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मंगलवार, 19 मई 2020

वर्ष 1918 में भारतवर्ष में स्पेनिश फ्लू का प्रकोप

वर्ष 1918 में भारतवर्ष में स्पेनिश फ्लू का                                 प्रकोप

       द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान वर्ष 1918 में दुनिया के विभिन्न देशों में एक विशेष प्रकार के फ्लू ने भयानक महामारी के रूप में फैलना आरंभ कर दिया था। इस फ्लू को स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया पर इसका अर्थ यह नहीं कि इसका आरंभ स्पेन से हुआ। एक विचार के अनुसार स्पेन के प्रथम विश्वयुद्ध में निरपेक्ष रहने के कारण तथा  स्वतंत्र रूप से रिपोर्टिंग होने के कारण वहां के मामले अधिक प्रकाश में आए और इसे स्पेनिश फ्लू का नाम दे दिया गया। परंतु इस बीमारी ने महामारी का रूप पहले अमेरिका के कन्सास में लिया और वहां से यह बीमारी यूरोप पहुंची तथा यूरोप से इसका आगमन भारत में हुआ। पर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सेंसरशिप होने के कारण यूरोप के इंग्लैंड, फ्रांस जर्मनी आदि देशों ने अपने यहां महामारी की बात छुपाई और सही आंकड़े प्रकाश में नहीं आने दिए। एक स्थान से दूसरे स्थान पर सैनिकों के आवागमन ने इस बीमारी के फैलने में अपना योगदान दिया। भारतवर्ष में इस महामारी की शुरुआत जून 1918 में हुई और 1920 तक यह कभी अधिक प्रकोप और कभी कम प्रकोप के साथ देश में बनी रही। 

        प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों को लेकर एक जलयान मई,1918 के अंत में लौटा था जिसने मुंबई बंदरगाह पर लंगर डाला। ऐसा माना जाता है कि इस जलयान में संक्रमित सैनिक थे। उनके द्वारा यह महामारी जून, 1918 में मुंबई  और फिर मुंबई से अगस्त 1918 तक पूरे देश में फैल गई। ब्रिटिश सरकार इस बात से सहमत नहीं थी कि यह बीमारी सैनिकों की लाई हुई थी। सरकार का कहना था कि सैनिक ही मुंबई में आकर संक्रमित हो गए थे। सितंबर के अंतिम सप्ताह में मुंबई में यह महामारी  अपने चरम पर पहुंच गई और अनेक मुंबई वासियों के लिए जानलेवा सिद्ध हुई। मध्य अक्टूबर में मद्रास (आज का चेन्नई शहर) और मध्य नवंबर में कोलकाता में इस महामारी ने कहर ढाया।

        इस बीमारी ने सबसे अधिक 20 से 40 की उम्र की युवा जनसंख्या को प्रभावित किया। मरने वालों में महिलाओं का प्रतिशत अपेक्षाकृत अधिक था।  इसका कारण यह था कि उन दिनों महिलाओं की खुराक समुचित नहीं होती थी और कमजोर होने के कारण प्रतिरोधक क्षमता के अभाव में वे आसानी से इसका शिकार बन गईं। 1918 की एक सैनिटरी कमिश्नर रिपोर्ट के अनुसार मुंबई और चेन्नई दोनों ही स्थानों पर 1 सप्ताह के भीतर 200 से अधिक मौतें हुईं। 

        इस वर्ष मानसून भी असफल रहा जिसके कारण अकाल जैसी परिस्थितियां बन गईं। लोगों के पास खाद्य सामग्री का अभाव हो गया। खाने के अभाव में लोग कमजोर हो गए थे। इनमें से  रोजगार की तलाश में बहुत से लोग गांव से शहर की तरफ आए। यह शहर सघन आबादी वाले थे और वहां पर परिस्थितियां बहुत अच्छी नहीं थीं। इस स्थिति ने महामारी के प्रकोप को बढ़ाने में और अधिक योगदान दिया।

