछ कर अनुमति होने पर ही लगाइए।

           बेटे की बात सही थी। एक महिला गार्ड वहाँ प्रवेश स्थल पर वर्दी आदि पहन कर बैठी हुई थी। चलो इसी से पूछ लेता हूँ, मैंने विचार किया और उसके पास चला गया। महिला गार्ड हिंदी या अंग्रेजी कुछ भी समझने में असमर्थ थी । उसने जवाब में मुझसे जो कुछ कहा उसमें से मैं केवल तमिल शब्द समझ पाया और कुछ मेरे पल्ले नहीं पडा। प्रत्यूष ने कहा यह सिर्फ तमिल बोल या समझ सकती है और यही बता रही है।खैर अब कोई चारा नहीं था इसलिए मैं वापस चला आया। मंदिर के गर्भगृह के सामने के सभास्थल के बिल्कुल पिछले हिस्से में मैं चला गया जहाँ इस्कान के संस्थापक प्रभुपादजी की प्रतिमा थी।पीछे की तरफ बडे गवाक्ष बने हुए थे जिनसे बडी सुंदर हवा आ रही थी। मैं मंदिर के खुशनुमा माहौल के विषय में विचार करने लगा। पूरे ही मंदिर में शीतल नैसर्गिक हवा बह रही थी जो चेन्नई और आस-पास के क्षेत्र में अन्यत्र अनुभव की गई गरमी की अपेक्षा मंदिर के वातावरण को सुखप्रद बना रही थी। इसी दौरान मेरी निगाह दोनों तरफ की दीवारों में बने प्लगहोल पर पडी और  मन में चोर जागृत हो गया। मैंने एक प्लगहोल में मोबाइल चार्जिंग के लिए लगाकर पास रखी हुई कुर्सी पर रख दिया। 

            इस बीच सायं के चार बज जाने के कारण आरती का समय हो गया था और पुजारी आ गए थे। दर्शनार्थियों की भीड मुख्य प्रतिमाओं के सामने चली गई पर मैं कुर्सी के बगल में हाथ जोडकर खडा हो गया। पर जैसे ही यह ख्याल आया कि मैं भगवान के घर में बिजली चुरा रहा हूँ मुझे राजीव गाँधी की सभा में हाथ जोडे खडी  धनु का ख्याल आ गया और यह विचार आया कि जब भी कोई बहुत विनम्रतापूर्वक हाथ जोडकर सामने खडा हो जाए उसके विषय में सतर्कता बरतनी चाहिए। फिर थोडा यह सोचकर मन को आश्वस्त किया कि भगवान भी तो माखन चुराते थे इसलिए अगर मैं उनके घर में थोडी बिजली ही चुरा ले रहा हूँ तो क्या वो माफ नहीं करेंगे ! आखिर इसका उपयोग भी तो उनकी तस्वीर और उनके घर के चित्रादि लेने में ही करूँगा । कितने ही लोग रोज 'त्वदीयं वस्तु गोविंदं तुभ्यमेव समर्पयाम' कह कर भगवान का भोग लगाते हैं।

        इस बीच मैंने देखा कि साक्षात मीरा सी दिख रही एक गौरांगना जिनकी उम्र भी अधिकतम तीस के आस-पास होगी, गहरे हरे रंग की सूती साडी बिल्कुल भारतीय शैली में पहने पधारींं। वे पहले तो भगवान के सामने गईं फिर वहाँ से पीछे चली आईं और मुझसे कुछ दूरी पर खडी होकर माला फेरने लगीं। मैं सोचने लगा कि क्या रहा होगा कि अपना घर-बार, अपने लोग और अपना देश छोडकर वे यहाँ भगवान की खोज में चली आई हैं। पर कुछ देर माला फेरने के बाद वे चली गईं जिससे लगाकि जैसे यह उनकी दिनचर्या का कोई भाग था जिसे पूरा कर वे चली गईं। इसी दौरान खाकी पैंट पहने हुए एक व्यक्ति आया जिसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह स्थानीय था। वह लेटकर साष्टांग दंडवत करने लगा। मैंने सोचा कि रामास्वामी नायकर से लेकर अन्नादुरै के समय तक चले रेशनलिस्ट आंदोलन भी लोगों के धार्मिक विश्वासों को हिलाने में नाकाम रहे हैं और रेशनलिज्म तमिलनाडु की आबादी के एक छोटे हिस्से एवं डी के तथा डी एम के के शीर्ष नेतृत्व तक सीमित होकर रह गया है।

        इस दौरान मैंने अपने सुपुत्र को देखा जो वैसे तो कुछ बात होने पर स्टीफेन हाकिंस को उद्धृत करने लगते हैं , इस समय बडे श्रद्धाभाव से सर्वत्र श्रद्धावनत होकर प्रसाद आदि ले रहे थे। इनका बारहवीं का परीक्षाफल निकलने वाला है इसलिए फिलहाल सारी वैज्ञानिकता भूलकर 'डिवाइन इंटरवींशन' की तलाश में हैं। हममें से संभवत: अधिकांश लोग ऐसे ही हैं। अपने दुनियावी मामलों में जब भी जरूरत होने लगती है हम भगवान से हस्तक्षेप की आशा करने लगते हैं। खैर इस बीच मेरा मोबाइल जरूरत भर को चार्ज हो गया था जिसके लिए भगवान का धन्यवाद करते हुए मैंने यहाँ दिए गए फोटोग्राफ लिए । पर योगीराज श्रीकृष्ण के आगे किसकी चतुराई चलने वाली  है ! इसके बाद जब मैं मैरीना बीच पहुँचा तो मोबाइल फिर बोल गया। यानी कि भगवान ने बिजली का हिसाब बराबर रखा था, मुझे इतनी ही बिजली मिली कि मैं उनकी तस्वीरें ले पाऊँ बस!

रविवार, 15 मई 2016

~महाबलिपुरम में माला बेचने वाली वह बच्ची~



                                         ~महाबलिपुरम में माला बेचने वाली वह बच्ची~
          14 मई के दिन मैं अपने सुपुत्र प्रत्यूष के साथ महाबलिपुरम के तट पर घूमने और तटवर्ती पल्लवकालीन मंदिर देखने के बाद वापस लौट रहा था। गाड़ी के ड्राइवर श्री जयमोहनजी को फोन करने के बाद मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।इस दौरान आठ वर्ष की एक बालिका आकर मुझसे नकली मोतियों की माला खरीदने का आग्रह करने लगी। आरंभ में वह तमिल बोल रही थी जिसमें मैंने नूरss शब्द सुना जो मैं पहले भी सुन चुका था । इससे मुझे अंदाजा हुआ कि वह माला का मूल्य गिनती में बता रही है। मैंने अंग्रेजी में उससे कहा : 'I don't need it'. इस पर वह टूटी- फूटी अंग्रेजी बोलने का प्रयास करते हुए मुझसे माला खरीदने का आग्रह करने लगी। उसकी अंग्रेजी से मुझे मालूम हुआ कि माला twenty rupees की थी यानी कि नूरss का अर्थ 20 होता है मैंने निष्कर्ष निकाला ( बाद में मेरे एक मित्र ने बताया कि नूरss का अर्थ 100 होता है, संभवत: बच्ची मुझे 100 रूपए में पाँच मालाओं का प्रस्ताव दे रही थी)। बच्ची अपनी सेल्समैनशिप से मुझे तमिल का एक शब्द सिखा चुकी थी। मैं दोहराता रहा : 'I don't need it,'  पर बच्ची अपना प्रयास जारी रखे हुए थी। प्रत्यूष ने मुझसे बच्ची को जाने के लिए कहने को और जयमोहनजी को जल्दी आने के लिए फोन करने के लिए कहा। बच्ची हम दोनों का हिन्दी में संवाद सुनकर टूटी-फूटी हिन्दी बोलने का प्रयास करने लगी।

         मैंने जगह बदल दी पर बच्ची वहाँ तक चली आई। उसका कहने का कुछ भाव ऎसा था कि इसे खरीदकर आप एक गरीब बच्चे की मदद करेंगे। इस बीच जयमोहनजी आ गए थे और हम पिता-पुत्र गाड़ी की ओर उन्मुृख हो गए। बच्ची कुछ ऐसा कहने लगी कि क्या आप नहीं चाहते कि एक गरीब बच्चे का पेट भरे, उसकी मदद हो जाए। मैं बच्ची की सेल्समैनशिप का कायल हो चुका था पर समस्या यह थी कि माला की मुझे जरूरत नहीं थी। मैंने प्रत्यूष से बच्ची को दस रूपए देने के लिए कहा। मेरे बेटे ने पर्स निकाला और बच्ची आशा भरी निगाहें लिए खड़ी हो गई। प्रत्यूष ने दस रुपए बच्ची की तरफ बढ़ाए पर वह मुँह फेरकर बिना रुपए लिए जाने लगी । मैंने बच्ची को वापस बुलाया और प्रत्यूष को दस रुपए और निकालने के लिए कहा। प्रत्यूष ने बच्ची को बीस रुपए पकडाए। उसने मुझे माला पकडाई और उस माला को मैंने देश की एक गरीब बच्ची के धैर्यबल ,दृढता, अपनी बात से सहमत करने की क्षमता और बिना पढ़े या बिना किसी अच्छे विद्यालय में पढ़े मातृभाषा तमिल के अलावा टूटी-फूटी ही सही हिन्दी और अंग्रेजी बोलने की क्षमता की याद में सुरक्षित रख दिया है।

