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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

आइए अपने गिरेबान में झाँककर देखें !

          समाज में जिन आदर्शों  और मूल्यों की हम बात करते हैं और जिन्होंने उसके लिए संघर्ष करने का स्वत: जिम्मा लिया है; जब वे आदर्श और मूल्य उन्हीं के द्वारा ध्वस्त किए जाते पाए जाते हैं और इसके उदाहरण एक-दो नहीं कई-कई सामने आते  हैं तो ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक है कि समाज के स्वस्थ  होने में हमारी आस्था ही डिगने लगे और मन में यह प्रश्न उठने लगे कि क्या हम एक मिथ्याचारी ढोंगी समाज में जी रहे हैं . लोगों को आध्यात्म का रास्ता दिखाने का दावा करने वाला अनाचार में लिप्त पाया जाता है, भ्रष्टाचार  का  पर्दाफाश  करने वाला कदाचार का आरोपी पाया जाता है,महिला अधिकारों के लिए लडने की बात करने वाली संपादिका  अपने वरिष्ठ के कुकृत्यों  पर पर्दा डालने का प्रयास करती है,एक मंत्री और उसके  साहब पर  एक लडकी की निगरानी ए.टी.एस. से करवाने पर गुहार है, केंद्र  सरकार समेत देश की प्राय: सभी सरकारों पर भ्रष्टाचार के आरोप समय-समय पर लगते रहते हैं.

          यदि  यह प्रश्न खडा किया जाए कि क्या एक अरब से ऊपर की आबादी वाले   इस देश में यह कृत्य एवं इनके कर्ता-धर्ता अपवाद हैं अथवा सामान्य  बात बन चुके  हैं तो नि:संदेह बडी संख्या में लोग सामान्य होने की ही पुष्टि करेंगे.कदाचार एवं भ्रष्टाचार की व्यापकता  तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों की इनमें संलिप्तता बीमारी का लक्षण मात्र है तथा समाज में इस रोग के व्याप्त होने की तरफ  संकेत करती है.  शरीर जब अस्वस्थ हो जाता है तो पूरा रक्त ही दूषित हो जाता है, भले ही अलग-अलग अंग स्वस्थ दिखाई देते हों.

          पिछले कुछ अर्से में जब अन्ना के समर्थन में बडी संख्या में जनता उठ खडी हुई,जब पिछले दिसंबर में दिल्ली में घटित बलात्कार कांड के विरोध में जनता सडकों पर उतर आई और जब लोगों  ने टू जी तथा कोलगेट जैसे  घोटालों और अपराधियों को राजनीति में बनाए रखने के प्रयासों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की तो एक उम्मीद बंधी कि  लोग भ्रष्ट व्यवस्था से ऊब चुके हैं तथा उसे बदलने के लिए आतुर हैं.

         पर,  साधारणतया हम सभी आदर्शवाद की बात करते तो हैं पर स्वयं  को उसके प्रति प्रतिबद्धता से अलग रखना चाहते हैं.यही कारण है कि  जिन्होने आदर्शों को स्थापित करने का बीडा उठाया था वे  ही उन्हें धराशाई करते हुए नजर  आ रहे हैं-" जिनसे है वफा की उम्मीद  वो नहीं जानते कि वफा क्या है."  आदर्शों  का बीडा तो  सबने  ही उठाया था.अन्ना का समर्थन सत्ता पक्ष को छोडकर सबने ही किया था.दिल्ली बलात्कार कांड के विरुद्ध आवाज  सबने ही उठाई थी,घोटालों का विरोध  सबने किया था, राजनीति में अपराधियों के प्रति  वितृष्णा भी  सबने व्यक्त की थी. फिर  भी हम आदर्शवाद के प्रतिमानों को  आज टूटते हुए क्यूँ देख रहे हैं? आदर्शों को स्थापित  करने के लिए और उन्हें ध्वस्त होने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि हम सभी अपने-अपने हृदय में झाँकें और वहाँ छिपे हुए राक्षसों को खत्म कर दें. यदि हम अपने गिरेबान में झाँक कर दिमाग में पल रही तथा हलचल मचा रही अवांछित  लालसाओं को, उनके  सर उठाने के पहले तथा इसके पहले कि वे हमारे आदर्शों पर  प्रहार करें, समाप्त नहीं करेंगे तो कोई  लोकपाल,कोई नेता अथवा कोई  व्यक्ति देश में अपेक्षित सुधार नहीं ला पाएगा और न ही जीवन में मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हो  पाएगी.

