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सोमवार, 30 सितंबर 2013

मुंबई तुझे सलाम!

          आज जब विविध रिपोर्टें बताती हैं कि भ्रष्टाचार के  उपलब्ध सूचकांकों के अनुसार भारतवर्ष विश्व के भ्रष्टतम देशों  में से एक है,  तब इसी समय यह रिपोर्ट सुखद अहसास कराती है कि मुंबई दुनिया का दूसरा सबसे ईमानदार शहर  पाया गया है. विगत सप्ताह विश्व के सोलह शहरों  में लोगों की ईमानदारी परखने के लिए एक परीक्षण किया गया. इस परीक्षण के दौरान इन सोलह  शहरों में से प्रत्येक शहर में बारह स्थानों पर 50 डालर अथवा उसके बराबर स्थानीय मुद्रा में धनराशि एक बटुए में भरकर शॉपिंग माल,सडक के किनारे अथवा पार्क जैसे भीडभाड वाले स्थानों पर छोड दी गई. इनके साथ एक बिजनेस कार्ड,पारिवारिक फोटो और सेल फोन नं. भी रख दिए गए तथा इस बात  पर नजर रखी गई कि इन्हें पाने वाले कितने व्यक्ति  बटुए को लौटाने हेतु संपर्क करते हैं. हेलसिंकी में सबसे सबसे अधिक .-बारह में से ग्यारह लोगों ने बटुए लौटाए और इसके बाद मुंबई  का स्थान रहा जहाँ बारह में से नौ बटुए संबंधित व्यक्ति से संपर्क कर उसे लौटाए गए. इसके बाद बुडापेस्ट और  न्यूयॉर्क आठ बटुओं  के साथ तीसरे स्थान पर रहे, बर्लिन छ: बटुओं के साथ चौथे स्थान पर और  लंदन  एवं वारसा  पाँच बटुओं के साथ  पांचवे स्थान पर रहे . बुखारेस्ट,ज्यूरिच, रियो और प्राग चार बटुओं के साथ छठवें स्थान पर रहे. सबसे नीचे 1 बटुए के साथ लिस्बन रहा और उसके ऊपर  2 बटुओं के साथ मैड्रिड रहा.

          नौकरी शुरू करने पर  मेरी पहली तैनाती मुंबई के ही एक  उपनगर में हुई जिसने मुझे इस महानगर को जानने-समझने का मौका दिया.  बाहर से आए व्यक्ति को प्राय: आरंभ में मुंबई अपरिचित सी लगती है क्योंकि यहाँ का व्यक्ति समय नष्ट नहीं करना  चाहता और इस कारण वह किसी भी नए या अपरिचित व्यक्ति से अंतर्व्यवहार ( इंटरैक्शन) नहीं करना चाहता. उसके पास समयाभाव इतना रहता है कि वह परिचित  व्यक्ति को भी अधिक से अधिक हाय-बाय कह कर निकल जाता है. आरंभ में इस महानगर के लोगों के निरपेक्ष से दिखने वाले भाव और सुनने में वर्णसंकर सी लगने वाली हिंदी भाषा और साथ ही वर्णसंकर सी संस्कृति ने उत्तर प्रदेश के छोटे से नगर से आने वाले मुझको विरत सा किया.  पर जब आप किसी को समझ लेते हैं और उसके अंत: स्थल को देख पाते हैं तब वह आपको अपना लगने लगता है. मैं भी जैसे-जैसे  इस महानगर की आत्मा से परिचित होता गया, यह मुझे अपना लगने लगा. एक बार उत्तर प्रदेश से आए मेरे एक परिचित ने मुझसे कहा- यहाँ के लोग कितनी बेकार सी हिंदी बोलते हैं जिसे सुन कर गुस्सा आता है. मैंने उनसे कहा- जब आप रोज यह भाषा सुनेंगे और समझने लगेंगे तो आपको इसी में प्यार नजर आएगा. आरंभ में मुंबई के निरपेक्ष से दिखने वाले लोग बाद में आपके इतने अपने हो जाते हैं कि आपके भी किसी सुख - दुख में वे हिस्सा बाँटना  नहीं भूलते.

           मैं इस महानगर के लोगों की समयबद्धता(पंक्चुअलिटी) , व्यवसायपरकता (प्रोफेशनलिज्म) और नागरिक भाव(सिविक सेंस) से प्रभावित हुआ. यह गुण देश के शेष मेट्रो शहरों में उस  तरह नहीं मिलते जिस तरह मुंबई के लोगों में देखने में आते हैं.  मैंने लोकल ट्रेन में कई बार बच्चों  तक को अपना होमवर्क करते और यहाँ तक कि ड्राइंग और ज्यामिति बनाते हुए पाया है. कई बार कार्यालय जाने वाले आपको लोकल ट्रेन में ही अपना काम करते हुए मिलेंगे. नौकरीपेशा महिलाएं  लोकल में  ही सब्जी आदि काटते हुए और शाम के भोजन की तैयारी करती हुई दिखाई दे जाएंग़ी. घर छोटा सा ही सही पर सुव्य्वस्थित  होगा. समय और स्थान का सदुपयोग करना कोई मुंबई के लोगों से सीखे.  अनुशासन का आलम यह है कि चाहे आप आप बस पकडने के लिए जाएं अथवा शादी  या पार्टी में ;लोग  स्वत: कतार बना लेते हैं , भले ही भोजन लेना हो या फिर दूल्हा-दुल्हन से मिल कर उन्हें भेंट देनी हो.