          इस घटना ने बहुत पहले इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तक में पढ़े गए डब्ल्यू सी डगलस द्वारा लिखे पाठ ' ए गर्ल विद दि बास्केट' की याद ताजा कर दी। श्री डगलस भारत को आजादी मिलने के कुछ ही वर्षों के बाद भारत भ्रमण के लिए आए थे। वे नवोदित राष्ट्र की नब्ज पहचानने का प्रयास कर रहे थे। एक रेलवे स्टेशन पर पंजाबी शरणार्थियों के बच्चों ने उन्हें घेर लिया और बुनी हुई टोकरियाँ बेचने का प्रयास करने लगे। उन्होंने बच्चों की मदद करने की गरज से टोकरियाँ खरीदीं और उनके दोनों हाथ भर गए। एक छोटी लगभग सात वर्ष की बच्ची उनसे अपनी टोकरी लेने का आग्रह कर रही थी पर वे अब और टोकरियाँ लेने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। उन्होंने बच्ची को कुछ पैसे देने चाहे पर उसने उन्हें लेने से इन्कार कर दिया। मजबूर होकर उन्होंने उसकी टोकरी खरीद ली। श्री डगलस को बच्ची ने भविष्य के भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में बहुत प्रभावित किया और उन्हें लगा कि नवोदित राष्ट्र का भविष्य आसन्न समस्याओं एवं गरीबी के बावजूद उज्ज्वल है।

           पर सवाल यह है कि आज जब देश की सारी प्रगति के बावजूद उस पंजाबी बच्ची की भूमिका लगभग पैंसठ वर्ष के बाद एक तमिल बच्ची द्वारा दोहराई जा रही है तो यह मानना कहाँ तक सच होगा कि आजादी के समय देश में जो आशाएं थीं वे पूरी तरह फलीभूत हो पाई हैं। कोलकाता में लोकल ट्रेनों में सफर करते समय मेरा साबका कई बार भीख माँगने वाले बच्चों से पड़ा है । मैं उस समय पसोपेश की स्थिति में पड़ जाता हूँ। एक बार तो यह लगता है कि भीख देने से यह बच्चे पूरे जीवन के लिए भिखारी बन जाएंगे और बच्चों से भीख मँगवाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी तरफ उन्हें देखकर हृदय में करुणा भी जगती है और यह लगता है कि उन्हें बिना कुछ दिए जाने देना उचित नहीं है। क्या हम समाज से बाल भिक्षावृत्ति और बाल श्रमिक की समस्या सारे कानून बना देने के बावजूद समाप्त नहीं कर पाएंगे?

शनिवार, 30 अप्रैल 2016

भारत माता के लिए संविधान के अनु.।।। में संशोधन की माँग

         उत्तरी मुंबई से भाजपा के संसद सदस्य श्री गोपाल चिनय्या शेट्टी ने लोकसभा में एक प्राइवेट मेम्बर बिल पेश किया है जिसमें संविधान के तीसरे अनुच्छेद में संशोधन की माँग करते हुए निर्वाचित होने वाले जन प्रतिनिधियों के लिए शपथग्रहण के समय भारत माता की जय बोलना अनिवार्य करने के लिए कहा गया है।

         राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के इस बयान पर कि सभी विद्यार्थियों को बाल्यकाल से ही 'भारत माता की जय' बुलवाया जाना चाहिए, मजलिसे इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष श्री असदुद्दीन ओवैसी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कह दिया था कि यदि उनके गले पर चाकू रख कर भी भारत माता की जय बोलने को कहा जाए तो वे नहीं बोलेंगे। सरसंघचालक के बयान पर श्री ओवैसी की प्रतिक्रिया ही ऐसी थी कि इसने एक विवाद को जन्म दे दिया। स्वयं को सच्चा देशभक्त कहने और समझने वालों ने इस पर तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की। भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने कहा कि भारत माता की जय बोलना किसी भी विवाद या चर्चा का विषय नहीं हो सकता। उनकी पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने भी इसका समर्थन किया। पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक ने यह कह कर एक प्रकार से विवाद को समाप्त करने का प्रयास किया कि भारत माता की जय जबर्दस्ती कहलाए जाने की जरूरत नहीं है। लोग स्वेच्छा से इसे बोलें ऐसा वातावरण बनाया जाना चाहिए। पर उन पक्षों को जो हमला करने के लिए तैयार रहते हैं, एक मुद्दा मिल गया और वे इसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। श्री गोपाल चिनय्या शेट्टी का लोकसभा में प्रस्तुत प्राइवेट मेम्बर बिल भी इसी का एक उदाहरण है।

          श्री ओवैसी यह भी कह सकते थे कि वे भारत माता की जय अपने धार्मिक कारणों से नहीं बोल सकते पर भारत की जय/ जय हिंद/ हिन्दुस्तान जिन्दाबाद बोल सकते हैं। इससे संभवत: विवाद नहीं पैदा होता। पर उन्होंने जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी उसका जैसे उद्देश्य ही विवाद पैदा करना था। भारत माता की जय के समर्थक और उसका विरोध करने वालों दोनों ही जोर-शोर से बयानबाजी करने लगे । विरोध करने वालों के साथ तथाकथित सेक्यूलरिस्ट भी मैदान में उतर गए। कुछ लोग भारत माता की जय बोलने को अनिवार्य किए जाने पर जोर देने लगे और कुछ कहने लगे कि जबर्दस्ती करने पर अथवा भाजपा नेताओं के कहने पर वे भारत माता की जय नहीं बोलेंगे। देवबंद ने भारत माता की जय बोलने के खिलाफ फतवा भी जारी कर दिया जिस पर मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि राजनैतिक रूप से विवादास्पद विषयों पर फतवा जारी करने से बचा जाना चाहिए क्योंकि इस प्रकार के विवाद का उद्देश्य राजनैतिक लाभ उठाना है। मैंने कहीं आरिफ जकारिया का कथन पढ़ा कि इस्लाम केवल खुदा के सामने सज्दे की इजाजत देता है और जहाँ सज्दे की बात नहीं है, जय शब्द जिंदाबाद के अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है वहाँ जय बोली जा सकती है,इसमें कोई हर्ज नहीं हैं। अगर जावेद अख्तर जी ने कई बार भारत माँ की जय बोल दी तो क्या वे मुसलमान नहीं रह गए। फिर हम मादरे वतन की बात क्यूँ करते हैं और इस पर आज तक किसी ने धार्मिक कारण बताकर आपत्ति क्यों नहीं की।

        हमारे जो देशभक्त यह कह रहे हैं कि भारत माता की जय बोलने को अनिवार्य बनाया जाए उनसे मैं कहना चाहता हूँ कि यदि कोई भारत की जय,हिन्दुस्तान की जय, जय हिंद या हिंदुस्तान जिंदाबाद बोलने के लिए राजी है तो आप क्यों उसे उसमें माता शब्द जोडने के लिए मजबूर करना चाहते हैं। उसकी भावना भी वही है जो आपकी है।यदि आप अपने धार्मिक विश्वासों के कारण मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं तो दूसरे की धार्मिक भावनाओं की भी कद्र करना सीखिए। उसे इतनी छूट देने के लिए तैयार रहिए कि वह बिना माँ शब्द जोड़े भारत या हिंदुस्तान की जय या जिंदाबाद बोले। अपने उस लोकतंत्र में उसका भरोसा कायम रखिए जहाँ सबके धार्मिक विश्वासों की कद्र की जाती है और सभी को धार्मिक स्वतंत्रता है।

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

जगमगाहट ने छुपा रखे हैं कितने पैबन्द !

   


           मेरे फ्लैट के सामने इस बहुमंजिली इमारत में एक उद्योगपति निवास करते हैं। पर जब आप नीचे सड़क के किनारे फुटपाथ पर देखेंगे तो नीचे तमाम लोग ऐसे मिलेंगे जिनका निवास स्थान फुटपाथ ही है। वहीं शाम को ईंटें लगाकर चूल्हा जला लिया जाता है जिन पर खाना पकता है। पटरी पर ही रात में और दोपहर में भी सोने की व्यवस्था हो जाती है। गुदडी में लिपटा लाल और पास ही लेटी उसकी माँ दिखाई दे जाती है। कहीं 80 वर्ष की कोई वृद्धा लेटी नजर आती है जिससे लगता है कि समाज के इस तबके को शायद वृद्धाश्रमों की जरूरत नहीं है।जो ज्यादा भाग्यशाली हैं उनके पास तख्त या दीवान जैसा कुछ है जिस पर दिन में धन्धे-पानी का काम हो जाता है और रात में सोने का। सर पर छत के लिए खुला आसमान है।हो सकता बारिश में फुटपाथ के निवासी अपने लिए अस्थाई कुछ छत जैसा लगा लेते हों जिसकी कोई संभावना मुझे दिखाई नहीं देती । बारिश आएगी तभी पता चल सकेगा। थोड़ी दूर पर सुलभ शौचालय भी है। प्रशासन ने एक अच्छा काम किया है कि सड़क और फुटपाथ के बीच लोहे की रेलिंग लगा दी हैं। इससे मुंबई में सलमान खान की गाड़ी से जैसा हादसा हुआ वैसा यहाँ होने की संभावना कम है। हमारे प्रधानमंत्री ने 2022 तक प्रत्येक भारतवासी के सर पर छत उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा है। पर इन तमाम लोगों के सर पर छत मयस्सर हो पाएगी मुझे इसमें संशय है।