        महात्मा गांधी का साबरमती आश्रम भी इस बीमारी की चपेट में आ गया और वे स्वयं जो उस समय 48 वर्ष के थे, इस बीमारी से संक्रमित हो गए। उन्होंने कहा - जीवित रहने में जैसे सारी रुचि समाप्त हो गई है। इस पर एक स्थानीय समाचार पत्र ने लिखा- गांधी जी का जीवन उनका नहीं है,यह भारत का है। इस दौरान गांधीजी ने  पूरी तरह द्रव खाद्य पदार्थों का सेवन किया और वे तथा उनका आश्रम इससे मुक्ति पाने में सफल रहे।

        महामारी ने भारतवर्ष में रहने वाले ब्रिटिश जनों और भारतीयों के बीच का अंतर बिल्कुल स्पष्ट कर दिया था। ब्रिटिश जन इस महामारी से विशेष प्रभावित नहीं हुए। संभवतः इसका कारण यह था कि वे साफ, खुले,हवादार और बड़े घरों में रहते थे। जिन कामों के लिए बाहर निकलने की जरूरत होती, उन कामों को वे नौकरों के माध्यम से संपन्न करवाते थे। समाज के शासक वर्ग और आम जनता के बीच ऐसे भी संपर्क कम ही था।

        देश में ब्रिटिश शासन डेढ़ सौ वर्षो से चल रहा था। पर उस समय की स्वास्थ्य प्रणाली इस बीमारी से निपटने में अक्षम सिद्ध हुई। इस प्रकार की धारणा है कि इस बीमारी के कारण हुई मौतों, उपजे दुख और आई  आर्थिक तंगी ने भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रतिकूल भावनाओं के प्रतिफलन में विशेष योगदान दिया। राष्ट्रवादी विचारधारा के एक समर्थक ने लिखा- किसी भी सभ्य देश की सरकार ने बिना कुछ किए धरे अपनी जिम्मेदारियों को इस प्रकार छोड़ नहीं दिया होता, जैसा कि इस भयानक और जानलेवा महामारी के समय ब्रिटिश भारत की सरकार ने किया।

        भारतीय जनता का अनुभव ब्रिटिश जन से अलग था। उस समय प्रकाशित एक पत्र के अनुसार भारतीय जनता ने इतना कठिन समय पहले कभी नहीं देखा था। हर तरफ रूदन ही रूदन था। पूरे देश भर में कोई ऐसा गांव या शहर नहीं था जहां लोगों ने बड़ी संख्या में अपनों को न खोया हो। पंजाब के सैनिटरी कमिश्नर ने लिखा -- शहरों की गलियां मृतकों और मर रहे लोगों से भरी पड़ी थीं। हर तरफ आतंक और भ्रम की स्थिति थी।

       उत्तर भारत और पश्चिमी भारत में इस बीमारी का कहर खासतौर पर बरपा हुआ, विशेषकर मुंबई  तथा संयुक्त प्रांत में। वहां पर मृत्यु दर 4.30 से 6% के मध्य रही। दक्षिण भारत और पूर्व भारत में असर थोड़ा कम था, क्योंकि वहां पर वायरस कुछ देर से पहुंचा था  । इन क्षेत्रों में मृत्यु दर 1.5 से 3% के बीच रही। सितंबर 1918 से दिसंबर 2019 के बीच श्मशानों में 150 से 200 के बीच शव प्रतिदिन आते थे। श्मशान घाट और कब्रिस्तान शवों से पट गए थे। कई स्थानों पर लाशों को उठाने वाला कोई नहीं था और ऐसे लोग गिद्धों तथा सियारों का ग्रास बन गए।

       महामारी के प्रकोप के कारण वर्ष 1919 में भारत की जन्म दर में लगभग 30% की गिरावट आई। इसके परिणामस्वरूप 1911 से 1921 के दशक के लिए भारतवर्ष की जनसंख्या वृद्धि की दर 1.2% रही जो पूरे ब्रिटिश शासन काल में सबसे कम वृद्धि दर थी।


        पूरी महामारी के दौरान कुल मिलाकर 1 करोड़ 20 लाख से 1 करोड़ 30 लाख  के बीच तक लोग कालकवलित हुए। एक अन्य अनुमान के अनुसार प्राण खोने वालों की संख्या 1 करोड़ 70 लाख तक थी और देश की आबादी का 5% से 6% तक स्वर्ग सिधार गए। उस समय पूरी दुनिया की आबादी डेढ़ अरब थी । अनुमानत: पूरी दुनिया में 50 करोड़ लोग इस महामारी से प्रभावित हुए थे तथा 5 से 10 करोड़ के बीच लोगों ने अपने प्राण गंवा दिए। आंकड़े बहुत स्पष्ट न होकर विभिन्न आधार लेकर अनुमान द्वारा निर्धारित किए गए हैं, क्योंकि उस समय  विभिन्न देशों ने इस फ्लू के कारण होने वाली मौतों के आंकड़े छिपाने का प्रयास किया। होने वाली मौतों में भारतीयों का हिस्सा उनकी आबादी के हिस्से के अनुपात में बहुत अधिक था।


        बाद में एक सरकारी समीक्षा रिपोर्ट में तत्कालीन ब्रिटिश भारतीय सरकार की भूमिका पर सवाल उठाते हुए व्यवस्था में सुधार और इसमें विस्तृत भागीदारी की सिफारिश की गई। समाचार पत्रों में इस बात को लेकर सरकार की आलोचना की गई कि महामारी के समय में भी ब्रिटिश भारत की  सरकार का प्र‌शासन संभालने वाले, चारों तरफ फैली महामारी और जनता की तकलीफों की उपेक्षा करते हुए हिल स्टेशनों में अपना समय बिताते रहे। उन्होंने लोगों को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था। 'पेल राइडर : दि स्पेनिश फ्लू ऑफ 1918 ऐन्ड हाऊ इट चेन्ज्ड दि वर्ल्ड' की लेखिका लारा स्पिनी के अनुसार मुंबई के अस्पतालों के सफाई कर्मचारियों ने फ्लू का इलाज करवा रहे ब्रिटिश सैनिकों से दूरी बनाकर रखी । उनके दिमाग में 1886 एवं 1914 के बीच फैले प्लेग और उस दौरान ब्रिटिश जनों द्वारा भारतवासियों की उपेक्षा की स्मृति थी, जिसके कारण 80,00000 भारतीय काल का ग्रास बन गए थे। स्पिनी के अनुसार ब्रिटिश प्रशासन भारतीयों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के प्रति गंभीर नहीं था एवं उपेक्षा का भाव रखता था। स्पेनिश फ्लू की महामारी  तथा इसके कारण होने वाले विनाश के लिए वे बिल्कुल तैयार नहीं थे। प्रथम विश्व युद्ध के कारण देश के बहुत से डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ युद्ध स्थलों पर चले गए थे, अतः देश में उनकी भी कमी थी। इस सबकी एक बड़ी कीमत देश को तथा सामान्य जन को चुकानी पड़ी।


        उस समय देश में महामारी से लड़ने में एनजीओ तथा स्वयंसेवियों एवं उनकी संस्थाओं ने विशेष भूमिका निभाई। उन्होंने औषधालय  और छोटे-छोटे अस्पताल खोले जहां मरीजों के इलाज की व्यवस्था की गई। शवों को हटाने की और उनके दाह संस्कार तथा दफनाने की व्यवस्था की गई। कपड़े और दवाओं का वितरण किया गया तथा इस सबके लिए पैसे भी जुटाए गए। कई स्थानों पर नागरिकों द्वारा एंटी इन्फ्लूएंजा कमेटी बनाई गईं। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार - भारतवर्ष के इतिहास में इसके पहले कभी भी विपदा काल में समाज के शिक्षित तथा बेहतर स्थिति  रखने वाले लोग, इतनी बड़ी संख्या में अपने गरीब भाइयों की मदद के लिए आगे नहीं आए थे।



सन 1918 की स्पेनिश फ्लू महामारी और सन 2020 की कोविड महामारी में समानताएं


        सन 1918-19 की फ्लू महामारी तथा सन 2020 की कोविड-19 महामारी दो अलग-अलग तरह के संक्रमण हैं, फिर भी हमें स्थितियों में कुछ समानताएं दिखाई देती हैं और कुछ सीखने लायक बातें भी हैं।