गुरुवार, 28 नवंबर 2013

मौन किसी प्रश्नचिह्न का उत्तर नहीं.

          गुजरात में सरकारी तौर पर  एक महिला आर्किटेक्ट की निगरानी किए जाने का मामला पिछले  दिनों बहुचर्चित रहा है. श्री अमित शाह जिनका इस मामले  में प्रत्यक्ष तौर पर सामने नाम आया है तथा श्री नरेंद्र मोदी जिन्हें श्री अमित शाह द्वारा किसी 'साहब' का जिक्र किए जाने के  कारण अप्रत्यक्ष तौर पर इससे संबंधित समझा जा रहा है;  दोनों ही इस मामले पर मौन हैं

          गुजरात सरकार ने इसकी जाँच के लिए एक दो सदस्यीय आयोग नियुक्त कर दिया है.परंतु यह बात  इस आयोग के जाँच के दायरे में नहीं है कि  ऐसा क्यों किया गया. इस मामले में भारतीय जनता पार्टी  की तरफ से सफाई के तौर पर महिला के पिता की तरफ से एक पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें उनके द्वारा कहा गया है कि उन्होने स्वयं इस बाबत श्री नरेंद्र मोदी से आग्रह किया था जो उनके  पारिवारिक मित्र हैं.श्री नरेंद्र मोदी का कहना है कि जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आएंगे उनके खिलाफ षडयंत्र बढेंगे और अरूण जेटली के अनुसार राहुल के मुकाबले नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को देखते हुए ऐसा  किया  जा रहा है.

          इस मामले में गुजरात के निलम्बित आई. ए.एस. अधिकारी श्री प्रदीप शर्मा ने श्री नरेंद्र मोदी पर सीधे आरोप लगाए हैं जो एक  तरह उनके चरित्र पर आक्षेप करते हैं. प्रदीप शर्मा का यहाँ तक कहना है कि श्री नरेंद्र मोदी से महिला आर्किटेक्ट का परिचय उन्होने ही करवाया था.अरूण जेटली का कहना  है कि प्रदीप  शर्मा द्वारा लगाए  गए आरोप बेबुनियाद हैं और निलम्बन के कारण लगाए  गए हैं.ऐसा  हो भी सकता है जिसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है.

          परंतु मौन किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है वह भी तब, जब आप प्रधानमंत्री पद के उम्मीद्वार हों. सीताजी को भी अग्निपरीक्षा देनी पडी थी तथा एक धोबी द्वारा उनके बारे में शंका व्यक्त किए जाने पर  राम ने उनका परित्याग कर दिया था. श्री नरेंद्र मोदी अथवा अमित शाह में से किसी भी एक के द्वारा  यह स्पष्ट कर  देने पर कि इस प्रकार की निगरानी के पीछे क्या कारण थे,  संदेहों का निराकरण हो सकेगा अन्यथा दाल में कुछ् काला होने की संभावना को बल मिलेगा. राजनीति जिस निम्न स्तर पर उतर चुकी है वहाँ एक दूसरे पर हमले  करते हुए सारे  शिष्टाचार एवं मर्यादा को ताक पर रख दिया जा रहा है. ऐसे में यदि मोदी विरोधियों को एक मुद्दा मिला है तो वह उसे छोडने वाले नहीं हैं.

         लोकतंत्र की मर्यादा को देखते  हुए यह श्री नरेंद्र मोदी एवं अमित शाह का कर्तव्य है कि वे सच्चाई  को जनता के सामने लाएं.

बुधवार, 27 नवंबर 2013

" To be or not to be" dilemma before the "Indian Girls"

          Since early  childhood  Indian  Girls start facing some kind of harassment. Sometimes they tell  their guardians about this and many times they don't tell. As they grow up and reach the gate of puberty, harassment becomes very common as they go out of house and come back. They learn to ignore it.Often they face some kind of unwanted encounter on regular basis,yet they ignore it; in hope that one day it will  die down.Things come out into open only if water surpasses their head  and they are compelled to open their mouth or when a chance encounter makes their family members come to know of it.Their tormentors take advantage of their habit of ignoring and  continue with what they call " lighthearted banter" which sometimes takes shape of serious harassment and goes to the extent of what we call molestation or sexual harassment.

          It is not that once a girl achieves womanhood and becomes a gracious lady, the problem is over. Everywhere there are some wolves who are on prowl. They are very well  aware of habit of the Indian  Girls of ignoring. First they start with so called "Lighthearted banter" and  when the girl ignores, they take gradually it to other levels and continue till the girl ignores. If at some stage the girl murmurs, now they ignore it and continue with their activities in hope of "Consensual liaison". If they are in position of power they start pressurising or blackmailing the girl.  They are shaken off only if the girl violently protests, otherwise they proceed for the kill.

         As an investigating journalist and father of a grown up daughter the Tahalka Boss  should be well aware of the above analysis & facts . Now, Mr. Tahalka Boss! You should be knowing why the lady journalist, although tormented,  was still behaving normal on 9th of November after the incidences of 7th & 8th November. Every Indian girl, may be she is tormented by someone; when comes back to her house  behaves normal as she doesn't want to trouble her family members and wellwishers with her problems. She achieves perfection in this art of looking normal as a young lady, because she has been practising it since very childhood.

          So it will be be  foolish on your behalf to base your defence on the premises of the girl looking and behaving normal even after the said encounters with you. When a girl faces a predicament due to situations as created by ungentlemanly & lecherous behaviour of someone; she is allways in two minds and faces Shakespearian dilemma of  "to be or not to be", that is to spill  the beans or not, to take corrective steps or not. Sometimes someone's,whom  she confides  in, prodding   is needed to end her predicament and it takes its own course. Till then she behaves normally.So please don't try to befool  the judiciary. I think I've done enough to demolish your defence.

सोमवार, 25 नवंबर 2013

कार्यस्थलों पर महिलाओं एवं लडकियों की सुरक्षा!

          पिछले कुछ दिनों  अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों के दामन  पर चारित्रिक पतन के छींटों  दाग लगे  हैं. वे एक अहम सवाल सामने खडा करते हैं कि क्या लडकियों को कहीं भी सुरक्षित समझा जा सकता है.  बुजुर्गवार बाप सरीखे वे बास जिन्हें पहले से नैतिकता के रखवाले के रूप में ख्याति मिली हुई है यदि अवसर पाते  ही शैतान का रूप धारण कर लेते हैं तो  हम अपनी लडकियों की सुरक्षा कैसे करें . नि;संदेह आप सबको एक तराजू पर  नहीं तौल सकते, पर घटित घटनाएं यही बताती हैं कि कहीं भी आप इस प्रकार की संभावना से इन्कार नहीं कर सकते.

          कन्सेन्सुअल सेक्स,एक्स्ट्रा मैरिटल रिलेशनशिप और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे शब्द कुछ अर्से से  ज्यादा सुनाई देने लगे हैं और इनका प्रचलन बढा है. इनसे संबंधित चर्चा के दौरान अब ऐसे लोग आपको अच्छी तादाद में मिल जाते हैं जो कहते  हैं कि यदि दो वयस्क पक्ष इनके लिए सहमत हैं तो आपको क्या परेशानी है.इन शब्दों ने समाज के नैतिक आवरण या मोरल फैब्रिक को भेद्य बना दिया है और इस आवरण के भेद्य बन जाने पर संबंधित या इन अवधारणाओं से प्रभावित व्यक्ति संभावनाओं के द्वार  खोजने  लगता है. इन  विषयों पर  आधारित फिल्मों और सीरियलों ने भी इनके प्रचार-प्रसार और स्वीकार्यता  में योगदान  दिया है.संभावनाओं का द्वार खोजने वाला  व्यक्ति यदि उच्चतर स्थ्ति में है या उसके पास किन्ही अंशों में  सत्ता का कोई अंश है तो वह शिकारी की भूमिका में आ जाता है और बतौर शिकारी लाभप्रद स्थिति में होता है.  शिकार हमेशा ताकतवर द्वारा कमजोर का किया जाता  है. यह  शिकारी पंचतंत्र की  कहानियों के उस शेर की तरह होता है जो बूढा हो जाने पर सन्यासी  का वेश धारण कर लेता है और अपने संपर्क में आने वाले पशुओं को  आश्वस्त करता है कि वह साधु हो गया है तथा वे उसके साथ पूरी तरह सुरक्षित हैं.जब वह शेर पर  भरोसा कर  लेता है तब शेर उसका शिकार कर डालता है.