          यहाँ कोलकाता में मैंने हाथी बागान क्षेत्र में देखा है कि सड़क के किनारे फुटपाथ पर लोगों ने छोटे-छोटे कमरे ( 4'x6'. 6' x 6', 6'x 8' के बना लिए हैं ( संभवत: स्थानीय रूप से रसूख रखने वालों की कृपा से) जिसमें उनकी पूरी गृहस्थी सिमटी रहती है। शायद जब वे लोग गाँव जाते होंगे तो कहते होंगे कि कलकत्ते में हमारा अपना घर है। पर तमाम लोग हैं जो इतने भी भाग्यशाली नहीं हैं। ऐसी व्यवस्था कर दी गई है कि शहर रात में रोशनी से जगमगाता है। पर इस जगमगाहट को देखकर मैं यही सोचता हूँ कि इसने कितने पैबन्द छुपा रखे हैं।

- डाँस बार (संस्मरण पर आधारित) -

                          डाँस बार
        दो दिन पहले समाचार पत्र में सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी महाराष्ट्र सरकार के साथ चल रहे डांस बार के मामले में पढी कि भीख माँगने की अपेक्षा डांस कर पैसा कमाना ज्यादा ठीक है। महाराष्ट्र सरकार ने अपने जवाब में कहा है कि वह डाँस पर रोक नहीं लगा रही बल्कि उनका नियमन कर रही है ताकि डाँस की आड में अश्लीलता न हो। मैं एक सच्ची कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ जो बताती है कि डाँस बार जाने की लत लग जाने पर मध्यमवर्गीय व्यक्ति का हश्र क्या हो सकता है।

          श्री वरेकर मेरे संस्थान में कार्य करते थे । उनसे परिचय कराते हुए मेरे कार्यालय के एक सहकर्मी ने बताया कि उनका अपना फ्लैट है और पत्नी भी वोल्टास में नौकरी करती हैं तथा बहुत अच्छा वेतन पाती हैं जितना कि उन दिनों सरकारी कर्मचारियों को मयस्सर नहीं था। कुछ वर्ष गुजर गए। फिर सुना कि श्री वरेकर ने अपना फ्लैट बेच दिया और वे मेरे पास स्थित एक सरकारी आवास में रहने आ गए। एक दिन श्री वरेकर ने मुझसे कुछ धनराशि उधार माँगी। कुछ दिनों के बाद उन्होंने पुन: मुझसे कुछ धनराशि उधार माँगी। इस बार मैंने इस बात का जिक्र अपने कार्यालय के उन सहकर्मी से किया जिन्होंने मेरा परिचय श्री वरेकर से कराया था। मैंने कहा कि आपने बताया था कि श्री वरेकर और उनकी पत्नी दोनों नौकरी करते हुए कुल मिलाकर बहुत अच्छा वेतन पाते हैं, वे फिर भी उधार माँगते हैं, आखिर बात क्या है। उन सहकर्मी ने मुझे श्री वरेकर को उधार देने से मना किया और कहा कि उनमें यह आदत बढ़ गई है। इसी कारण कुछ दिन पहले उन सहकर्मी ने श्री वरेकर द्वारा पैसा माँगने पर मना कर दिया था। एक दूसरे विभाग के व्यक्ति ने बताया कि श्री वरेकर को डांस बार जाने की लत लग गई है तथा वे रुपयों की माला बनाकर वहाँ ले जाते हैं और नर्तकियों को पहनाते हैं। उस दिन के बाद से श्री वरेकर द्वारा पैसा माँगने पर मैं मना करने लगा।
          फिर एक दिन सुना कि श्री वरेकर ने कार्यालय के काम से लिया गया पैसा कहीं खर्च कर दिया और वह उनकी तनख्वाह से कट रहा था। फिर यह भी सुना कि श्री वरेकर नौकरी दिलाने के नाम पर या लोगों का कोई काम करा देने के नाम पर भी उनसे पैसा ले लेते हैं। 

        एक दिन मैं अपने परिचित एक मिश्रजी के यहाँ मिलने के लिए गया। उन्होंने अपने गाँव से आए एक व्यक्ति से मेरा परिचय करवाते हुए उसे अपना भतीजा बताया और साथ ही यह भी कि उसकी नौकरी लगवाने के लिए उन्होंने श्री वरेकर को 5000 रुपए दिए हैं। मैंने श्री वरेकर की कहानी उन्हें सुनाई और सलाह दी कि वे अपना पैसा वापस पाने का प्रयास करें। खैर कुछ दिनों के बाद पुन: मुलाकात होने पर उन्होंने बताया कि श्री वरेकर को डरा-धमका कर उन्होंने अपना पैसा वापस ले लिया है। श्री वरेकर के पड़ोस में रहने वाली एक बालिका ने बताया कि एक दिन कोई पुरुष और नेवारी साड़ी पहने एक महिला श्री वरेकर के घर में मोटरसाइकिल पर सवार होकर आए थे। फिर उनके घर से झगडने की आवाज आ रही थी। फिर रोने की आवाज भी आ रही थी। आखिर में वे पुरुष और महिला वरेकर और उनकी पत्नी को डरा-धमका कर चले गए।

        कुछ दिनों बाद मेरा वहाँ से स्थानांतरण हो गया । पर मैं जब तक वहाँ रहा श्री वरेकर के बारे में इसी प्रकार की बातें सुनता रहा। 

         अब आप ही बताइए कि डांस बार आम जनता के लिए कितने लाभदायक हैं। क्या वे भी शराबखानों की तरह परिवारों की बर्बादी का कारण नहीं बनते।

सोमवार, 25 अप्रैल 2016

~ सद्भावना अभियान की जरूरत~

          सन 2012 में गुजरात के अपने मुख्यमंत्रित्वकाल के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार में सद्भावना यात्रा आरंभ कर पूरी की थी । इस यात्रा के माध्यम से उन्होंने अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिम समुदाय तक संपर्क और पहुँच बनाने की कोशिश की थी। इसमें कितनी सफलता मिली इसे वे बेहतर जानते होंगे। पर मैंने इस विषय पर उनका ब्लाग पढ़ा है जहाँ उन्होंने यात्रा का मकसद पूरा होने और अतिशय संतोष मिलने की बात कही है।

          मुझे लगता है कि इन दिनों जब मोदी सरकार को सहिष्णुता के मुद्दे पर बार- बार कटघरे में खड़ा करने के प्रयास चल  रहे हैं , उन्हें देश की जनता विशेषकर मुस्लिमों की आश्वस्ति के लिए पुन: सद्भावना मिशन आरंभ करने की जरूरत है। बेहतर हो कि वे प्रत्येक वर्ष कुछ समय इस प्रकार के सद्भावना अभियान के लिए रखें ।

           किसी को शत्रु समझने वाले उस पर वार वहीं करते हैं जो उसका कमजोर पक्ष दिखाई देता है। मुस्लिम समाज से दूरी और मुस्लिमों के साथ भाजपा,संघ और उसके आनुषंगिक संगठनों के शिथिल या अनुपस्थित संपर्कसूत्र और कहीं-कहीं विरोधी भाव के कारण असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के आरोप अभी आगे भी भाजपा और उसकी सरकार पर लगते रहेंगे। अटलजी ने इस स्थिति को बदलने का प्रयास किया था और उन्हें इस दिशा में आंशिक सफलता भी मिली थी। पर पहले तो गुजरात दंगों और फिर सत्ता जाने के बाद अटलजी के अस्वस्थ हो जाने के कारण यह प्रयास गौण हो गए। उसके बाद से इस दिशा में भाजपा की तरफ से कोई गंभीरता नहीं दिखाई गई हैं।

          भाजपा के कुछ नेता निरन्तर इस प्रकार की बयानबाजी करते रहे हैं जिससे दल की सार्वदेशिक स्वीकार्यता प्रभावित होती रही है और उसे नुकसान होता रहा है। अरुण जेटली ने भी बिहार चुनाव के नतीजे आने के बाद इस बात को स्वीकार किया ।किसी भी राजनैतिक दल के राजनीतिक लाभ तब तक स्थाई नहीं हो सकते जब तक कि उसकी अपील सार्वदेशिक, सार्ववर्गिक न हो। पर भाजपा ने केन्द्र में शासन में आ जाने के बाद इस पक्ष को तवज्जो नहीं दी है।भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को इस तरफ ध्यान देने और आवश्यक उपाय करने की जरूरत है।

रविवार, 24 अप्रैल 2016

~ Sonnet of a winter morn! ~

I had, as an 18 years old, written this sonnet wherein I used a different meter system than usual. However when shown to my English lecturer , he advised me to write and improve my prose instead of trying to write poems.


     ~ Sonnet of a winter morn! ~

Look over the Margosa, the newly born sun in heaven

How much he looks happy and gay!

The singing peasant with his hale and hearty oxen

Is going on his usual way.



Pair of sparrows on the mango tree  in the chilly weather

Is sweetly twittering as ever.

How smoothly with its constant spontaneous flow

Is flowing Saryu ,the pious river.



Like a dancing maid Eucliptus marvellously swings.

Awake dear ,participate in the mirth of natural beauty!

All these are committed to their daily routines

With punctuality and dedication for duty.