        स्पेनिश फ्लू महामारी का कारण एच वन एन वन वायरस का एक स्ट्रेन था। पर इस वायरस के विषय में उस समय कोई भी जानकारी नहीं थी। साथ ही एंटीबायोटिक दवाओं की भी खोज उस समय तक नहीं हो पाई थी। आज सार्स कोविड-19 वायरस के बारे में भी हमें बहुत अच्छी जानकारी नहीं है। साथ ही इसके लिए किसी औषधि अथवा टीके की जानकारी भी अब तक नहीं हो पाई है। प्रयास चल रहे हैं। फिर भी सन 1918 से स्थिति इस मायने में थोड़ा बेहतर है कि कुछ दवाओं का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है। दूसरे वर्ष 1918 में युवा जनसंख्या महामारी से बड़े स्तर पर प्रभावित हुई थी जबकि इस बार वृद्ध लोग इससे अधिक प्रभावित हो रहे हैं।

       उस समय देश के सबसे घनी जनसंख्या वाले नगरों में से एक मुंबई संक्रमण का केंद्र बना था, जहां से पूरे देश में संक्रमण फैला। वर्तमान में देश में कोविड-19 महामारी की शुरुआत मुंबई से तो नहीं हुई, पर मुंबई इस महामारी के संक्रमण का देश में सबसे बड़ा केंद्र बना हुआ है और इस बात की प्रचुर संभावना है कि यदि वहां पर संक्रमण नियंत्रण में नहीं आता है तो पूरे देश से कोविड-19 का संक्रमण समाप्त होने के जल्दी कोई आसार नहीं हैं।

        जून 1918 के अंत में मुंबई में फ्लू महामारी के कारण मृत्यु दर 75 व्यक्ति प्रति दिन की थी, जो सितंबर, 1918 में 230 व्यक्ति प्रति दिन तक पहुंच गई और 3 गुनी हो गई थी। कोविड-19 के संदर्भ में वर्तमान वर्ष 2020 में जहां 1 अप्रैल को मुंबई में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या 437 थी वही 18 मई को लगभग डेढ़ महीने के बाद यह संख्या 5242 है, जो दर्शाती है कि डेढ़ महीने में संक्रमित लोगों की संख्या 12 गुनी हो चुकी है।

        सन 1918 में किसी प्रकार के औपचारिक लॉकडाउन की घोषणा नहीं की गई थी परंतु कार्यालयों और कल-कारखानों में लोगों लोगों की उपस्थिति अत्यधिक कम हो गई थी। कुछ समाचार पत्रों ने लोगों को घर से बाहर न निकलने का सुझाव दिया था। टाइम्स ऑफ इंडिया ने उन्हें भीड़भाड़ वाले स्थानों मेला, त्यौहार, थियेटर, स्कूल-कालेज, सभा हॉल, सिनेमा और पार्टियों तथा भीड़ से भरे वाहनों में जाने से बचने के लिए कहा। वर्तमान समय की ही भांति यह सलाह दी गई थी कि फ्लू का संक्रमण मानव संसर्ग तथा  नाक और मुंह के रास्ते निकले कणों से फैलता है अतः किसी के निकट आने से बचा जाए। लोगों को बंद कमरों के बजाय खुले और हवादार स्थानों पर विश्राम करने ,पौष्टिक भोजन करने तथा व्यायाम करते रहने की भी सलाह दी गई। वर्ष 1918 में संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ स्थानों पर महामारी को नियंत्रित रखने के लिए आज की ही तरह सैनिटेशन,मास्क पहनने और सोशल डिस्टेंसिंग का अनुपालन करने के लिए कहा गया। 

        आज जब हम कोविड-19 का सामना कर रहे हैं,  देश में वर्ष 1918 की तरह कोई विदेशी शासन नहीं है बल्कि  लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत केंद्र स्तर पर तथा प्रांतों के स्तर पर चुनी हुई सरकारे हैं। वे अपनी तरफ से स्थिति को संभालने के लिए भरसक जो भी प्रयत्न बन पड़ रहा है,  कर रही हैं। पर देश के नागरिक के तौर पर हम सबका भी यह कर्तव्य है कि एक शताब्दी पहले की ही तरह जो देशवासी बेहतर स्थिति में हैं, उन लोगों की मदद करें जिन्हें इसकी जरूरत है।  निसंदेह अब तक बहुत से लोगों ने संस्थाओं के स्तर पर तथा अपने व्यक्तिगत स्तर पर इस दिशा में अपना योगदान दिया है। पर आगे चलकर संक्रमण के और भी बढ़ने की संभावना है तथा उस स्थिति में इसकी और भी जरूरत रहेगी।









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