          इन दिनों समाचारपत्रों में आए मामलों के  अलावा  भी अपने कार्य के दौरान  मैंने इस तरह के कृत्य सुने-देखे हैं.मामला खुल जाने पर उन्हें दबाने  की कोशिश होती है क्योंकि संगठन की बदनामी का सवाल होता है और जहाँ यह नहीं संभव हो पाता है वहाँ ज्यादातर मामले जाँच समिति बिठाकर तथा छोटी-मोटी सजा देकर निपटा दिए जाते  हैं.यदि मामला बडे बास का होता  है तो दूसरे बडे अफसरों की सहानुभूति उनके साथ होती है.

          पर इन सारी समस्याओं के मूल में समस्या यह है कि हमने अपनी लडकियों को आज्ञाधीनता और विनीत भाव वाला बनाकर वश्य एवं  कमजोर बना दिया है. आज  कानून पहले से सख्त हुआ है और उनके माध्यम से लडकियाँ कार्यस्थलों पर बेहतर सुरक्षा प्राप्त कर सकती हैं,पर वे इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं. यदि लडकियाँ कार्यस्थलों  पर  किसी वरिष्ठ के  गलत  इरादे और अनाधिकार चेष्टा     दिखने पर उसका तुरंत तीव्र विरोध करें और बास के द्वारा इसके परिणामस्वरूप उत्पीडन की तथा  यहाँ तक कि काम छूट जाने की भी परवाह न करें तो वे साधुवेशधारी बासों के गलत इरादों को विफल कर सकेंगी. पर एक दु:खद तथ्य यह भी है कि कभी-कभी कुछ लडकियाँ  यह पाने  पर कि बास उनमें रुचि ले रहा है, उसे रोकने के स्थान पर  गौरवान्वित अनुभव  करती हैं अथवा उसका फायदा उठाने में लग जाती हैं  जिससे  वरिष्ठ को इस प्रकार की गतिविधियों के  लिए और प्रोत्साहन मिलता है.

          लडकियाँ ऊपर बताई गई परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम हों इसके लिए आवश्यक है कि उनका  पालन-पोषण करते समय लडके-लडकी जैसा कोई भेदभाव न किया जाए. लडकियों को निर्भीक , साहसी और दबंग  बनाया जाए.मैंने व्यवहार में  देखा है कि ऐसी लडकियों के साथ कोई भी बास दु:साहस नहीं  कर पाता अथवा फिर एक बार ठीक से डाँट खाने पर  सुधर जाता है. दृढतापूर्वक विरोध ऐसी स्थितियों से निपटने का सबसे कामयाब अस्त्र है.

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

प्रतिभाएं पुरस्कारों की मोहताज नहीं होतीं!

        इन दिनों भारतरत्न पुरस्कार को लेकर  विवाद का बाजार गर्म है. किसी का कहना है कि सचिन को भारत रत्न मिलने से पहले ध्यानचंद के नाम पर विचार  किया  जाना चाहिए था तो   किसी ने प्रश्न उठा दिया है कि अटल बिहारी  बाजपेयी के नाम पर भारतरत्न दिए जाने के लिए विचार क्यों नहीं किया गया. सवाल वाजिब भी है.जब खान अब्दुल गफ्फार खाँ और राजीव गाँधी को भारतरत्न दिया जा सकता है तो फिर अटल बिहारी बाजपेयी की दावेदारी इन  लोगों से किसी भी दृष्टि से कम नहीं कही जा सकती.पर मनीष तिवारी ने इसका स्पष्टीकरण भी दे दिया है कि चूँकि अटलजी ने नरेंद्र मोदी को राजधर्म की नसीहत देने  के बावजूद हटाया नहीं  था इसलिए उनकी दावेदारी नही बनती. गोया कि मनीष तिवारी ने  इतनी काबलियत हासिल कर ली है कि वे अटलजी के बारे  में निर्णयकर्ता की भूमिका  में आ गए हैं.

       पर इन सबसे ऊपर लाख टके की बात डॉ. फार्रूक अब्दुल्ला ने कही है कि अटलजी का व्यक्तित्व भारतरत्न पुरस्कार से बडा है  और मुझे यहाँ यह कहने   में कोई  संकोच नहीं है कि  सचिन का व्यक्तित्व भी भारतरत्न पुरस्कार  से बडा है. सचिन, सचिन ही रहता भले ही उसे भारतरत्न पुरस्कार दिया जाता या नहीं.क्रिकेट और खेल के इतिहास में  सचिन का आकलन भारतरत्न न दिए जाने पर भी महानतम बल्लेबाजों में से एक के तौर पर होता और भारतरत्न दिए जाने के बाद भी उसी तरह होगा.  ध्यानचंद हाकी के जादूगर कहलाते रहेंगे,उन्हें भारतरत्न नहीं मिला तो क्या. ऐसे ही अटलजी की सेहत पर भी भारतरत्न पुरस्कार न मिलने से कोई फर्क नहीं पडता. उनका आकलन इतिहास में भारतरत्न न मिलने पर भी वैसे ही अपना कार्यकाल पूरा करने वाले प्रथम और संभवत:  महानतम गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री ( कम से कम आज की  तिथि तक) के तौर होगा जैसे यह पुरस्कार मिल जाने की   स्थिति में होता.

        जो व्यक्ति वास्तव में महानता प्राप्त कर लेते हैं वे पुरस्कार पाकर सम्मानित होते हैं ऐसा मानना मेरे विचार से गलत है बल्कि इसके उल्टे उन्हें पुरस्कार दिए जाने पर उस पुरस्कार की गरिमा बढती है. नवोदित हो रहे व्यक्तियों के लिए अवश्य पुरस्कार  मान्यता दिलाने में मददगार होते हैं यथा अरुंधति रॉय और अरविंद अडिगा को बुकर पुरस्कार ने अंग्रेजी साहित्य की दुनिया में साहित्यकार  के रूप में स्थापित किया. पर चेतन भगत ने  अंग्रेजी साहित्य के ही क्षेत्र में अपनी पहचान अपनी  पाठकसंख्या के आधार पर बनाई है,किसी पुरस्कार के दम  पर नहीं.

          दुनिया में दिए जाने  वाले बहुत से पुरस्कार पूरी तरह निष्पक्ष और मेरिट पर आधारित नहीं होते.उदाहरण के लिए श्री बैरक ओबामा को सत्ता संभालने के छ: महीनों के भीतर मात्र इस आधार पर शांति के लिए नोबल पुरस्कार दे  दिया गया कि उन्होने अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के बारे में अपने इरादों की घोषणा कर दी  थी पर इस दिशा में कुछ ठोस किया जाना शुरू भी नहीं किया गया था. बिल गेट्स ने अपने एक वक्तव्य में कहा  था - Life  is  unfair,  get  used  to  it. मुझे कई बार  पुरस्कार मिले हैं . कई बार मैंने बडी मेहनत से पुरस्कृत कामों से भी श्रेष्ठ कार्यों  को अंजाम  दिया है पर तब कोई  पुरस्कार नहीं  मिला. कारण यह है कि तब कोई प्रस्तावक नहीं था. इन दिनों कई बार पुरस्कार लाबीइंग के कारण मिलते हैं या फिर प्रायोजित होते हैं अथवा इनके पीछे कई बार अन्य कारण जैसे मेरिट छोडकर अन्य कारणों से  किसी के लिए निर्णयकर्ताओं में किसी का पक्षधर होना होता  है  . अत: पुरस्कार मिलने पर फूल कर कुप्पा होना अथवा पुरस्कार न मिलने पर मन मसोसना मेरे विचार से गलत है. हाँ यह जरूर है कि यदि वाकई में आपने काम किया है तो प्रसन्नता और संतोष जरूर होता है कि किसी ने आपके कार्य को मान्यता दी.पर यदि आपके मन में अपने काम को लेकर संतोष है और पुरस्कार न मिलने पर भी लोग आपके काम की महत्ता को समझते हैं तथा उसे मान्यता देते हैं तो  इसे ही सबसे बडा पुरस्कार समझा जाना चाहिए.