Come darling! In learning a lesson,there is no infidelity

Enjoy the nature that is the Almighty !  - Sanjay Tripathi

बुधवार, 20 अप्रैल 2016

आँखें तुम्हारी (कविता)

                     आँखें तुम्हारी
          ( 12 वर्ष पहले लिखी गई कविता )

झील सी गहरी आँखें तुम्हारी इस दिल में घर कर गईं।
चपल आँखें तुम्हारी सरे महफिल क्या-क्या कह गईं।
हिरणी सा जादू समाया है तुम्हारे कजरारे नैनों में।
अपनी आँखों से तुम इस काफिर को निष्प्राण कर गईं।।

यायावरी आँखें तुम्हारी इन आँखों से टकराती रहीं।
सागर सा इक लहराता रहा, मौजें भिगो-भिगो जाती रहीं।
हीरे सी आँखें तुम्हारी ,हैं खुदा की दी हुई अनमोल नेमत।
हूँ मैं खुशकिस्मत जो नैनों की दौलत तुम लुटाती रहीं।।

समंदर सी आँखों में तुम्हारी यह दिल डूबता उतराता रहा।
उन आँखों से अमृत छक कर यह नई जिंदगी पाता रहा।
खुदा की कसम है तुम्हें, न धोना कभी आँखों का काजल ।
खंजन से श्वेत- श्याम नैनों पर किसी का दिल है जाता रहा ।।
     - संजय त्रिपाठी

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

~ गजल (साल्टलेक,सेक्टर-5, कोलकाता पर ) ~





~ गजल (साल्टलेक,सेक्टर-5, कोलकाता पर)~

शहर के इस हिस्से में कहीं धूप तो कहीं छाँव है
भीतर मैकडोनाल्ड तो पटरी पे चाय की दुकान है

भटकने की जरूरत नहीं जेब में हैं कितने पैसे
उसके अनुकूल ही हर समस्या का समाधान है

सड़क के इस पार खड़ी है बहुमंजिली इमारत
उस पार सुकूँ देता 'नलबन' का सरोवर-उद्यान है

बस में मैले- कुचैले कपड़ों में भारत माँ की बेटी
गोद में उसकी दूध को मचलता अधनंगा नादान है

सोनमुहर के वृक्ष के नीचे बतलाता प्रेमी जोड़ा
हाथों में लिए हाथ दिली लहरों का करता बयान है

उस शहर के बरक्स जहाँ हर तरफ धूप ही धूप है
यह लगता जैसे किसी मरुभूमि में नखलिस्तान है

धूप के लश्कर से मुहब्बत भरे मुकाबले को तैयार
'संजय' मौजे सबा और आमों से लदा सायबान है
         - संजय त्रिपाठी

सोमवार, 14 मार्च 2016

संविधानसभा द्वारा हिन्दी सर्वसम्मति से राजभाषा चुनी गई थी (आलेख)

 ~ संविधानसभा द्वारा हिन्दी सर्वसम्मति से राजभाषा चुनी गई थी (आलेख) ~
         हिन्दी को लेकर एक प्रकार की भ्रांति  फैली हुई है कि संविधानसभा में हिन्दी मात्र 1 वोट के बहुमत से राजभाषा चुनी गई जबकि तथ्य यह है कि हिन्दी सर्वसम्मति से राजभाषा चुनी गई थी। हिन्दी के राजभाषा बनने की संवैधानिक पृष्ठभूमि और संविधानसभा द्वारा राजभाषा के प्रश्न को कैसे हल किया गया नीचे इसकी चर्चा की गई है।
        सन 1946 में संविधान सभा की प्रथम बैठक के समय अधिकांश प्रमुख नेता हिन्दुस्तानी को राजभाषा बनाए जाने के पक्ष में थे। उस समय तक यह स्पष्ट नहीं था कि पाकिस्तान बनेगा या नहीं। विभाजन को रोकने के प्रयास चल रहे थे।
          14 जुलाई, 1947 को संविधानसभा की चौथी बैठक हुई। इस समय तक यह स्पष्ट हो चुका था कि पाकिस्तान बनने जा रहा है। इसलिए सेठ गोविंददास और पी डी टंडन जैसे संविधान सभा सदस्य और उनके समर्थक जो अब तक देश की एकता को ध्यान में रखते हुए हिन्दुस्तानी का समर्थन कर रहे थे खुलकर हिन्दी के पक्ष में आ गए। इस बारे में जब समझौते के प्रयास असफल हो गए तो मतदान कराया गया। हिन्दुस्तानी के समर्थकों को गहरा धक्का लगा क्योंकि 63 वोट हिन्दी के पक्ष में पड़े जबकि 32 वोट हिन्दुस्तानी के पक्ष में पड़े। लिपि के लिए भी मतदान कराया गया जिसमें 63 वोट देवनागरी के पक्ष में पड़े और 18 वोट इसके खिलाफ पडे( संदर्भ : हिन्दुस्तान टाइम्स 17 जुलाई 1947) । सरदार पटेल को मत विभाजन की स्थिति को देखते हुए लगा कि यदि इस समय भाषा के मुद्दे को महत्व दिया जाता है तो इससे अन्य मुद्दों पर भी असर पड़ेगा। इसलिए उनके सुझाव पर इस मुद्दे पर विचार टाल दिया गया। सेठ गोविन्द दास ने इसकी आलोचना भी की ( संदर्भ- सेठ गोविन्द दास: आत्म निरीक्षण,भाग 3 पृ.121)।
          5 अगस्त 1949 को कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने इस आशय का एक प्रस्ताव पास किया कि अखिल भारतीय उद्देश्य के लिए एक राजभाषा होगी जिसमें संघ के कार्य संपादित किए जाएंगे।हिन्दी के समर्थकों को इससे बड़ी निराशा हुई। सेठ गोविन्ददास ने दिल्ली में 6-7 अगस्त 1949 को एक राष्ट्रभाषा सम्मेलन आयोजित किया जिसमें विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्यकार शामिल हुए। इस सम्मेलन में माँग की गई कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया जाए।
          पूरे अगस्त माह के दौरान इस बात के प्रयास किए गए कि राजभाषा के प्रश्न पर मतैक्य बन जाए। प्रमुख मतभेद लिपि के प्रश्न पर था क्योंकि कुछ लोग अरबी लिपि को और कुछ लोग रोमन लिपि को अपनाने का भी सुझाव दे रहे थे।बहुमत हिन्दी के पक्ष में था फिर भी कुछ लोग अभी भी राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे ( संदर्भ- कानस्टीट्यूशनल असेम्बली रिपोर्ट वोल्यूम 7,पृ 321)। 16 अगस्त 1949 को डा राजेन्द्र प्रसाद ने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी का समर्थन किया ।परन्तु उनका कहना था कि हिन्दी को अन्य भारतीय एवं विदेशी भाषाओं के शब्दों को भी ग्रहण करना चाहिए । उन्होंने यह भी कहा कि कुछ समय तक जो लोग चाहें उन्हें उर्दू लिपि का प्रयोग करने की भी अनुमति दी जाए ( संदर्भ- हिन्दुस्तान टाइम्स, 21 अगस्त 1949)। हिन्दी समर्थक समूह अंकों के लिए देवनागरी लिपि के मामले पर अडिग था। 16 अगस्त को कांग्रेस के संविधान सभा के सदस्यों की बैठक हुई जिसमें अंकों की लिपि के प्रश्न पर मतदान हुआ। 75 मत अंकों की देवनागरी लिपि के पक्ष में पड़े तथा 74 मत अंकों के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप के पक्ष में पडे। 
         डा के एम मुंशी, गोपालास्वामी आयंगार तथा डा श्यामाप्रसाद मुखर्जी को भाषा के प्रश्न पर सर्वसहमति बनाने की जिम्मेदारी दी गई। 2 सितम्बर 1949 को संविधानसभा के कांग्रेस सदस्यों की बैठक हुई जिसमें मुंशी- आयंगार फार्मूला प्रस्तुत किया गया। पर सभा में सहमति नहीं बन पाई,वोटिंग हुई और 77-77 से मामला टाई पर अटक गया। अतः कांग्रेस के सदस्यों को संविधान सभा में अपने विवेकानुसार मतदान की छूट दी गई।
          12 सितंबर 1949 को भाषा के प्रश्न पर विचार करने के लिए संविधानसभा की बैठक हुई। सभा के अध्यक्षता के तौर पर डा राजेन्द्र प्रसाद ने सभी से संयम बरतने और किसी को आहत न करने की अपील की। सभा में हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाए जाने के पक्ष में आम सहमति बन गई। मुंशी- आयंगार फार्मूले के अनुसार निम्नलिखित प्रस्ताव रखा गया- हम इस बात के पक्ष में हैं कि भारत के संविधान में व्यवस्था की जाए कि राजभाषा और राजभाषा की लिपि क्रमशः हिन्दी और देवनागरी होंगी। हिन्दी को एकदम अपनाने में व्यावहारिक कठिनाइयों को देखते हुए अंग्रेजी का प्रयोग अगले 15 वर्षों तक जारी रखने की बात कही गई। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि अंकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप का प्रयोग किया जाए। पर अंकों की लिपि और अंग्रेजी को जारी रहने के लिए कितना समय दिया जाए इस पर सहमति नहीं बन पाई क्योंकि सेठ गोविन्ददास ने इन प्रावधानों का कड़ा विरोध किया। तीन दिनों तक बहस चलती रही पर समझौते का रास्ता नहीं निकल पा रहा था। 14 सितम्बर 1949 को 1 बजे अप. सभा 5 बजे अप. तक के लिए एडजार्न कर दी गई। 3 बजे अप. संविधानसभा के कांग्रेस सदस्यों की बैठक रखी गईं। इस बैठक में सायं 5 बजे के ठीक पहले आम सहमति बन गई। सायं 5 बजे जब संविधानसभा की पुनः बैठक आरंभ हुई तो अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद को इसकी सूचना दे दी गईं।
          सायं 6 बजे डा के एम मुंशी ने एक प्रस्ताव रखा जिसमें सेठ गोविन्ददास और उनके समर्थकों की आपत्तियों को समायोजित करने का प्रयास किया गया। तद्नुसार यह भी जोड़ा गया कि लोकसभा 15 वर्षों के बाद देवनागरी अंकों के प्रयोग को विधि द्वारा अधिकृत कर सकती है। राष्ट्रपति की अनुमति से क्षेत्रीय और उच्च न्यायालयों में हिन्दी तथा क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग किया जा सकेगा । बिल आदि के लिए राज्य अपनी भाषा का प्रयोग कर सकेंगे और साथ ही संविधान के आठवें अनुच्छेद में संस्कृत को जोड़ा गया। संविधान सभा ने इस प्रस्ताव को पारित कर दिया। सभा के अध्यक्ष डा राजेन्द्र प्रसाद ने सभी को बधाई देते हुए कहा- आज यह पहली बार हो रहा है कि हमारा अपना एक संविधान है, अपने संविधान में हम एक भाषा का उपबंध कर रहे हैं जो संघ के प्रशासन की भाषा होगी।
           एक वोट से हिन्दी के राजभाषा बनने की जो बात कही जाती है उसके मूल में अंकों के स्वरूप पर हुआ मतदान है जिसमें हिन्दी स्वरूप 1 मत से विजयी रहा था। डा सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, डा अम्बेडकर तथा सेठ गोविन्ददास ने भी 1 वोट से हिन्दी के राजभाषा बनने की बात कही है ।इस बारे में सुधाकर द्विवेदी जो राजभाषा विभाग के संस्थापकों में हैं ,का कथन द्रष्टव्य है-The above gentlemen obviously refer to the voting that had taken place on 26 August 1949 on the question of numerals. The question of official language had been settled in July 1947 itself when there was overwhelming support for adopting Hindi as the Official Ianguage of the Union.(संदर्भ- सुधाकर द्विवेदी: हिन्दी आन ट्रायल, पृ 23) ग्रैनविल आस्टिन ने लिखा है- "Ambedkar and Govind Das have confused the facts or have interpreted the one vote majority for Nagari Numerals, if such there was,as victory for Hindi"(संदर्भ- ग्रैनविल आस्टिन: दि इंडियन कानस्टीट्यूशन, कार्नर स्टोन आफ ए नेशन,पृ 300)

मंगलवार, 8 मार्च 2016

~ वामपंथी मित्रों के साथ राष्ट्रवाद पर बहस ~

~ वामपंथी मित्रों के साथ राष्ट्रवाद पर बहस ~

रघुवंशमणि : "जिभकट्टू राष्ट्रवाद" - इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम मैंने किया है।देश की वर्तमान स्थिति को देखते हुए लगता है इस शब्द का प्रयोग भविष्य में बहुत अधिक होना है । इसलिए मैं इस शब्द को पेटेंट करा लेना चाहता हूँ।भाषाशास्त्री यदि भविष्य में इस शब्द पर चर्चा करें तो इस बात का जिक्र अवश्य करें कि इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम रघुवंशमणि ने 7-3-2016 को किया था।इस शब्द का प्रयोग कोई भी कर सकता है। मुझे इस पर कोई आपत्ति नहीं। यदि राजनीति विज्ञान के विद्वान इस पर कार्य करेंगे तो मुझे विशेष प्रसन्नता होगी।

स्वप्निल श्रीवास्तव : यह कट्टर के आगे का शब्द है । कुछ हिंसक जैसा भाव है।

दिनेश चौधरी ः गलकटराष्ट्रवाद का पेटेंट मेरे नाम करें।

डा राधेश्याम सिंह : हलकट राष्ट्रवाद बनाम गलकट राष्ट्रवाद

मेरी टिप्पणी- डा राधेश्याम सिंह ने हलकट शब्द का प्रयोग किया है तो संभवतः उन्हें यह जानकारी भी हो कि मराठी में इसे abusive term समझा जाता है और मुंबई में इस शब्द का प्रयोग गाली देने के लिए किया जाता है!

रघुवंशजी : हलकट का शाब्दिक अर्थ क्या है? "हलकट जवानी" जैसा कोई गीत है जो खुले आम बजता है।

मेरी टिप्पणी- फिल्मों में तो बहुत कुछ हो रहा है । भाग डी के बोस डी के...... जैसे गाने भी बन चुके हैं । एक जमाना ऐसा भी आएगा, मैंने सोचा नहीं था। बहरहाल मुझे लगता है कि राष्ट्रवाद मजाक का विषय नहीं होना चाहिए, न ही इसका ठेका किसी पार्टी या संगठन विशेष के पास होना चाहिए। वे वामपंथी भी राष्ट्रवादी ही थे जिन्होंने राष्ट्रवाद के लिए फांसी के फंदे को चूमा- भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव। वो जिसने जनेऊ नहीं छोड़ा था पर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का सेनापति था। सुभाषचंद्र बोस भी वामपंथी थे भले ही अपने राष्ट्रवाद के कारण उन्होंने धुरी राष्ट्रों से मदद लेने में संकोच नहीं दिया। वामपंथ और राष्ट्रवाद का आपस में कोई विरोध नहीं है। दिग्भ्रमित नक्सली वामपंथियों का भले राष्ट्रवाद से विरोध हो।मैं नहीं समझ पाता हूँ कि क्यों दोनों को एक दूसरे के विरोध में खड़ा किया जा रहा है। भले ही मार्क्स ने सार्वभौमिक साम्यवाद को सिद्धांतत: प्रतिपादित किया हो; लेनिन, स्टालिन, माओ और चाऊ एन लाई से लेकर डेंग शियाओ पेंग और फिडेल कास्ट्रो तक सभी राष्ट्रवादी थे।

जनविजय- जिस देश में डेढ़ सौ से ज़्यादा राष्ट्रीयताओं के लोग रहते हों, वहाँ राष्ट्रवाद की बात करना बेवकूफ़ी है। भूमण्डलीकरण के इस ज़माने में तो जापानी और जर्मन राष्ट्रवाद भी ख़त्म हो रहे हैं।

मेरी टिप्पणी- संभव है जन विजय जी कि मैं मूर्ख होऊँ। पर मेरा विचार है कि निश्चय ही जिस देश में विभिन्न राष्ट्रीयताओं के लोग रहते हों वहाँ उन्हें आपस में जोड़ने के लिए कुछ चाहिए और यह भारतीयता है जो हम सबको जोड़ती है।यदि आप 130 करोड़ भारतीयों के हित की बात सोचते हैं तो मेरी नजर में यही राष्ट्रवाद है और आप राष्ट्रवादी हैं। मैं किसी पार्टी या संगठन के आइने के अनुसार राष्ट्रवाद को नहीं देखता हूँ।यदि आप विभिन्न राष्ट्रीयताएं जिन्हें आपने इंगित किया है,के बीच जुड़ाव नहीं चाहते हैं तो बात दूसरी है । मुंबई में मेरे एक मित्र एस पी चक्रवर्ती हैं जो ट्रेड यूनियन लीटर और die-hard communist हैं । सोवियत रूस के विघटन के बाद मेरी उनसे उसी तर्ज पर विभिन्न राष्ट्रीयताओं वाला देश होने के कारण भारत के विघटन की संभावना के बारे में चर्चा हुई। चक्रवर्ती जी ने मेरी बात का पुरजोर विरोध किया और परिचर्चा के दौरान बहुत उत्तेजित हो गए। एस पी चक्रवर्ती जी ने सोवियत रूस के विघटन की परिस्थितियों से भारत की परिस्थितियों को भिन्न बताते हुए और उन तत्वों को इंगित करते हुए जिन्होंने भारत को जोड़ रखा है, ऐसी किसी भी संभावना को खारिज किया । 

जहाँ तक भूमण्डलीकरण की बात है यदि वह उस सीमा तक वास्तविकता बन गई है कि राष्ट्रीयता गौण हो गई है तो विभिन्न देशों को borderless हो जाना चाहिए, विभिन्न देशों की सीमाओं पर सेना नहीं होनी चाहिए, दुनिया में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, वीजा-पासपोर्ट की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो ग्लोबलाइजेशन की सारी बातों के बावजूद राष्ट्र और राष्ट्रीयता एक वास्तविकता है तथा अपने राष्ट्र के हित की बात सोचना राष्ट्रवाद है। ग्लोबलाइजेशन के नाम पर संपन्न राष्ट्र अपने लिए बड़ा बाजार चाहते हैं पर कुछ देने को तैयार नहीं हैं। मात्र संचार संबन्धी उपलब्धता को या कुछ अंतर्राष्ट्रीय सहयोग कार्यक्रमों को ग्लोबलाइजेशन कहना कहाँ तक समुचित है यह विचारणीय है। जापान में यदि राष्ट्रवाद समाप्त हो रहा है तो जापान अमेरिका और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर प्रशान्त महासागर और चाइना-सी की निगरानी की योजना क्यों बना रहा है और उसमें भारत को भी शामिल करने का प्रयास क्यों कर रहा है(भारत ने इससे इनकार कर दिया है), पुनश्च जापान अपना रक्षा बजट क्यों बढ़ा रहा है?जर्मनी में यदि राष्ट्रवाद समाप्त हो गया है तो जर्मनी में सीरिया से आने वाले शरणार्थियों की संख्या नियंत्रित करने और उन्हें जर्मन संस्कृति से परिचित कराने की बात क्यों हो रही है? आदर्श और वास्तविकताएं अलग-अलग हैं। राष्ट्रवाद एक उत्कृष्ट भावना है जिसे राजनैतिक मुद्दा बनाने का कुछ लोग अवसर ढूँढ रहे थे और इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं उन्हें यह अवसर प्रदान कर रही हैं।