          मुंबई कभी  रुकती नहीं क्योंकि मुंबई के लोगों ने सिर्फ चलना सीखा  है, वे कभी कभी थकते नहीं सिवाय उस स्थिति के जब भारी बरसात होने के कारण लोकल ट्रेनों के  ट्रैक में पानी भर जाए और इस कारण उनका आना-जाना रुक जाए . आतंकवादियों ने तमाम आतंकी वारदातें कर देश के इस  आर्थिक केंद्र की  आत्मा को चोटिल करने  की कोशिशें कीं  पर वे कभी  उसे घायल करने  में सफल नहीं हुए और यह इस महानगर की जीवटता ही है जिसने उन्हें कामयाब नहीं होने दिया. अपितु जब भी ऐसा हुआ अस्पतालों  के बाहर खून देने वालों की कतारें लग गईं  और मुंबई के  लोग अगले दिन बिना किसी बात की परवाह  किए हर दिन की तरह काम पर जाते हुए दिखाई दिए. मुंबई में स्त्री और पुरुष का दर्जा बराबर है. यहां कहीं पर भी पुरुष और  स्त्री की लाइन अलग-अलग नहीं लगती और  घर हो या बाहर, हर जगह महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे  से कंधा मिलाकर उनका हाथ बँटाती हैं.अगर मुंबई की तरह ही अनुशासन,समयबद्धता,व्यवसायपरकता, काम  के  प्रति निष्ठा,  नागरिक भाव तथा स्त्री-पुरुष में  समानता का भाव हमारे देश के  सभी  शहरों में आ जाए तो नि:संदेह हमारा देश तरक्की के अनेक पायदान चढ जाए.

  

शनिवार, 28 सितंबर 2013

ये खूब रही राजकुमार! (व्यंग्य/Satire)

          नीचे कुछ कल्पित स्थितियाँ और वार्तालाप दिए जा रहे हैं जो पूरी तरह काल्पनिक हैं और इनका उद्देश्य मात्र सहज हास्य है, सच्चाई से इनका कोई लेना-देना नहीं है. अगर इनमें से किसी काल्पनिक कथ्य  या चरित्र की किसी तथ्य या  व्यक्ति के साथ कोई साम्यता पाई जाती है तो वह महज इत्तफाक है जिसके लिए लेखक जिम्मेदार नहीं  है.

कुर्ता-पायजामा पहने एक  नौजवान कुछ कागजात फाड रहा  है और कह रहा है - बकवास है ,यह फाड कर कूडे की टोकरी में ही फेंकने के लायक है.तभी  उसकी माँ नैपथ्य से आती है.

माँ- आखिर मेरा राजकुमार जवान हो ही गया. दुनिया वालों अब जरा सँभलकर रहना.पर बेटा यह सब करने के पहले एक बार मुझसे पूछ तो लिया होता.

बेटा- माँ तुमने वह फिल्म नहीं देखी-अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है!

माँ-तो क्या तू पिंटो है.

बेटा- हाँ माँ आजकल मुझे गुस्सा ज्यादा ही आने लगा  है,तुम मुझे पिंटो ही कहा करो.

माँ-गुस्सा ज्यादा क्यों आने लगा है?

बेटा- यही अपनी सरकार की करतूतें देखकर.

माँ-पर सरकार तो अपनी है न बेटा.

बेटा-सो तो है माँ.

तभी मोबाइल की घंटी बजती है,माँ फोन उठाती हैं- "हलो!हलो!"

माँ-बेटा यू.एस.से फोन है, तनदोहनजी हैं,  ये लो.

बेटा- हाँ -हाँ बोलिए  तनदोहनजी!

तनदोहनजी- अरे राजकुमारजी,मैंने कहा था कि मैं आपके अधीनस्थ काम करने के लिए तैयार हूँ.पर आपने मेरी बात को  ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया.अभी से मेरी छीछा-लेदर शुरु कर दी ,अरे छ: महीना और इंतजार कर लेते.मैं फिर से अपनी बात दोहराता हूँ-  चुनावों के बाद आपका मातहत बनने को तैयार हूँ. ध्यान दीजिएगा-चुनावों के बाद.अभी तो बख्श दीजिए प्रभुवर!

बेटा- पर आप तो चुनावों तक वो नौबत ही नहीं बाकी रखेंगे  कि आपके लिए मेरा अधीनस्थ बनने की नौबत आए. बेटा यह कहकर फोन काट देता है.

तभी फोन  की घंटी दोबारा बजती है,माँ फिर से फोन उठाती है-"हलो!हलो!"

बेटा-क्या माँ फिर से तनदोहनजी! उनसे मेरा बात करने का मूड नहीं है.

माँ-नहीं,नहीं बेटा ये तो अपने रेडनेसजी हैं,लो बात करो.

बेटा-हाँ रेडनेसजी बोलिए!

रेडनेसजी- अरे का बोलें हम, तुमतो हमको  बोलने लायक भी नहीं रखोगे. बचवा, तुम अभी भी लडका  ही हो!तुमतो दुश्मनों के  हाथों में खेलने लगते हो.अरे बचवा, पहले हमसे राजनीति का ककहरा तो पढ लो!हमरा तनदोहनवा इतनी मेहनत किए रहा , तुम्हारी अम्मौ तैयार होय गै रहीं पर तुमने मारा सब गुड-गोबर कर  दिया. धुत!

बेटा-देखिए रेडनेसजी देश की जनता की आकांक्षा का सवाल है,नौजवानों की मनोभावनाओं का  सवाल है.

रेडनेसजी- बहुत बडा-बडा बात करने लगे हो,कल हमारे  सामने नेकर पहन कर घूमते थे.अरे तनदोहनवा दोस्ती निभाना जानता है,तुम्हारी अम्मा भी जानती हैं पर तुम निरे बुद्धू हो. चलौ रखो,अब हम तुमसे का बात करें.धुत!

बेटा फोन रखते हुए- लो माँ अब ये रेडनेसजी भी नाराज हो  गए.

माँ- कोई बात  नहीं बेटा, रेडनेसजी नाराज  हो गए तो कोई बात नहीं, अपने पितीशजी तो  हैं न.

तभी सफेद दाढी वाले सज्जन एक काली दाढी वाले के साथ आधी बांह का कुरता पहने आते दिखाई देते हैं.

माँ-ये चोखेर बाली कहाँ से आ रहा है.

बेटा- ये चोखेर बाली क्या होता है माँ?

माँ- बेटा ये बाँगला है. चोखेर  बाली का मतलब हुआ-आँख की किरकिरी.

बेटा- माँ तुमने बाँगला कब सीखी?

माँ-अरे ये तो  जब पश्चिम  बंगाल वाली दीदी हम लोगों के साथ थीं तो उनसे मैंने थोडी -थोडी बाँगला सीख ली थी.

बेटा- और तुमने हिंदी किससे सीखी माँ?

माँ हँसते हुए-शैतान है तू,अरे वो तो तेरे डैडी से सीखी.

बेटा भी हँसता है-डैडी  से नहीं वो तो तुमने दादी से सीखी है.

तब  तक सफेद दाढी और आधी बाँह के कुरते वाले सज्जन सामने आ जाते हैं.

माँ फिर धीरे से बोलती है 'चोखेर बाली' और अपना मुँह दूसरी तरफ घुमा लेती है.

आधी बाँह के कुरते वाले सज्जन राजकुमार बेटे के कंधे पर हाथ मारते हैं.

राजकुमार अपना कंधा दूसरे हाथ से पकडकर -ऊई!अंकल लोहा बटोरते-बटोरते लगता है आपके हाथ भी लोहे के हो गए हैं.

तब तक माँ मुडती है-हाय मेरे लाल को क्या कर दिया.

बेटा-कोई बात नहीं माँ,सब ठीक है; बस जरा यूँ ही.

आधी बाँह के कुरते  वाले सज्जन- शाबास राजकुमार!गजब कर दिया! जो बात मुझे कहनी चाहिए थी तुमने कह दी.  मुझे तो वह गाना याद आ गया- 'गैरों के करम अपनों के सितम.'
 
तभी सफेद दाढी के साथ आया काली दाढी वाला व्यक्ति  कान में धीरे से फुसफुसाता है- सर ये याद रखें कि आप दुश्मन से बात कर रहे हैं,दोस्त से नहीं.नाहक तारीफ  न करें.

तभी मोबाइल की घंटी फिर बजती है.माँ फोन उठाती है -" हलो-हलो"  फिर थोडी देर बाद बोलती है-"अरे तनदोहनजी छोडिए भी ,बच्चे की बातों का  बुरा नहीं मानते."

बेटा-क्या हुआ माँ?

माँ- अरे तनदोहनजी  हैं ,गा रहे हैं-"इक दोस्त ने दुश्मन का ये काम किया है.जिंदगी भर का गम  हमें इनाम  दिया है."

आधी बाँह के कुरते  वाले सज्जन- मैनिया  जी आप   ये क्या कह रही हैं. आप नहीं जानतीं  आपके बेटे ने देश का कितना  उपकार किया है.

काली दाढी वाला व्यक्ति फुसफुसाकर- सर मैंने आपसे अभी क्या कहा था?

आधी बाँह के कुरते  वाले सज्जन धीरे से कहते हैं - मैंने तुम्हे जहाँ भेजा है वहाँ जाकर  काम करो,यहाँ मेरे काम में  टाँग मत अडाओ.

माँ-देख मौत के सौदागर ,मैं तुझसे बात नहीं करूँगी भले ही तू मेरे मुँह पर मेरे बेटे की कितनी भी तारीफ करे.

आधी बाँह के कुरते  वाले सज्जन- देखिए मैनियाजी  मैं तो यह कहने के  लिए आया था कि आप भी अपने बेटे को पी एम होपफुल घोषित कर  दीजिए,फिर देखिए जब  दो पी एम होपफुल आमने सामने होंगे तो कुश्ती कैसी छूटती है.

माँ-मैं सब समझ गई तू मेरे बेटे को चक्रव्यूह में फंसाने आया है.

राजकुमार-माँ तुमने क्या मुझे बच्चा समझ रखा है.मेरी उम्र में डैडी पूरे देश का जिम्मा सँभालते थे.माँ  अंकल की बात पर ध्यान दो.

माँ, चिंतित स्वर में राजकुमार के सर  पर अपना आँचल फैलाकर - बेटा मेरे लिए तू बच्चा है और बच्चा ही  रहेगा,मैं अपने बेटे   को किसी  की नजर नहीं लगने दूँगी

माँ  मोबाइल उठाकर फोन लगाती है-"तनदोहनजी,तनदोहनजी,प्लीज जल्दी  भारत लौट आइए."

कुछ दूर दो व्यक्ति अखबार पढ रहे हैं .एक किसान है जो हिंदी का अखबार पढ रहा है ,एक सूटेड-बूटेड व्यक्ति अंग्रेजी का अखबार पढ रहा है.