शनिवार, 16 नवंबर 2013

NOTA सिर्फ अंग्रेजी का ज्ञान रखने वालों के लिए नहीं!

          विगत 27 सितम्बर,2013 को पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज द्वारा सन 2004  में दाखिल किए गए एक मामले  पर अपना निर्णय देते हुए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि मतदाताओं को चुनाव मतपत्र /ई वी एम पर  NOTA  ( नन आफ दि एबव )  अर्थात इनमें  से कोई नहीं का विकल्प दिया जाए ताकि ऐसे मतदाता जो चुनाव में खडे किसी भी उम्मीदवार को चुनने के  पक्ष में नहीं हैं अपने मताधिकार का प्रयोग  करते हुए सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर सकें. माननीय  सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को चुनाव सुधारों  की  दिशा में एक बडा कदम  मानते  हुए इसका काफी  स्वागत किया गया.

          तदनुसार चुनाव आयोग ने  आगामी चुनावों  के संबंध  में व्यवस्था की है कि काली पृष्ठभूमि में  सफेद अक्षरों में NOTA लिखा रहेगा तथा जो मतदाता सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार  करना चाहें वे इसके आगे बटन दबा कर  ऐसा कर सकेंगे.

          उक्त व्यवस्था करते समय चुनाव  आयोग ने शायद इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया है कि  हमारे देश में एक बडी संख्या निरक्षर मतदाताओं की है  और जो मतदाता साक्षर हैं उनमें भी आवश्यक  नहीं है कि सबको अंग्रेजी का ज्ञान  हो. मूलत: इसी बात को ध्यान में रखते हुए चुनावों में विभिन्न दलों एवं प्रत्याशियों के लिए चुनाव-चिह्न की  व्यवस्था  की  गई है ताकि अनपढ मतदाता भी अपना मत अपनी इच्छानुसार सही जगह पर डाल सकें. इसे ध्यान में रखते हुए NOTA  के  लिए किसी चिह्न का प्रयोग करना अधिक उपयुक्त होता. इसके लिए ठेंगा ( सामने की चार उँगलियाँ मुडी  हुई तथा अँगूठा ऊपर की  तरफ सीधा खुला हुआ ) जिसे हमारी संस्कृति में 'कुछ भी  नहीं' का प्रतीक माना जाता है अथवा फिर 0 (शून्य  का चिह्न) जैसा कोई चिह्न प्रयोग में  लाया जा सकता था.  पुनश्च केवल अंग्रेजी में लिखे NOTA  का विकल्प देकर संविधान की धारा 343 की स्पिरिट का भी उल्लंघन किया गया है जिसके तहत हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के विकास की बात  की  गई है. आखिरकार NOTA  का विकल्प सभी भारतीयों के लिए है, न कि केवल अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों के लिए . इस बात को मद्देनजर रखते हुए चुनाव आयोग  के लिए यह अधिक उपयुक्त होगा कि वह  NOTA  के कार्यान्वयन के लिए अंग्रेजी में लिखे हुए NOTA के स्थान पर किसी चिह्न की व्यवस्था करे जिसे साक्षर और निरक्षर तथा किसी भी  भाषा का ज्ञान रखने वाले भारतीय समझ सकें .

शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

सर्वव्याप्त हो रही विद्रूपता

         जुलाई के महीने में मेरे द्वारा  लिखे एक आलेख पर सुश्री कविता रावतजी ने  रहीमदासजी को उद्धृत करते हुए कहा था-" जिह्वा ऐसी बावरी कह गई सरग पताल।खुद तो कह भीतर भई जूती खाय कपाल्॥"

          11 नवंबर के दिन सी.बी.आई. द्वारा आयोजित संगोष्ठी के दौरान  "खेल-कूद में नैतिकता और  ईमानदारी"  पर हो रही परिचर्चा के दौरान सी.बी. आई. निदेशक ने बेटिंग को कानूनी जामा  पहनाने की  वकालत करते हुए  कहा कि  जब राज्यों द्वारा लाटरी का आयोजन किया जा रहा है, पर्यटनस्थलों में कैसीनो चलाए जा  रहे हैं और सरकार काले धन की स्वत: घोषणा हेतु माफी योजनाएं घोषित करती है तो बेटिंग को कानूनी स्वरूप देने में क्या हर्ज है. सी.बी.आई. निदेशक के यह अपने विचार हो सकते हैं और नि:संदेह उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत अपनी  राय व्यक्त करने का पूरा अधिकार है. पर अपनी बात की  विवेचना करते हुए उन्होंने आगे जो कुछ कहा वह ठेठ पुलिसिया अंदाज में था और शायद लोगों को मनोरंजक ढंग से अपनी बात बताने के चक्कर में वह यह भूल गए थे कि वे पुलिस वालों के बीच में नहीं बल्कि जनता के  विभिन्न वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के बीच बैठे हैं. निश्चय ही एक सार्वजनिक मंच पर  उनका यह कहना हतप्रभ कर देने वाला था- क्या  हमारे पास एंफोर्समेंट एजेंसियाँ हैं? अगर हम एंफोर्स नहीं कर सकते हैं तो यह उसी तरह है जैसे यदि आप बलात्कार को रोक नहीं  सकते हैं तो उसका आनंद लीजिए.

          तमाम महिला संगठनों ने सी.बी. आई. निदेशक की  निंदा की है.कुछ ने उनके इस्तीफे की माँग की है  तो  कुछ ने आंदोलन चलाने और कुछ ने न्यायालय  का रुख करने का इरादा जताया है. निदेशक महोदय ने बार-बार  अपने कथन पर स्पष्टीकरण दिया है,खेद जताया है पर कोई सुनने को तैयार नहीं है. स्पष्टत: उनकी  गलती अक्षम्य है. महिलाओं   के खिलाफ अपराधों में पिछले कुछ अर्से में  दर्ज की गई बढोत्तरी और और इसके खिलाफ आई जागृति तथा पिछले वर्ष दिल्ली में चले आंदोलन तथा अन्य कई स्थानों पर भी ऐसे अपराधों के खिलाफ जनता के सडक पर उतर आने को देखते हुए देश के सर्वोच्च पुलिस अधिकारियों में गिने जाने वाले सी.बी.आई. निदेशक को महिलाओं  के खिलाफ होने वाले अपराधों की गंभीरता का अहसास होना चाहिए था जो उनके द्वारा दिए गए उदाहरण के परिप्रेक्ष्य में लगता है कि उन्हें नहीं है.

          देश में विभिन्न सभाओं और रैलियों में सत्ता और विपक्ष दोनों ही तरफ के  अग्रणी पंक्ति के कुछ  नेताओं द्वारा दिए जा रहे भाषणों से लगता है कि जैसे लोक-जीवन में सामान्य शिष्टाचार के लिए भी कोई स्थान नहीं रह गया है. नेतागण शायद जनता को मनोरंजक तरीके से अपनी बात बताना चाहते हैं  पर उससे संबंधित उनकी समझ इतनी खोटी है कि उनकी कही हुई बातों को सुनकर उबकाई सी आने लगती है. आखिर आप किसी के प्रति गालियाँ भी कितनी सुन सकते हैं. उसकी भी एक सीमा होती है.  इसके बाद यदि अग्रणी पंक्ति के हमारे अफसरगण भी भाषाई संयम खोने लगते हैं  तो  किसी से भी क्या उम्मीद की जा सकती है. वैसे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग यदि स्वयं सतर्क न रहें तो उनके लिए यह स्वाभाविक होता है क्योंकि उनके चारों तरफ बैठे हुए लोग प्राय:  चमचे की  श्रेणी के होते हैं, और जो  इस श्रेणी में नहीं होते हैं वे सच का अहसास कराने की हिम्मत नहीं करते या फिर ऐसा करना व्यर्थ समझते  हैं. मनोरंजन और  हास्य का स्वरूप विद्रूप होता जा रहा है जिसकी झलक टी.वी. पर आ रहे कई हास्य कार्यक्रमों में दिखाई दे  रही है.शायद इसी कारण यह विद्रूपता सर्वव्याप्त होती सी दिख रही है.

