~महाबलिपुरम में माला बेचने वाली वह बच्ची~
14 मई के दिन मैं अपने सुपुत्र प्रत्यूष के साथ महाबलिपुरम के तट पर घूमने और तटवर्ती पल्लवकालीन मंदिर देखने के बाद वापस लौट रहा था। गाड़ी के ड्राइवर श्री जयमोहनजी को फोन करने के बाद मैं उनकी प्रतीक्षा कर रहा था।इस दौरान आठ वर्ष की एक बालिका आकर मुझसे नकली मोतियों की माला खरीदने का आग्रह करने लगी। आरंभ में वह तमिल बोल रही थी जिसमें मैंने नूरss शब्द सुना जो मैं पहले भी सुन चुका था । इससे मुझे अंदाजा हुआ कि वह माला का मूल्य गिनती में बता रही है। मैंने अंग्रेजी में उससे कहा : 'I don't need it'. इस पर वह टूटी- फूटी अंग्रेजी बोलने का प्रयास करते हुए मुझसे माला खरीदने का आग्रह करने लगी। उसकी अंग्रेजी से मुझे मालूम हुआ कि माला twenty rupees की थी यानी कि नूरss का अर्थ 20 होता है मैंने निष्कर्ष निकाला ( बाद में मेरे एक मित्र ने बताया कि नूरss का अर्थ 100 होता है, संभवत: बच्ची मुझे 100 रूपए में पाँच मालाओं का प्रस्ताव दे रही थी)। बच्ची अपनी सेल्समैनशिप से मुझे तमिल का एक शब्द सिखा चुकी थी। मैं दोहराता रहा : 'I don't need it,' पर बच्ची अपना प्रयास जारी रखे हुए थी। प्रत्यूष ने मुझसे बच्ची को जाने के लिए कहने को और जयमोहनजी को जल्दी आने के लिए फोन करने के लिए कहा। बच्ची हम दोनों का हिन्दी में संवाद सुनकर टूटी-फूटी हिन्दी बोलने का प्रयास करने लगी।
मैंने जगह बदल दी पर बच्ची वहाँ तक चली आई। उसका कहने का कुछ भाव ऎसा था कि इसे खरीदकर आप एक गरीब बच्चे की मदद करेंगे। इस बीच जयमोहनजी आ गए थे और हम पिता-पुत्र गाड़ी की ओर उन्मुृख हो गए। बच्ची कुछ ऐसा कहने लगी कि क्या आप नहीं चाहते कि एक गरीब बच्चे का पेट भरे, उसकी मदद हो जाए। मैं बच्ची की सेल्समैनशिप का कायल हो चुका था पर समस्या यह थी कि माला की मुझे जरूरत नहीं थी। मैंने प्रत्यूष से बच्ची को दस रूपए देने के लिए कहा। मेरे बेटे ने पर्स निकाला और बच्ची आशा भरी निगाहें लिए खड़ी हो गई। प्रत्यूष ने दस रुपए बच्ची की तरफ बढ़ाए पर वह मुँह फेरकर बिना रुपए लिए जाने लगी । मैंने बच्ची को वापस बुलाया और प्रत्यूष को दस रुपए और निकालने के लिए कहा। प्रत्यूष ने बच्ची को बीस रुपए पकडाए। उसने मुझे माला पकडाई और उस माला को मैंने देश की एक गरीब बच्ची के धैर्यबल ,दृढता, अपनी बात से सहमत करने की क्षमता और बिना पढ़े या बिना किसी अच्छे विद्यालय में पढ़े मातृभाषा तमिल के अलावा टूटी-फूटी ही सही हिन्दी और अंग्रेजी बोलने की क्षमता की याद में सुरक्षित रख दिया है।
इस घटना ने बहुत पहले इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान अंग्रेजी की पाठ्यपुस्तक में पढ़े गए डब्ल्यू सी डगलस द्वारा लिखे पाठ ' ए गर्ल विद दि बास्केट' की याद ताजा कर दी। श्री डगलस भारत को आजादी मिलने के कुछ ही वर्षों के बाद भारत भ्रमण के लिए आए थे। वे नवोदित राष्ट्र की नब्ज पहचानने का प्रयास कर रहे थे। एक रेलवे स्टेशन पर पंजाबी शरणार्थियों के बच्चों ने उन्हें घेर लिया और बुनी हुई टोकरियाँ बेचने का प्रयास करने लगे। उन्होंने बच्चों की मदद करने की गरज से टोकरियाँ खरीदीं और उनके दोनों हाथ भर गए। एक छोटी लगभग सात वर्ष की बच्ची उनसे अपनी टोकरी लेने का आग्रह कर रही थी पर वे अब और टोकरियाँ लेने में स्वयं को असमर्थ पा रहे थे। उन्होंने बच्ची को कुछ पैसे देने चाहे पर उसने उन्हें लेने से इन्कार कर दिया। मजबूर होकर उन्होंने उसकी टोकरी खरीद ली। श्री डगलस को बच्ची ने भविष्य के भारत के एक प्रतिनिधि के रूप में बहुत प्रभावित किया और उन्हें लगा कि नवोदित राष्ट्र का भविष्य आसन्न समस्याओं एवं गरीबी के बावजूद उज्ज्वल है।
पर सवाल यह है कि आज जब देश की सारी प्रगति के बावजूद उस पंजाबी बच्ची की भूमिका लगभग पैंसठ वर्ष के बाद एक तमिल बच्ची द्वारा दोहराई जा रही है तो यह मानना कहाँ तक सच होगा कि आजादी के समय देश में जो आशाएं थीं वे पूरी तरह फलीभूत हो पाई हैं। कोलकाता में लोकल ट्रेनों में सफर करते समय मेरा साबका कई बार भीख माँगने वाले बच्चों से पड़ा है । मैं उस समय पसोपेश की स्थिति में पड़ जाता हूँ। एक बार तो यह लगता है कि भीख देने से यह बच्चे पूरे जीवन के लिए भिखारी बन जाएंगे और बच्चों से भीख मँगवाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी तरफ उन्हें देखकर हृदय में करुणा भी जगती है और यह लगता है कि उन्हें बिना कुछ दिए जाने देना उचित नहीं है। क्या हम समाज से बाल भिक्षावृत्ति और बाल श्रमिक की समस्या सारे कानून बना देने के बावजूद समाप्त नहीं कर पाएंगे?
पर सवाल यह है कि आज जब देश की सारी प्रगति के बावजूद उस पंजाबी बच्ची की भूमिका लगभग पैंसठ वर्ष के बाद एक तमिल बच्ची द्वारा दोहराई जा रही है तो यह मानना कहाँ तक सच होगा कि आजादी के समय देश में जो आशाएं थीं वे पूरी तरह फलीभूत हो पाई हैं। कोलकाता में लोकल ट्रेनों में सफर करते समय मेरा साबका कई बार भीख माँगने वाले बच्चों से पड़ा है । मैं उस समय पसोपेश की स्थिति में पड़ जाता हूँ। एक बार तो यह लगता है कि भीख देने से यह बच्चे पूरे जीवन के लिए भिखारी बन जाएंगे और बच्चों से भीख मँगवाने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। दूसरी तरफ उन्हें देखकर हृदय में करुणा भी जगती है और यह लगता है कि उन्हें बिना कुछ दिए जाने देना उचित नहीं है। क्या हम समाज से बाल भिक्षावृत्ति और बाल श्रमिक की समस्या सारे कानून बना देने के बावजूद समाप्त नहीं कर पाएंगे?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें