गजल
चाँद जो नहीं है फिर चाँदनी जहाँ में बिखरेगी कैसे
धरती दिखी नहीं आफताब बेताब न भी हो तो कैसे।।
फूल जब नहीं है भँवरा यहाँ गुनगुनाए भी तो कैसे
शरीके हयात है नहीं पड़ोसियों से मन लगाएं कैसे।।
तुम्हारी और बेटे की आवाज आती रहती सी हो जैसे
टूटी हुई है कमर दवा ले फिर भी उठता हूँ कैसे ।।
किसी तरह हिम्मत कर बनाता हूँ रोटियाँ कैसे
माँ को खिलाता हूँ और खुद भी खाता हूँ कैसे।।
क्या सोचती हो एक पहिए से ये गाड़ी चलेगी कैसे
तुम जो चली गई हो फिर भी गृहस्थी सजेगी कैसे।।
इस शहर में नवाबी मिजाज के लोगों से बाबस्ता हूँ
अच्छा है मिल गए हैं चंद दोस्त करके भी कैसे।।
उम्मीद है जब आओगे तो घर को उम्दा ही पाओगे
सजा रहा है घर को 'संजय' जतन करके भी कैसे।।
-संजय त्रिपाठी
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