किसान- भैया ने खूब खरी-खरी बात कह दी है.

सूटेड-बूटेड व्यक्ति- Its a damage control exercise.






बुधवार, 25 सितंबर 2013

इस्लाम के नाम पर आतंकवाद


           नैरोबी के वेस्टगेट माल में सोमाली आतंकवादी संगठन अल-शबाब के हाथों निरीह नागरिकों की हत्या जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं ,यह सोचने के लिए विवश करती है कि इस्लाम के  नाम पर चलाए जा रहे आतंकी अभियानों का इलाज क्या है. पश्चिमी देशों द्वारा दी गई संज्ञा और उनके अनुकरण पर अन्यत्र भी इन्हें इस्लामी आतंकवाद कह कर संबोधित किया जा रहा है पर मैं इसे इस्लामी आतंकवाद के स्थान पर इस्लाम के नाम पर आतंकी अभियान कहना बेहतर समझता हुँ  क्योंकि  यह संगठन अपनी आतंकी गतिविधियों के लिए इस्लाम के नाम का बेजा इस्तेमाल कर  रहे हैं. पैगम्बर मुहम्मद साहब ने इस्लाम के प्रसार के लिए जो भी लडाइयाँ लडीं वे आमने-सामने लडीं, कभी किसी पर पीठ पीछे वार नहीं किया. व्यर्थ के  खून खराबे की अपेक्षा उन्होने हिजरत करना उचित समझा. पर इस्लाम के नाम पर  आतंकी अभियान चला रहे लोग पीठ पीछे से ही वार करते हैं और पैगम्बर मुहम्मद की शिक्षाओं के विपरीत महिलाओं,बच्चों,बूढों तथा अपाहिजों पर भी वार करने में नहीं हिचकते. रविवार को पाकिस्तान के पेशावर में "आल सेंट्स चर्च" पर किए गए हमले में मारे गए लोग ज्यादातर गरीब ईसाई थे जो चर्च में मिलने वाले भोजन  की आस में चर्च के लान में इकट्ठा हुए थे. हमला फिदाईनों द्वारा किया गया था जब कि फिदाईन गतिविधि इस्लाम की शिक्षाओं के विपरीत है. पर पाकिस्तान में किए जाने वाले हमले अधिकांशतया फिदाईनों द्वारा ही किए जाते हैं.   इस्लाम धर्म के कई रहनुमा कह चुके हैं इस्लाम इस प्रकार की गतिविधियों की इजाजत नहीं देता.  पर इस्लाम के नाम पर आतंक का खेल बदस्तूर जारी है.

          इस्लाम के नाम पर चल रहे आतंक को तीस वर्षों से ऊपर हो गए हैं. इसकी विधिवत शुरुआत सन उन्नीस सौ अस्सी के पास अफगानिस्तान में  रूसी हस्तक्षेप के साथ हुई. हालांकि इसके पहले भी अल-फतह जो फिलीस्तीनियों के अधिकारों के लिए संघर्षरत था तथा जम्मू काश्मीर में जे के एल एफ आतंकवादी गतिविधियां कर चुके थे पर इनका दायरा और उद्देश्य क्षेत्र विशेष तक सीमित होने के कारण इन्हें इस्लाम के साथ जोडना अनुचित होगा. सन  उन्नीस सौ अस्सी के समय सोवियत रूस का प्रतिकार करने के लिए पश्चिमी ताकतों ने विभिन्न इस्लामी देशों से लडाकों को अफगानिस्तान आकर सोवियत रूस एवं उसके द्वारा समर्थित अफगान शासन के विरुद्ध संघर्ष करने  के लिए प्रेरित किया. इस कार्य में पश्चिम जगत का मुख्य सहायक इस्लामी देश  पाकिस्तान था जिसे अफगानिस्तान सरकार के विरुद्ध संघर्ष के लिए बेस के तौर पर  इस्तेमाल किया गया. पश्चिम जगत ने धन,सैनिक साजो सामान  तथा  हथियार मुहैया करवाने के अलावा व्यापक सैनिक प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की. इन्ही इस्लामी सैनिक लडाकों के   समूहों ने कालांतर में  अल-कायदा और तालिबान को जन्म दिया जिन्होने अफगानिस्तान से सोवियत समर्थित अफगान सरकार का पतन होने के बाद अपनी सारी ऊर्जा  और शक्ति  सैद्धांतिक विरोधों के  चलते पश्चिम जगत के विरुद्ध केंद्रित कर  दी और उनके लिए भस्मासुर बन गए.  अल-कायदा द्वारा ट्विन टावर पर हमला करने के बाद ही यू.एस.ए. स्थिति की गंभीरता को  समझ सका और अल-कायदा तथा अफगान तालिबानियों के खिलाफ लडाई शुरू की. पर इसके लिए एक बार फिर पाकिस्तान को ही बेस के तौर पर इस्तेमाल  किया गया.  तालिबानियों का एक समूह इस कारण पाकिस्तान  के विरुद्ध हो गया  और वहाँ हमले आयोजित  करने लगा तथा पाकिस्तान के लिए भस्मासुर की भूमिका  निभा रहा है.