शनिवार, 2 नवंबर 2013

प्याज और टमाटर के लिए डकैती !

         प्याज की बढती कीमतों के कारण इन पर आधारित अनेक कार्टून पिछले कुछ दिनों से देखने में आ रहे थे. पर ऐसा लगता है कि इन  कार्टूनों में दिखाया गया हास्य हकीकत में बदल रहा है. एक समाचार के अनुसार उत्तरप्रदेश के जौनपुर में पिछले महीने डकैतों के एक गिरोह ने प्याज से भरे एक ट्रक के ड्राइवर और क्लीनर को मारकर ट्रक अपने कब्जे में कर लिया.  पुलिस ने  आठ डकैतों में से पाँच को गिरफ्तार कर लिया  है जबकि तीन  अभी भी फरार हैं. गिरोह ने पुलिस को बताया है कि  वह इसके पहले टमाटर से भरा ट्रक भी लूट चुका है पर टमाटर के खराब हो जाने के कारण गिरोह उसे बेच नहीं सका.

          कल मैं बाजार सब्जियाँ लेने गया था.  मैं  कोलकाता के जिस क्षेत्र में  निवास करता हूँ वहाँ सब्जियों की  आमद अच्छी है और शेष कोलकाता की तुलना  में सब्जियाँ सस्ती हैं.फिर भी  सब्जियों का औसत भाव सत्तर रूपए किलो था. बैगन जैसी सब्जी अस्सी रूपए किलो थी.  यदि यही हाल रहा तो  शायद  कुछ  दिनों के बाद प्याज और  टमाटर के अलावा बैगन,लौकी, कद्दू  और भिंडी जसी सब्जियों के लिए भी डकैती और चोरी के किस्से अखबारों में पढने को मिलेंगे. हमारे वित्तमंत्री सदृश जो लोग देश की अर्थव्यवस्था में बेहतरी आने का दावा कर रहे हैं वे कृपया इस तरफ भी ध्यान दें  और बताएं कि यह कैसे  देश की अर्थव्यवस्था में किस प्रकार के सुधार का द्योतक है. जो लोग गरीब के खैरख्वाह होने का दावा कर रहे हैं वे कृपया बताएं कि ऐसी परिस्थितियों में शहर में रह  रहा गरीब जो पचास रूपए प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन की दर से भी कमाई करने की स्थिति में गरीब की सरकारी परिभाषा से बाहर है अपना जीवनयापन कैसे करेगा.

         सरकार सोने की खोज  में लगी हुई है जबकि लोगों को जरूरत  आलू-प्याज ,धान और गेंहू  की है. दूसरी तरफ सत्ताधारी दल के विद्वान समझे जाने वाले मंत्रीगण भी ऐसे बयान देने में लगे  हैं जो लोगों को हँसने पर मजबूर कर देते हैं. कानून मंत्री कपिल सिब्बल द्वारा दिए गए एक बयान के अनुसार  प्याज की कमी और  उसके दामों में बढोत्तरी के लिए नरेंद्र मोदी जिम्मेदार  हैं क्योंकि उन्होने कच्छ  में अडानी समूह को जो जमीन उनके व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए दे दी है, वहाँ प्याज की खेती होती थी और वह प्याज अब बाजार में आनी बंद हो गई है.