डा राधेश्याम सिंह : ए हलकट भी हलक काट का मुखसुख संक्षेपीकरण लगता है।मेरा अभिप्राय दोनों ही पक्ष के संशुद्धतावादी राष्ट्रवादियों का निषेध करना था।आशा है संजय जी और रघुवंश जी ने मेरे दुख को समझा होगा।

रघुवंशजी : संजयजी कुछ ज्यादा ही अकादमिक हैं। लेकिन हलकट का मराठी अर्थ साफ़ नहीं हुआ।

मेरी टिप्पणी : रघुवंशजी हर चीज का शाब्दिक अर्थ खुले मंच पर लिखने लायक नहीं होता। बहरहाल अगर कोई तमाशा देखना चाहे तो मुंबई में किसी मराठीभाषी के आगे यह शब्द उच्चारित कर दे और फिर तमाशा देखे। डा राधेश्याम सिंह की व्याख्या से स्पष्ट हुआ कि उन्हें भी इसका अर्थ ज्ञात नहीं है। मुझे लगा था कि हो सकता है कि वे मराठी से परिचित हों या मुंबई में रहे हों और अर्थ जानते हों।

रघुवंशजी : राष्ट्रवाद कोई पवित्र चीज नहीं जिस पर बहस न की जाए। हिटलर के दौर में भी एक राष्ट्रवाद था और मुसोलिनी के समय में  भी। भारत में आज राष्ट्रवाद का उपयेग अपने विरोधियों से निपटने के लिए किया जा रहा है। ऐसे में इस प्रकार के राष्ट्रवाद की आलोचना करना जरूरी हो गया है।

मेरी टिप्पणी : पवित्र वस्तु भी आलोचना के दायरे से बाहर नहीं कही जा सकती।पर कोई भी आलोचना सोद्देश्य होनी चाहिए महज राजनैतिक विरोध के लिए नहीं। राष्ट्रवाद एक अवधारणा है। यह अवधारणा क्या हो कैसी हो यह विवेचन का विषय हो सकता है। यह अवधारणा ही न हो यह भी विवेचन का विषय हो सकता है। पर मुझे लगता है कि आपका उद्देश्य इस अवधारणा का दुरुपयोग करने वालों को कटघरे में खड़ा करना है। ऐसे में जब आप राष्ट्रवाद की आलोचना करने में लग जाते हैं तो अपने मूल उद्देश्य से भटक जाने की संभावना है। फिर आप राष्ट्रवाद के नाम पर आज तक जो भी हुआ है यहाँ तक कि हमारी स्वतंत्रता की पूरी लड़ाई पर भी प्रश्न खड़ा कर रहे हैं। आप उन पर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं जिन्होंने राजनैतिक दलों और श्रमिक संगठनों के साथ राष्ट्रीय शब्द लगा रखा है क्योंकि वह भी राष्ट्रवाद को ही द्योतित करता है। उन समस्त पूर्ववर्ती महापुरुषों पर भी सवाल खड़ा कर रहे हैं जिन्होंने राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की बात की। पर नि:संदेह प्रश्न आप किसी पर भी खड़ा कर सकते हैं और उसका आपको अधिकार है । पर आपको यह भी बताना चाहिए कि कुछ लोगों या संगठनों के कारण आप पहले की राष्ट्रवाद संबन्धी पूरी धरोहर को क्यों खारिज कर देना चाहते हैं।


रविवार, 6 मार्च 2016

Speech of Kanhaiya Kumar after his bail - Revisited.

~ Speech of Kanhaiya Kumar after his bail - Revisited ~

                             A
"Is it wrong to ask for azadi from the problems that are existing in the country? Brothers, it's not from India, but it's in India that we are seeking Azadi . And there is difference between 'from ' and 'in'. The Azadi we are asking for is from starvation and poverty, from exploitation and torment; for the rights of Dalits, tribals,minorities and women. And the azadi we will ensure through this very constitution, Parliament and judiciary.This was Baba Saheb's dream,and this is Comrade Rohith's (Vemula) dream."- Kanhaiya Kumar as quoted by TOI

My comment: Brother, certainly it is not wrong to ask for azadi from the problems that are existing in the country ! But it is wrong if you camouflage aspirations of those who want azadi from India as azadi from problems existing in the country. It is wrong when you provide a platform to the separatists or let them hijack your platform for their purposes and provide a respectability to their cause from the Sanctum Santorum of a respected institution like J N U. For that you should accept responsibility. Gandhiji stopped non-cooperation movement after Chaurichaura happened.

        You are quoting Baba Saheb but forget that he was firmly opposed to separatist politics. When you quote Baba Saheb and Rohith Vemula along with, YOU forget that Baba Saheb was a great fighter who never surrendered before adversities.He fought all the odds and made a place for himself or rather you can say, snatched the place for himself. Despite of all the problems he faced in life due to caste barrier, he did not have any grudge towards anyone. When he was entrusted with the responsibility of Drafting Constitution, he gave his best to the country. Rohith can not be placed on the same pedestal. Fighter in him surrendered before adversities. When I'm writing this piece, I know the risks involved and ready to face consequences. If any adversity is presented before me I would fight and not surrender. So when Rohith championed a cause, he should have fought and not surrendered. 

          When you say you have full faith in constitution and stand by the preamble please don't quote those as your ideals who espoused or espouse cause of separatists. I believe you on your words and also that you don't support the separatist cause and also that your programme was hijacked by separatists. If any democratic element is ready to give any leverage to separatists, separatists  are ready to use him as a pawn in their game under the garb of democracy.

          There are crores of Dalits in this country who love this country despite of all their problems.They don't support dismemberment of this country and would never ally with separatists.Baba Saheb is their ideal but certainly no person having sympathy for separatists can be their ideal.

                              B
"When I was in jail, I got two bowls - one was blue coloured, and the other red.I was looking at those bowls and thinking- I don't believe in fate,neither I do have faith in God.But a red bowl and a blue bowl on the same plate means something good is going to happen in the country. That plate looked like India to me; the blue bowl the Ambedkar movement and the red bowl the left movement. I felt that if the two movements unite.....we will form a government that ensures justice for all. We will establish. 'sabka sath sabka vikas' in the real sense" (Kanhaiya Kumar as quoted in TOI)

My comment: So ultimately left has got its own social engineer. So far every party has been trying social engineering as an easy way of getting votes in hordes. But communists had not tried this so for.They talked of poors and classes. Now Kanhaiya Kumar sees left as such a big movement that by making Dalits only ride the band wagon of left he would be able to see the left through the elections and even be able to form a Govt. Here he seems too much optimistic to me and it also seems that the optimism has made him myopic. First of all left needs to be taken to the level that by having only Dalits on its side it is able to get majority. Seeing left's downward slide in the last decade it seems improbable. Secondly getting Dalits on the communist bandwagon is not that much easy. They already have their political affiliations and not going to leave it in favour of someone only because he says Rohith Vemula is his ideal. The way Kanhaiya Kumar talks of social engineering, to me he seems like other politicians and not different from them. Moresover, for this he is ready to dump class theory of communism and folllow in Lohiya's shoe steps ,so he doesn't seems committed to communist ideology either. So I don't see as much promise in him , as much is being seen by the media.

                                 C
"Afzal Guru. ......was punished as per the law of land and the same law permits citizens to discuss that punishment. (Kanhaiya Kumar as quoted in TOI)"

मेरी टिप्पणी: भइया बाएं हाथ से दायां कान पकडने की कोशिश क्यों कर रहे हो? सीधे-सीधे दाएं हाथ से दायां कान पकड़ो न!

शनिवार, 5 मार्च 2016

~ लोकतांत्रिक पूँजीवाद बनाम साम्यवादी अधिनायकवाद ~

~लोकतांत्रिक पूँजीवाद बनाम साम्यवादी अधिनायकवाद~

         लोकतांत्रिक पूँजीवाद में कम से कम वस्तुओं की शेल्फ लाइफ कम होने के कारण नए-नए नायक लांच होते रहते हैं । इस प्रकार इसमें नए प्रयोगों के लिए स्थान है।

         पर साम्यवादी व्यवस्था में तो एक बार नायक जम जाए तो उसके मरने या बीमार पड़ कर अशक्त हो जाने तक या किसी षडयंत्र के सफल हो जाने तक दूसरे नायक के लिए कोई स्थान नहीं रहता था । चीन ने इस साम्यवादी परंपरा को तोड़ा है परंतु यहीं यह भी ध्यान देने योग्य है कि उसने पूँजीवाद के बहुत से तत्व अपना लिए हैं। 

        लोकतांत्रिक पूँजीवाद कम से कम हर नायक को कुछ दिनों के बाद उसकी औकात बता देता है और उसे वास्तविकता के धरातल पर उतार देता है। 

        विशुद्ध पूँजीवाद और विशुद्ध साम्यवाद दोनों ही व्यवस्थाएँ मानव के हित में नहीं हैं । यदि पूँजीवाद के साथ साम्यवाद के मूल में जो जन चिन्तन है वह समाहित हो जाए(और यह जनचिन्तन साम्यवाद के अंतर्गत स्थापित होने वाले अधिनायक तंत्र में तिरोहित हो जाता है क्योंकि अधिनायकवाद भले ही वह पूँजीवादी हो या साम्यवादी, अंततोगत्वा स्वहितवाद में तब्दील हो जाता है) तो वह मानव के लिए हितकारी होगा। 