          पाकिस्तान ने पश्चिम जगत से मिली सहायता के एक बडे हिस्से को जम्मू काश्मीर  में आतंकवादी  गतिविधियों को बढावा देने तथा वहां दहशत फैलाने वाले समूहों को तैयार करने के लिए किया. आगे चलकर भारत विरोधी आतंकवादी गतिविधियों का संचालन पाक सेना का गुप्तचर संगठन आई.एस.आई. करने लगा जिसने भारत में आतंकवादी गतिविधियों को  अंजाम देने के लिए अनेक समूह तैयार किये और "थाउजैंड कट्स" की नीति कार्यान्वित की.परिणामस्वरूप इस्लाम के नाम पर होने वाली आतंकी गतिविधियों का भारत सबसे बडा शिकार है.

          आज इस्लाम के  नाम पर आतंक  फैलाने वाले  संगठन कैंसर का  रूप अख्तियार कर चुके   हैं  जिन्होने पूरे विश्व को  अपनी चपेट में ले लिया  है. इनके अनेक रूप,नाम और शाखाएं  हैं. अमेरिका में 9/11 की  घटना के बाद कोई बडी आतंकवादी घटना नहीं घटी है पर भारत जैसे देश क्या करें जो अमेरिका जितने सक्षम नहीं हैं तथा आतंकवाद की नर्सरी पाकिस्तान के पडोसी होने के कारण इसकी जद और चपेट में सबसे पहले आते हैं.

          भारतवासियों तथा पश्चिम एशिया के  निवासियों में पश्चिमी जगत विशेषकर अमेरिका के लोग फर्क नहीं कर पाते हैं. इस कारण इस्लाम के नाम पर होने वाली आतंकी गतिविधियों के कारण अमेरिका जैसे देशों में  इस्लामी जगत के प्रति जो  नफरत का भाव पनप रहा है उसका भी शिकार भारतीय  हो रहे हैं. हाल में ही कोलम्बिया युनिवर्सिटी के एक फैकल्टी प्रभजोत सिंह पर उन्हें "ओसामा","टेररिस्ट" आदि कह कर हमला किया गया. अमेरिका में विशेषकर सिखों पर ऐसे कई हमले हो चुके हैं. मिस अमेरिका चुनी गई भारतीय मूल की नीना के बारे में भी  नस्ली टिप्पणियाँ की गईं.  कुल मिलाकर भारतवासियों के लिए इधर कुआँ उधर खाईं वाली स्थिति है.

         मैंने अपनी बात की  शुरुआत में प्रश्न उठाया था कि इस्लाम के नाम पर चलाए जा  रहे आतंकी अभियानों का इलाज क्या है .लोगों के इस पर अलग-अलग विचार होंगे. पर मुझे लगता है कि इस बीमारी का सबसे कारगर इलाज भी इस्लाम में ही निहित है. यदि मुस्लिम धार्मिक संस्थान तथा धार्मिक  रहनुमा सामान्य तौर पर आतंकवाद को इस्लाम के खिलाफ बता  देने के  बजाय  हर आतंकवादी घटना होने के बाद उसके खिलाफ फतवा जारी करें, घटित आतंकवादी घटना को इस्लामी शिक्षाओं के खिलाफ घोषित करें तथा इनमें भाग लेने  वालों के इस्लाम से निष्कासन की व्यवस्था करें तो मेरे विचार से इन  पर काफी कुछ काबू पाया जा सकता है.

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

बडा कौन : यू. आर. अनंतमूर्ति ,मोदी या फिर देश ?

          अनंतमूर्ति दादा आपने बयान दिया है कि यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो मैं देश छोडकर चला जाऊँगा.आपके इस कथन पर कुछ भी कहने से पहले मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि बतौर साहित्यकार मेरे हृदय में आपके लिए अपार आदर है.

          मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि आपने उपर्युक्त बयान देकर अपना दर्जा बढाया है या फिर मोदी का दर्जा बढाया है. आप पर इस देश की अपेक्षा मोदी का व्यक्तित्व हावी हो गया है अथवा फिर आपका सोचना है कि उन दोनों से ऊपर मैं हूँ. सन 1971 में पाकिस्तान से हुई लडाई और बांगलादेश की आजादी के कुछ दिनों के बाद तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशा ने एक बयान दिया था कि आजादी के समय जिन्ना ने मुझे पाकिस्तान आ जाने के लिए कहा था और अगर मैं पाकिस्तान चला गया होता तो इस लडाई में भारत हार गया होता. मानेकशा के इस बयान पर उस समय लोकसभा के उपाध्यक्ष श्री जी जी स्वेल ने मानेकशा को गीता पढने की सलाह दी थी. मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मैं छोटे मुँह बडी बात कहने की और आपको कुछ सलाह देने की जुर्रत कैसे करूँ. कभी-कभी महिमामंडित व्यक्तित्वों के साथ अहम की समस्या हो जाती है, इतनी अधिक कि वे खुद को देश और समाज से ऊपर समझने लगते हैं .  
   

