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गुरुवार, 23 मई 2013

अरुणिमा के हौसले को सलाम!

        अरुणिमा की कहानी खुद्दारी की,विपरीत परिस्थितियों में भी हौसला न खोने कीऔर हार न मानने की  ,जीवन में आए एक ऐसे तूफान से बाहर निकलने की जिसमें से शायद बहुतेरे बाहर ही न निकल पाते,दृढ   इच्छाशक्ति की,अदम्य साहस की, जीवटता   की और सबसे बढ कर नारीशक्ति की  मनुष्य की  पाशविकता पर  विजय की प्रेरणादायी गाथा है.


        आज से दो वर्ष पहले मैंने समाचारपत्रों में एक समाचार पढा था जो अरुणिमा सिन्हा  के बारे  में था.उत्तर प्रदेश के एक छोटे से नगर अम्बेडकरनगर की निवासी अरूणिमा जो राष्ट्रीय स्तर की वालीबाल खिलाडी थी,  12 अप्रैल 2011 को पदमावती एक्सप्रेस से लखनऊ से दिल्ली जा रही थी.बरेली से  पहले कुछ बदमाशों ने उसके गले से सोने की चेन खींचने  का प्रयास किया.बदमाशों को मालूम नही था कि उन्होने किसी अबला नारी पर नही  बल्कि एक हिम्मती और जीवट वाली लडकी के साथ यह जुर्रत की है.उसने बदमाशों को सीधे चेन दे देने के बजाय उनका मुकाबला किया और जब बदमाशों को लगा कि वे उससे पार नही पाएंगे तो उन्होने उसे ट्रेन से  बाहर धक्का दे दिया.अरूणिमा ट्रेन  के बाहर जा गिरी और दूसरी तरफ  से आ रही ट्रेन से टकरा गई  तथा बुरी तरह से घायल हो गई.उसे गंभीर स्थिति में अस्पताल  में भर्ती कराया गया.बरेली और  अम्बेडकरनगर से मैं जुडा  रहा हूँ अत: स्वाभाविक तौर पर  मैंने वह समाचार ध्यानपूर्वक पढा.मन बडा ही खिन्न हुआ.सरकार क्यों नहीं रेलों में पर्याप्त  सुरक्षा उपलब्ध  कराती जो ऐसी घटनाएं  घटती हैं.उस समय रेलवे विभाग ने कहा था कि कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है. मैने एक-दो दिन बाद फिर पढा कि अरुणिमा का जीवन बचाने के लिए डाक्टरों ने  उसका बांया पैर काटने का निर्णय लिया है. मन और  भी दु:खी हुआ कि एक बच्ची का कैरियर बर्बाद हो गया.मुझे लगा कि अरुणिमा  अब  तमाम सामान्य लोगों की तरह अपने दु:ख से उबरने की कोशिश करेगी.पता नहीं वह इसमें सफल हो पाएगी या नहीं.जीवन में यदि वह कुछ स्थिरता पा जाए तो उसके लिए अच्छा होगा.पर बदमाशों की तरह मैं भी गलती पर था.अरुणिमा को एक भयावह हादसे के कारण जिसके कारक समाज के ही बदनुमा दाग जैसे अंश थे,  गुमनामी के अंधेरों में खो जाना और अपने सपनों को टूटते देखना मंजूर नही था. मुझे नही मालूम था कि एक बार फिर मैं अरूणिमा के बारे में समाचार पढूँगा और  वह भी इस दुनिया  की सबसे बुलंद जगह उसके द्वारा फतह किए जाने के बारे में.


          कल मैंने समाचारपत्र में पढा कि अरुणिमा ने  मंगलवार ,21 मई को  प्रात: 10.55 पर एवरेस्ट की चोटी पर चढने में सफलता प्राप्त की तथा एवरेस्ट पर विजय पाने  वाली वह भारतवर्ष की  पहली विकलांग है . इसके  अलावा प्रोस्थेटिक कृत्रिम पैर के सहारे एवरेस्ट पर चढने वाली वह विश्व की प्रथम महिला है.

        अरूणिमा का कहना है कि वह नहीं चाहती थी  कि  लोग उसे बेचारगी भरी नजरों से देखें इसलिए उसने  "एवरेस्ट पर विजय" जैसा ऊँचा लक्ष्य का निर्धारित किया.उसने  अपने इरादे अपने  कोच और अपने भाई को बताए.उन्होने उसे प्रोत्साहित  किया.अगर आपके इरादे नेक हों तो मदद करने वाले मिल ही जाते हैं. दुर्घटना के शॉक से बाहर निकल कर उसने भारत की प्रथम एवरेस्ट विजेता महिला बछेंद्री  पाल के दिशानिर्देश में उत्तरकाशी में टाटा स्टील एडवेंच्योर फाउंडेशन में एक वर्ष तक कठोर प्रशिक्षण लिया और वह कारनामा कर दिखाया जिसकी उसकी जैसी परिस्थितियों वाले व्यक्ति से  सामान्यत: कोई उम्मीद नही करता.इसीलिए किसी ने कहा है-

                                           "पंख होने से ही कुछ नहीं  होता,  हौसलों  से उडान होती है.
                                            सपने उन्हीं के सच होते हैं जिनके सपनों में जान होती है.."

        अरुणिमा की  कथा बरबस उस बच्ची की भी याद दिला  जाती  है  जो दिसंबर ,2012 में दिल्ली  की एक बस में कुछ दरिंदों का मुकाबला करते हुए उनकी दरिंदगी का  शिकार हुई.अगर वह बहादुर बच्ची बच गई  होती तो शायद अरुणिमा जैसा ही कुछ कर दिखाती,भले ही किसी दूसरे क्षेत्र में.यदि हम अपनी बच्चियों  को अबला नारी  के बजाए  इन्हीं की तरह बहादुर,दृढप्रतिज्ञ और दिलेर बनाने का संकल्प लें तो देश का नक्शा बदल जाए.


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