       बिल गेट्स जिन्होंने पूँजीवादी व्यवस्था में पैसा कमाया और फिर अपनी कुल सम्पत्ति का लोकहित के लिए दान कर दिया है स्टालिन, माओ, चाऊ-एन-लाई, ख्रुश्चेव, ब्रेझनेव और फिडेल कास्ट्रो जैसे साम्यवादियों से लाख बेहतर हैं। डेग-शियाओ-पेंग को मैं इन साम्यवादी नेताओं की सूची में नहीं रख रहा हूँ क्योंकि वह साम्यवादी की खाल ओढे हुए पूँजीवादी थे।

सोमवार, 29 फ़रवरी 2016

छूटा हुआ सामान आपको पकडाती है (गजल)

छूटा हुआ सामान आपको पकडाती है
'सर, टेक केयर प्लीज' कह वो मुस्कुराती है।

पापी पेट के लिए वो अपना आराम छोड़
 दिन तो कभी रात यह ड्यूटी बजाती है।

किसी की माँ,बहन- बेटी या पत्नी है
 पर उन्हें सोता छोड़ भी चली आती है।

लड़की जो विशेष वेशभूषा में सजी हुई है
आपको देख भोर चार बजे मुस्कुराती है।

सच्ची-झूठी-बनावटी एयरपोर्ट पर
कई तरह की मुस्कराहटें नजर आती हैं।

कभी-कभी ही नजर आती है 'संजय'
वो मुस्कराहट जो दिल को पकड़ पाती है।


रविवार, 28 फ़रवरी 2016

  मैं हिन्दुस्तान हूँ..........! ( भारत की व्यथा)

          मैं हिन्दुस्तान हूँ। हाँ वही जिसे विदेशी और खुद को ज्यादा पढ़ा- लिखा समझने वाले इंडिया कहते हैं और जिसे पंडितों द्वारा उच्चारित 'जम्बूद्वीपे भरतखण्डे....' से निकालकर सन 1947 में भारत नाम दे दिया गया क्योंकि कभी हस्तिनापुर नरेश के रूप में किसी भरत नामक प्रतापी राजा ने राज्य किया था। मैं बहुत बूढ़ा हूँ, शायद दुनिया के सबसे बूढ़े मुल्कों में से एक हूँ!

          एक जमाना था जब ढाई-तीन हजार साल पहले मेरे बच्चे शास्त्रार्थ किया करते थे और तब किसी निष्कर्ष पर पहुँचा करते थे। हर कोई अपनी राय रखने के लिए स्वतंत्र था। शास्त्रार्थ में हार जाने के बाद लोग विजयी व्यक्ति की बात मान लेते थे, यहाँ तक कि अपना मत छोड़ विजयी के मतानुयाई बन जाया करते था। मेरे एक महान सुपुत्र बुद्ध को इसी तरह अपने आरंभिक अनुयाई मिले थे जो बौद्ध बन गए पर ब्राह्मण थे और पहले ब्राह्मण धर्म के अनुयाई थे। तब विभिन्न मत-मतांतरों के अनुयाइयों के बीच कोई दुराव नहीं था, हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं था।

          जो सुविख्यात हो वह तमाम लोगों की नजरों में चढ़ जाता है । मेरे साथ भी यही हुआ । सिकंदर पहला विदेशी था जिसकी नजर मेरे ऊपर पडी और आखिर एक दिन वह मेरे दरवाजे पर आ ही गया। पर वह बहादुरों और विद्वानों का कद्रदान था। बेचारा यहीं एक युद्ध में घायल हो गया और कुछ समय बाद अपने थके-हारे सैनिकों के दबाव में आकर लौट गया पर घर नहीं पहुँच पाया, चोट उसके लिए जानलेवा साबित हुई। वह अपने कुछ राज्य यहाँ बना गया था। पर उसके देश के लोगों ने बाद में मेरे यहाँ प्रचलित धर्म ही अपना लिए और पूरी तरह मेरे अपने बन गए। इस दौरान बहादुर चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने गुरू चाणक्य के साथ मिलकर मेरी यशोवृद्धि की। उसका पोता अशोक, गौतम बुद्ध का अनुयाई बन चण्डाशोक से धम्माशोक बन गया और मेरी प्रतिष्ठा उसने तत्कालीन विश्व में चतुर्दिक फैला दी। वैसी प्रतिष्ठा आगे चलकर गुप्त सम्राटों के समय भी मुझे न मिल सकी, भले ही उनके समय मेरी समृद्धि शिखर पर पहुँच गई और उनके युग को मेरा स्वर्णयुग कहा जाने लगा ।

          मेरी समृद्धि से ललच कर हूण ,शक,और कुषाण भी विदेशों से आए। वह कभी जीते, कभी हारे। उन्होंने अपने राज्य भी बना लिए । पर अंत में पूरी तरह भारतीय बन गए और मेरे रंग में रंग गए। कुषाण कनिष्क ने तो बौद्ध धर्म अपना लिया और मेरी प्रतिष्ठा में अपार वृद्धि की।

          पर इस सबके दौरान मेरे बच्चों में एक प्रकार की संतुष्टि का भाव भर गया जिसके कारण उनकी पिपासाएं मर गईं और इसका परिणाम हुआ कि उन्नति शिथिल पड़ गई और अंत में प्रगति बंद हो गई।

          ऐसे ही समय में पश्चिम से एक बार फिर हमले शुरू हुए। यह हमला करने वाले एक नए धर्म इस्लाम के अनुयाई थे। यह अपने धर्म और राज्य को फैलाने के लिए अपार उत्साह से भरे हुए था। शुरू में इन्हें आशातीत सफलता नहीं मिली, यह आए और हमले कर लौट भी गए। बाद में इन हमलों का उद्देश्य बुतशिकन का खिताब हासिल करने के अलावा लूटपाट करना हो गया।

          मुस्लिम आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी के साथ  आया कुतुबुद्दीन ऐबक  गुलाम वंश का पहला शासक था जिसने यहीं बस जाने का निर्णय किया। इसके साथ ही भारत में बड़े पैमाने पर इस्लाम का आगमन हुआ। हिन्दू और मुस्लिम धर्म आमने- सामने खड़े हो गए जिसमें प्रगतिविहीन हुआ हिंदू धर्म, मुस्लिम आक्रंताओं के सामने टिक न सका। पर एक बात यह हुई कि इस्लाम की आँधी हिन्दुस्तान में थम कर रह गई, वह इसके रास्ते और पूरब में न बढ़ सकी। इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म में जहाँ एक ओर प्रतिस्पर्धा हुई वहीं दोनों धर्मों ने एक- दूसरे से बहुत कुछ ग्रहण भी किया। हिन्दुस्तान में इस्लाम की एक धारा सूफियत खूब फली-फैली जिसमें इस्लाम का वह चेहरा नजर आया जहाँ हिन्दू धर्म के भक्तिवाद के तत्व और रहस्यवाद कंधे से कंधा मिलाए नजर आते हैं ।

          आगे चलकर मेरे बेटे अकबर ने जिसकी सोच अपने वक्त से आगे की थी,हिन्दुत्व और इस्लाम के बीच की दीवार तोड़ने की कोशिश की। सुलह कुल की नीति प्रतिपादित की और एक नया धर्म दीने- इलाही तक चला डाला। उसका नया धर्म तो नहीं चला पर मेरी ख्याति की लहरें मौर्य और गुप्त युग की तरह एक बार फिर विदेशी समुद्रतटों से जाकर टकराने लगीं और मेरी गिनती विश्व के महानतम और समृद्धतम राष्ट्र के रूप में होने लगी। मैं अपने भाग्य पर इठलाने लगा।

          पर अकबर के परपोते औरंगजेब ने इस्लाम की श्रेष्ठता में यकीन करते हुए अकबर की नीतियों को उलट दिया और यहीं से मुगल साम्राज्य की उल्टी गिनती शुरू हो गई। औरंगजेब ने इतने सारे मोर्चे खोल दिए कि वह तो इनका भार संभाल सका पर उसकी आने वाली पीढ़ियाँ इसमें अक्षम सिद्ध हुईं। अन्य कोई भारतीय शक्ति भी उनका स्थान नहीं ले पाईं। नतीजा वही हुआ जो होना चाहिए था । कुछ विदेशी चालाक गौरांग व्यापारियों ने एक-एक कर सारी भारतीय शक्तियों को हराया और इस प्रकार मुझे उनका और बाद में उनकी महारानी का गुलाम बनना पड़ा ।

          मेरे कुछ बच्चों ने बहुत संघर्ष किया। विदेशी शक्ति ने मुझे गुलाम बनाए रखने के लिए सारे हथकण्डे अपनाए। मजहब की दीवार लोगों के बीच खड़ी करने की कोशिश की। पर मेरे बच्चों ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया । हर तरह की कुर्बानी दी। विदेशी शक्ति के हर तरह के जुल्म सहे। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया और आखिरकार मैं आजाद हुआ। पर कुर्बानी मुझे भी देनी पड़ी। मजहब के नाम पर मेरा अंग-भंग कर दिया गया। उस समय मेरे दो टुकड़े कर दिए गए जिनके आज तीन टुकडे हो गए हैं।

          पर इस सबके बीच भी मैं मजबूती से चट्टान की तरह खड़ा रहा । मुझे चोटें लगीं पर मेरा भाल उन्नत रहा । मेरी आत्मा अक्षुण्ण रही । खंडित कर दिए जाने के बावजूद 1947 में मैं, जो शायद इस दुनिया के सबसे बूढ़े राष्ट्रों में एक हूँ, खुद को एक बार फिर जवान महसूस करने लगा क्योंकि मुझे अपने बच्चों पर नाज था। उन पर मुझे विश्वास था कि वे मुझे एक नया हिन्दुस्तान बना देंगे जो चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक महान, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और अकबर महान के समय जैसा समृद्धशाली, गौरवान्वित और विश्व का समुन्नत राष्ट्र होगा।