         इस देश में तमाम लोग हैं जो मोदी के विरोधी हैं. पर समस्या यह है कि यदि इन सभी ने आपके दिखाए हुए रास्ते पर चलने की ठान ली तो दो-तिहाई देश खाली हो जाएगा. कैसे,वह मैं आपको बताता हूँ. इस देश की कुल जनसंख्या के लगभग आधे ही मतदाता हैं यानी कि लगभग साठ करोड (ताजा आँकडों के अनुसार 2014 के लोकसभा चुनाव में 79 करोड मतदाता होने के  आसार हैं). इनमें से आधे से कुछ ही अधिक वोट डालने जाते हैं यानी अधिक से अधिक चालीस करोड. सन इक्यान्नबे के बाद होने वाले चुनावों का अनुभव बताता है कि जो भी पार्टी तीस प्रतिशत से अधिक वोट पा जाती है वह सरकार बनाने में सक्षम हो जाती है. यानी कि बीस करोड के लगभग वोट मिल जाएं तो इन्हें पाने वाला प्रधानमंत्री बन जाएगा. 2009 में आयोजित लोकसभा चुनावों में 11.9 करोड वोट पाकर कांग्रेस सरकार बनाने में सक्षम हो गई थी. इसके बाद दूसरे स्थान पर रही बी जे पी को 7.8 करोड वोट प्राप्त हुए थे. फिर अगर मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं और उसके बाद अस्सी करोड से भी अधिक लोग आपकी तरह देश खाली करने लगे तो सवाल उठता है कि ये सब जाएंगे कहाँ, और कौन सा देश अपनी मिट्टी पलीद करवाने के लिए इन्हें जगह देगा. आपकी बात दूसरी है. आप नामी-गिरामी साहित्यकार हैं, आपको तो किसी भी देश में जगह मिल जाएगी.


          पर ऐसा कर आप साहित्यकार के कर्तव्य से मुँह मोडेंगे. किसी भी साहित्यकार का सबसे बडा अस्त्र उसकी कलम होती है. यह कलम जनमत का निर्माण करने में महती भूमिका का निर्वाह करती है.ऐसी क्या बात हो गई कि आपने साहित्यकार के सबल शस्त्र का उपयोग करने के स्थान पर पहले ही मैदान छोड दिया और देश ही छोडने का ऐलान कर दिया. फिर से छोटे मुँह बडी बात करने का दुस्साहस कर रहा हूँ- क्यों नहीं आप आप अपने मतवैभिन्य या विरोध को रचनात्मक आकार देते जो शायद जनता को या फिर मोदी को ही आपके अनुसार बदल जाने के लिए मजबूर कर दे.

          आपने कहा है कि मोदी दबंग नेता हैं और दबंग व्यक्ति कायरों की जमात खडी करता है. पर यहाँ आप भारतीय जनता को गलत आँक रहे हैं (क्षमा करें , एक बार छोटे मुँह बडी बात हुई जा रही है). दबंग इंदिरा गाँधी को इसी जनता ने जिसे आपके अनुसार कायर सिद्ध होना चाहिए था, सन सतहत्तर में सत्ता से बेदखल कर दिया था.

          आपसे मेरी अपील है कि आप मोदी से अपने विरोध को अमली जामा इसी देश में कलम का उपयोग कर पहनाएं, देश छोडने की बात कर तो आप उसी कायर जमात में खडे हो जाएंगे जिसकी सृष्टि आपके अनुसार दबंग करते हैं. दूसरे महानता ने कितने भी ऊँचे शिखर का स्पर्श क्यों न कर लिया हो, वह इतनी ऊँची कभी नहीं हो जाती कि उसके सामने देश क्षुद्र दिखने लगे. 

          जो भी गुस्ताखी हुई हो छोटा भाई समझ कर माफ कीजिएगा, छोटे मुँह बडी बातें करते-करते थक गया हूँ. दादा,आशा करता हूँ कि आप मेरी बातों पर गौर फरमाएंगे.   

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

अमेरिका में नस्लवादी भावनाएं!

           चौबीस वर्षीय भारतीय मूल की अमेरिका में ही जन्मी, नीना दावुलुरी जो भविष्य में कार्डियोलॉजिस्ट बनने का इरादा रखती हैं और डॉक्टर दम्पति की संतान हैं; मिस अमेरिका चुनी गई हैं. किसी भी लोकतंत्र में किसी भी नागरिक को वहाँ आयोजित होने वाली सभी गतिविधियों में जिनके लिए वह पात्रता पूरी करता है  भाग लेने का पूरा हक होता है, और इसे  ध्यान में रखते हुए नीना का मिस अमेरिका प्रतियोगिता में भाग लेना  और सफल होना कोई आश्चर्य का विषय नहीं है. पर आश्चर्य का विषय वे टिप्पणियाँ हैं जो उनके मिस अमेरिका चुने जाने के बाद अमेरिका में की गईं. इनमें से कुछ निम्नवत हैं-

        "अरब ने जीती मिस अमेरिका प्रतियोगिता"

        "उम्म.....क्या हम 9/11  भूल गए हैं"

        "मिस अल-कायदा"

        "मिस टेररिस्ट"

        "कैसे..... एक विदेशी ने मिस अमेरिका प्रतियोगिता जीत ली.वह एक अरब है"

       "मिस अमेरिका ? क्या  आपका मतलब 7-11 से है."(उक्त टिप्पणी भारतीय मूल के लोगों द्वारा चलाए             जा रहे स्टोरों के संदर्भ में है.) 

       " मुस्लिम"

          मैं अमेरिकियों द्वारा  इसी प्रकार की नस्ली टिप्पणियाँ उनके अपने राष्ट्रपति ओबामा के बारे में  भी पहले देख चुका हूँ. यह टिप्पणियाँ इस तथ्य को बयान करती हैं कि वह माइंडसेट  जिसने दो-से तीन शताब्दी पहले तमाम एफ्रो-अमेरिकन लोगों को गुलाम बनाया था और जिससे एक लंबे संघर्ष के बाद अमेरिकी जनता को मुक्ति मिली और जिसके खात्मे के लिए अब्राहम लिंकन तथा मार्टिन लूथर किंग को शहादत देनी पडी आज भी अमेरिका में साँसें ले  रहा है. जिस तरह भारतीय लोकतंत्र को हर प्रकार के भेदभाव से मुक्त वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए लंबा संघर्ष करना है वैसे ही अमेरिकी लोकतंत्र को भी नस्ली माइंडसेट को खत्म करने के लिए अभी भी बहुत कुछ करना है.

          पर इन  सबसे आगे बढकर जो बात आश्चर्यचकित करने वाली है वह अमेरिकियों की सामाजिक विज्ञान ,इतिहास और भूगोल के प्रति अज्ञानता.शायद ज्ञान के इसी गिर रहे स्तर के कारण उन्हे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारतीय और चीनी प्रतिभाओं को अपने देश में आयात करने की जरूरत पड रही है.

रविवार, 15 सितंबर 2013

कुछ सवाल मोदी से

      बी जे पी द्वारा नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के साथ ही मुख्य विपक्षी दल में चल रही उठापटक का दौर समाप्त हो गया है. इस प्रकार सरकार बनने की स्थिति में नेतृत्व के पहले दावेदार का नाम स्पष्ट हो गया है. साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि पार्टी पर आर एस एस का प्रभाव अटल-आडवाणी युग की तुलना में बढ गया है और इसे प्रभावी चुनौती मिलने तक यह बना रहेगा . आर एस एस को यह प्रभावी चुनौती पार्टी में मोदी के अलावा अन्य कोई देने की स्थिति में नहीं है. मोदी की अपनी मनमर्जी से कार्य करने की जो शैली है उसके कारण यह स्थिति भविष्य में पैदा हो सकती है. यह निर्भर इस बात पर करेगा कि मोदी पार्टी पर अपनी पकड कितनी मजबूत कर पाते हैं और उनके खुद के जो स्पष्ट समर्थक नहीं हैं उन्हें कितना निष्प्रभावी कर पाते हैं या फिर उन्हें अपना स्पष्ट समर्थक बना लेने में कितना समर्थ हो पाते हैं. मोदी का नाम एक अर्से से बहुचर्चित होने  और उनके द्वारा अनेक मंचों पर अपने विचार रखने के बाद भी अभी तक उन्होने मुख्यत: आर्थिक मुद्दों पर ही बात की है और इन पर उनके विचार जगजाहिर हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से महत्वपूर्ण मामलों में उन्हें लोगों के सामने अपनी नीति और विचार स्पष्ट करने हैं. यह निम्नवत हैं-

  • ·         देश की विदेश नीति क्या होगी,खास तौर पर इस बात को देखते हुए कि अमेरिकापरस्त पार्टी माने जाने के बावजूद पिछले कुछ समय से बी जे पी ने अनेक मुद्दों पर जिनमें आर्थिक पहलू भी शामिल है, ऐसा रवैया अपनाया है जो पश्चिमी हितों से अलग हैं और जिन पर कहीं-कहीं वे और साम्यवादी साथ-साथ खडे पाए गए हैं जैसे कि रिटेल सेक्टर में विदेशी निवेश के प्रश्न पर. दूसरे अमेरिका लंबे समय से मोदी को वीजा न देने पर अडा हुआ है. मोदी ने व्यापार और उद्योग के क्षेत्र में अपने राज्य में  चीन और जापान के साथ संबंधों को तरजीह दी है.क्या ऐसा ही केंद्र में भी होगा ?

  • ·         देश की रक्षा नीति क्या होगी विशेषकर इस बात को देखते हुए कि सेनाओं के पास उन्नत किस्म के साजो-सामान  का अभाव है और कई नए तथा महत्वपूर्ण प्रस्ताव दलाली के फेर में फँस गए हैं. कई सरकारी संस्थानों के कार्यनिष्पादन तथा उसकी गति को देखते हुए भारतीय रक्षा उत्पादन क्षेत्र को गैल्वनाइज करने के लिए क्या किया  जाएगा.यहाँ प्राइवेट सेक्टर की भूमिका क्या होगी ?

  • ·         जो सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है वह यह कि मोदी को मुसलमानों के लिए हौवा बना कर खडा किया जा रहा है और उनके भय को दूर करने तथा उन्हें आश्वस्त करने के लिए वे क्या करेंगे ? यहाँ सिर्फ यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि गुजरात में बारह साल से दंगे नहीं हुए हैं और गुजरात में मुसलमान शिक्षा तथा नौकरी की दृष्टि से अच्छी स्थिति में हैं. अब तक इस बारे में मोदी से जब भी सवाल किया गया है ,उन्होने सीधे-सीधे इसका उत्तर देने के बजाय घुमा-फिरा कर जवाब दिया है. वे सीधे-सीधे संवाद कर इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं  ताकि लोग आश्वस्ति की स्थिति अनुभव कर सकें. मुसलमान इस देश की आबादी का पाँचवाँ हिस्सा हैं तथा  आप उन्हें नजरअंदाज नहीं कर सकते. एक विद्द्वान के अनुसार भारतवर्ष में धर्म से ज्यादा महत्वपूर्ण जाति  आधारित समुदाय हैं और जातीय जनसंख्या के आधार पर  सुन्नी मुस्लिम इस देश का सबसे बडा जनसमूह हैं. इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक कहना उनके साथ नाइंसाफी है और देश की तरक्की में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है.

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

लाशों पे खडा कौन?