          पर आज मेरे कुछ बच्चे जो कर रहे हैं उसने मेरा दिल तोड़ दिया है। अगर किसी बूढ़े बाप के अपने बच्चे उसकी बर्बादी तक जंग जारी रखने का ऐलान कर दें तो उसकी आत्मा जर्जर नहीं होगी? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उसके टुकड़े करने का ऐलान करें तो क्या उसकी स्थिति जीवित मरे के समान नहीं होगी ? अगर किसी बाप के अपने बच्चे उस पर हमला करने वाले की याद में सालाना जलसा करेंगे तो क्या उसका दिल उसे नहीं कचोटेगा। जम्हूरियत के तले झंडा उठाने वाले लोग जब जम्हूरियत पर हमला करने वालों की तरफदारी करते हैं और इसे उनका बोलने का हक बता कर उसकी वकालत करते हैं तो मेरी आत्मा को जो चोट लगती है वह शायद इसके पहले कभी नहीं लगी।


          जैसा कि मैंने आरंभ में कहा है आपस में शास्त्रार्थ कर लो और एक नतीजे पर पहुँच जाओ,बिना किसी हिंसा के । अपनी बात कहो और दूसरे को भी कहने का हक दो, उसकी भी सुनो। यह आज की संसदीय परंपरा ही नहीं है बल्कि जैसाकि मैं कह चुका हूँ, मेरे बच्चे ढाई-तीन हजार साल पहले से इस पथ पर चलते आ रहे हैं। 

          जहाँ तक मुझे खंडित करने की बात है, तमाम लोगों की ऐसी तमाम कोशिशों के बावजूद मैं दुनिया का सबसे बूढ़ा राष्ट्र, आज भी जिंदा हूँ और आगे भी रहूँगा। चंद सिरफिरे नारेबाजी कर मुझे तोड़ नहीं सकते। अगर नारों से ये दुनिया चलती होती तो तो पता नहीं क्या-क्या हो चुका होगा। जम्हूरियत के झंडाबरदारों (चुनाव में हारे और जीते दोनों पक्ष) इस मुल्क के लोगों की तरक्की का बीड़ा तुमने उठाया है तो चंद गुमराह लोगों के पीछे वक्त न जाया कर अपने इस ज़िम्मेवारी को पूरा करो ताकि इस देश के वे लोग जिनकी जिंदगी में अँधेरा है, उजाले के दर्शन कर सकें। 

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2016

~ मेघदूत से मुलाकात (व्यंग्य) ~      

              ~ मेघदूत से मुलाकात ~
        वायुयान अपनी संपूर्ण गति से अग्रसर था। दूर कहीं क्षितिज का अहसास भर हो रहा था गोया कि वह वायुमंडल के अथाह सागर में नीचे कहीं था जहाँ से उसका दिखना दुर्लभ था । क्षितिज के ऊपर बादलों ने जैसे एक दीवार बना रखी थी जो वायुयान की खिड़की से दूरस्थ नजर आ रही थी । नीचे भूमि चौकोर, आयताकार, वर्गाकार हरे, भूरे और खाकी टुकड़ों में नजर आ रही थी। मैंने अंदाज लगाया कि जो हरे टुकड़े दिख रहे हैं वे खड़ी फसल के हैं जो अभी पकी नहीं है, भूरे और कत्थई टुकड़े पक चुकी फसल के हैं। खाकी टुकड़े वे हैं जहाँ फसल कट चुकी है। इन आकृतियों के बीच- बीच कहीं चौड़ी, कहीं पतली और बारीक रेखाएँ जो कहीं सीधी तो कहीं टेढ़ी- मेेढ़ी थीं,आती- जाती हुई दिखाई दे रही थीं। यह शायद नदियाँ, नाले, सड़कें और पगडंडियाँ हैं जिन्हें ऊपर से पहचानना मुश्किल है, मैंने सोचा। बीच-बीच में कुछ छोटी-छोटी आकृतियाँ का समूह सा दिखता जो शायद इंसानी बस्तियाँ थीं।

       तभी मुझे खिड़की के पास बादल का एक टुकड़ा दिखाई दिया जो बड़ी जल्दी में कहीं जा रहा था। मैंने उससे बातचीत शुरू कर दी-
 "मेघ भाई इतनी शीघ्रता में कहाँ चल दिए? कौन सी विरहिणी  प्रियतमा ने तुम्हें अपने प्रिय के पास संदेश लेकर भेजा है?"

"तुम अभी भी कालिदास के जमाने में हो? मेघों से ये ड्यूटी कब की छिन चुकी है । अब मोबाइल है, एस एम एस है, व्हाट्स ऐप है, फेसबुक है जहाँ एक वर्चुअल दुनिया है और लोग वर्चुअल प्रेम तक कर डालते हैं। सो अब हमें कहीं कबाब में हड्डी बनने की जरूरत नहीं है।"

"मेघ जी वो फिल्मी गीत आपने सुना नहीं- बादल का टुकड़ा एक चला झूमते,चाँद भी छुप गया उसके आगोश में।। तो कहीं ऐसे ही किसी मिशन पर किसी के छुपने-छुपाने के चक्कर में तो आप नहीं निकल पड़े हैं?"

"ये फिल्म वाले हैं जो चाँद और बादल का प्रेम कराते फिरते हैं। ठंड के मौसम में तो मेढक-मेढकी भी नहीं पूछते हमें। फिर मियाँ इस समय तो दिन है रात नहीं। चाँद अभी कहाँ मिलेगा, सूरज के पास गए तो कंबख्त हमें सुखा ही डालेगा ! "

"तो फिर कहाँ निकल पडे ? क्या किसी गाँव के बाहर बरस कर किसी की पीड़ा को हरा-भरा करने वाले हो, बकौल किसी शायर के- रोज उठते हैं यहाँ झूम के बादल पर सब के सब गाँव के बाहर ही बरस जाते हैं।"

"देखो भइया, हमको जहाँ बरसना होता है बरस जाते हैं । बिना भेदभाव के बरसते हैं कोई किसी धर्म का हो,किसी जाति का हो,गरीब हो या अमीर हो सबको भिगोते हैं। गाँव-शहर का भेद नहीं करते । हमें किसी से वोट थोड़े लेना है कि शहर-गाँव देखें।"

"तो देख क्या रहे हो बरस जाओ, यूँ ही उडते रहोगे तो कोई विरहन गाने लगेगी- आखिर साजन मिले भी हमसे तो ऐसे मिले कि हाय, सूखे खेत से बादल जैसे बिन बरसे उड़ जाय"

"किसान की खड़ी फसल नीचे देख रहे हो। अगर बरस जाऊँ तो किसान के साथ- साथ तुम भी मुझे गाली दोगे।"

"तो फिर क्या दूर क्षितिजस्थ बादलों के समूह ने आपको देशनिकाला दे दिया है जो आप अकेले-अकेले चले जा रहे हो ?"

"देशनिकाला हो देश के दुश्मनों का , मुँह से जरा शुभ-शुभ बोला करो ! "

"अरे आप तो कोई संघी भाई लगते हो। देश के दुश्मनों के देशनिकाले की बात करते हो!"

"क्यों देशभक्ति और राष्ट्रवाद पर किसी की बपौती है क्या? इसके बारे में और कोई नहीं बोल सकता?"

"मेघ सर जी इसके बारे में बोलना अब पाप समझा जाने लगा है। आप को तुरंत प्रतिक्रियावादी ,संघी, भाजपाई बता दिया जाएगा। अब तो देश के टुकड़े करने की बात करना,अलगाववादियों के समर्थन में नारे लगाना ही प्रगतिशीलता है, ऐसा करने को मिले यही बोलने की आजादी है। इसके समर्थन में हमारे बडे-बड़े नेता भी सड़क पर उतर आए है"

"इसी का उपाय करने जा रहा हूँ"

"आप तो बड़े देशभक्त निकले मेघजी, पर आप इसका उपाय कैसे करोगे। "

" देखो हम क्या कर सकते हैं, बस बरस ही तो सकते हैं। दिल्ली- हरियाणे जा रहा हूँ, वहाँ का माहौल बड़ा गरम है। राहुल गर्म हैं, केजरीवाल गर्म हैं, लेफ्टिस्ट गर्म हैं, राइटिस्ट भी गर्म हैं , संघी-भाजपाई गर्म हैं, जाट भाई भी गर्म हैं। खूब जमकर बरसूँगा, लोगों को ठंडा करूँगा, उनके दिलो दिमाग में ठंडक लाऊँगा ताकि लोग ठंडे दिमाग से देश की तरक्की के बारे में सोचें । जैसे हम बिना भेदभाव के हर तबके पर बरसते हैं, वैसे ही राजनीति छोड़ देश के हर वर्ग की प्रगति की बात हमारे राजनीतिज्ञ सोचें।"

" दशरथ माँझी की तरह आपने बड़ा कठिन काम ठान लिया है मेघ जी। मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। बहुत दिनों के बाद वायुयान में विंडो सीट मिली थी । सो आपसे मुलाकात हो गई और आपने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए। खैर मेरे विमान में सुरक्षापेटी बाँधने का संकेत कर दिया गया है क्योंकि गंतव्य स्थल आने वाला है। दिल्ली यात्रा के लिए आपको शुभकामनाएँ । चलिए फिर कभी ऐसे ही आते- जाते मुलाकात हो जाएगी। फिलहाल विदा लेते हैं !"