          बकौल किसी शायर के-
                                           तारीख की सफहों पे जो इंसान बडे हैं
                                           उनमें कितने ही हैं जो लाशों पे  खडे हैं

         तो साहब लाशों पर राजनीति का सिलसिला पुराना है  और मुजफ्फरनगर के दंगों के साथ ही यह सिलसिला शुरू हो गया है या यूँ कहें कि दंगों  का सिलसिला जो कुछ समय से बंद था फिर से शुरू हो गया है  और उसी के साथ शुरू हो गई है लाशों पर राजनीति.

         किसी एक और शायर ने कहा है-
                                                     एवज नींद के आँखों में अश्क आ जाएं साहब
                                                    ऐसा भी किसी शब सुनो अफसाना किसी का

         और मुझे यकीन है कि कोई भी इंसान जिसके सीने में दिल  जैसी कोई चीज है, अगर मुजफ्फरनगर के दंगों  में जो निर्ममता दिखाई गई है उसका हाल सुनेगा या पढेगा तो पसीजे बिना नहीं रह सकता. बेगुनाह बच्चों पर हमले किए गए ,उनके सामने ही उनके अपनों को कत्ल कर दिया गया,घरों को जला दिया गया, और तो और ,उस घर को भी नहीं छोडा गया जहाँ कोई दुलहन हाथों में मेंहदी सजाए अपने होने वाले दूल्हे की आने वाली बारात का इंतजार कर  रही थी.तमाम लोग अपने घरों को छोड कर भाग गए हैं,परिवार के लोग एक  दूसरे से जुदा हो गए  हैं.इस दंगे का  हाल सुन कर आजादी के ठीक  पहले होने वाले दंगों का स्मरण हो आता है.उस समय तो देश का बँटवारा हुआ था, सवाल उठता है कि अब  क्या होने वाला है.

         यह बात बेमानी है कि दंगों में जो मारा गया,जिसका घर जला ,जिसका अपना बिछुड गया वह हिंदू था या मुसलमान.उससे भी पहले वह एक इंसान और हिंदुस्तानी था,वह हिंदुस्तानी जिसके जान-माल की हिफाजत का वायदा कर हमारी प्रदेश और देश की सरकारें सत्तासीन हुई हैं निश्चय ही प्रदेश सरकार जिस पर कानून व्यवस्था की सीधी जिम्मेदारी थी इस कार्य में अक्षम साबित हुई है. 

         गत वर्ष फैजाबाद में दुर्गापूजा पर दंगे हुए थे,वह शहर जिसकी अमन की परंपरा पर वहाँ के बाशिंदे गर्व करते हैं और जहाँ दशहरे के मौके पर चौक की मस्जिद में बैठकर बचपन में मैंने तीन दिनों तक निकलने वाली झाँकियाँ देखी हैं और कभी किसी ने मुझे या अन्य किसी को कभी यह नहीं कहा कि तुम हिंदू होकर इस मस्जिद में कैसे आए.मुझे बाद में यह जानकर दुख हुआ कि उस मस्जिद में तोड-फोड  की गई.मेरे एक मित्र ने बताया कि कोई प्रोवोकेशन न होते हुए भी ऐसा हुआ और पुलिस मूक दर्शक बनी रही.जब मैंने अपने मित्र से कहा कि समाजवादी पार्टी की सरकार होते हुए भी ऐसा कैसे हुआ तो उसने कहा कि इसके पीछे वही  हैं जिन्हें जनता के ध्रुवीकरण से लाभ होने की उम्मीद है.

         जो दंगों का शिकार हुए हैं उनके दिलो-दिमाग पर  शायद लंबे समय तक दाग रहेगा.उनकी नजर  में भी दंगाई ,दंगाई न होकर हिंदू या  मुसलमान है.जो दंगों से महफूज बच गए हैं  उनका भी यही खयाल है कि नुकसान इंसानों का न होकर हिंदू का हुआ है या फिर मुसलमान  का हुआ है.नफरत के यह बीज जो अंकुरित हो गए हैं उन्हे देखकर कुछ लोग वैसे ही प्रसन्न हो रहे हैं जैसे किसान को अपने खेत में कोपलें फूटते देखकर होता है.वे खाद -पानी देकर जल्दी ही इसे हरा-भरा वृक्ष बना देने की लालसा पाल रहे हैं.

         लाशों पर खडे लोगों की बाछें खिली हुई हैं.  कुछ दलों को उम्मीद है कि मुसलमान अब समाजवादी पार्टी का दामन  छोडकर उसके खेमे में आ जाएंगे  तो कुछ को उम्मीद है कि हिंदुओं के  वोट अब जात-पाँत को भूलकर थोकबंद  उनकी झोली में आ गिरेंगे.समाजवादी  इसी सोच में हैं कि दाँव उल्टा कैसे पड गया.

          यह दंगे हमारे सामने सवाल खडा करते हैं कि क्या एक लडकी के साथ छेडखानी के लिए और फिर दो लडकों की मौत के लिए  पूरे के पूरे समुदाय  जिम्मेदार हैं और यदि ऐसा है तो इसके लिए हिंदू कौम नहीं या मुसलमान कौम नहीं बल्कि पूरी की पूरी हिंदुस्तानी कौम जिम्मेदार है.

चलते-चलते

          देश में राजीव गाँधी से लेकर अब तक जितनी भी बाबा लोग सरकारें बनी हैं उनके काम-काज को देखते हुए लगता है  कि  लोगों को बाबा लोगों से उम्मीद रखना छोड देना  चाहिए चाहे वे उमर फार्रूक हों या फिर अखिलेश यादव.