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गुरुवार, 28 मई 2015

खेती का मुआवजा-सभी ऊँटों के मुँह में जीरा !

          लखनऊ आने पर मुझे इस बात की जानकारी हुई कि उत्तर प्रदेश की सरकार असमय हुई बारिश के कारण कृषि एवं कृषकों को हुई क्षति के लिए मुआवजा देने के बारे में एक ऐसी नीति पर चल रही है जो कागजी और दिखावे वाली अधिक है और जिससे उन लोगों को राहत देने का उद्देश्य पूरा नहीं होता जिनकी कृषि को वास्तव में हानि हुई है। 

          सरकार ने डेढ हजार रूपए प्रति बीघा मुआवजे की दर निर्धारित की है। जिनके पास खेती की भूमि नहीं है या जो भूमिहीन हैं उन्हें भी डेढ हजार रूपए का मुआवजा दिया जा रहा है।
मेरे कुछ संबन्धी लखनऊ में रहते हैं जिनका मूल निवास स्थान फैजाबाद-सुल्तानपुर की सीमा पर है। इनकी खेती की भूमि फैजाबाद में है पर घर और बाग सुल्तानपुर जिले में है। सुल्तानपुर जिले में इन्हें भूमिहीन की श्रेणी में मानते हुए प्रत्येक को पंद्रह सौ रूपए का चेक प्रदान किया गया है। यह सभी संपन्न लोग हैं जो उच्च पदों पर सेवा कर चुके हैं या कर रहे हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जो कभी गाँव जाते भी नहीं हैं। इन्हें मुआवजा दिए जाने का क्या औचित्य है , मैं समझ नहीं पाता। पर सरकार की तरफ से बिना स्वविवेक (discretion) का इस्तेमाल किए मुआवजा दिए जाने के कारण इन्हें पंद्रह सौ रूपए दिए जा रहे हैं जो इनके लिए कोई मायने भी नहीं रखते। मुझे यह राष्ट्रीय धन का अपव्यय लगता है। यदि यह धनराशि किसी वास्तविक भूमिहीन को दी जाती और उसे पंद्रह सौ रूपए के स्थान पर तीन हजार रूपए दे दिए जाते तो वह शायद अधिक सार्थक होता।

          सरकार को सोच-विचारकर इस विषय में नीति बनानी चाहिए ताकि मुआवजा सही हकदार लोगों तक जिन्हें वास्तव में उसकी जरूरत है,पहुँचे।
कृषि क्षेत्र में आपदा कोई अनहोनी नहीं है और प्रायः यह समस्या ग्रामीण भारत को त्रस्त करती है। यदि सरकार कृषि के लिए मामूली प्रीमियम पर वास्तविक रूप में की गई कृषि पर वास्तविक कृषिकर्ता को बीमा की सुविधा उपलब्ध कराए तो यह स्थायी और कारगर इलाज होगा। इससे ऐसे भूमिहीन या कृषिकर्ता जो दूसरों की भूमि लेकर उस पर खेती करते हैं अपना वास्तविक मुआवजा पा सकेंगे । साथ ही, यह सामान्य किसानों के लिए भी क्षतिपूर्ति हेतु उपयुक्त होगा। एक अन्य बात यह है कि काश्तकारों के व्यक्तिगत विवरण भी रखे जाएं और मुआवजा या बीमे की रकम उन्हीं लोगों को दी जाए जिन्हें वाकई उसकी जरूरत है। जो लोग अच्छी तनख्वाह पर नौकरियाँ कर रहे हैं या जिनके लिए प्रचुर आय का अन्य भरोसेमंद साधन है , उन्हें मुआवजा देना राष्ट्रीय धन के अपव्यय के सिवा कुछ नहीं है । इसके स्थान पर वास्तविक हकदार लोगों के मुआवजे/बीमे की रकम बढाई जाए। आज की सभी ऊँटों के मुँह में जीरा देने की जो नीति है उससे किसी को कुछ हासिल नहीं होगा सरकार भले ही यह सोच रही हो कि सबको खुश रखकर सबके वोट मिल जाएंगे।


सोमवार, 25 मई 2015

अच्छे दिन (गजल)

हवा के खिलाफ चलकर पास आ जाने वाले हमेशा साथ निभाते हैं।
हवा के साथ बह भी आते हैं जर्द पत्ते ,जो हवा के साथ वापस चले जाते हैं।।

अच्छे दिनों में न भूलो कभी दुश्वारियों में साथ रहने वालों को।
अच्छे दिनों की आस में साथ आने वाले गमकशी में साथ छोड जाते हैं।।

जब दिन किसी के अच्छे हों, बताना उससे रिश्ता जमाने की फितरत है।
जो आ जाएं गर्दिश भरे दिन सिर्फ सच्चे रिश्ते वाले साथ रह जाते हैं।।

खाली दामन को भी जो थाम लें मुहब्बत से वो आखिर तक साथ निभाते हैं।
दामन भरा देख थामने वाले, दामन खाली होते ही तोबा कर जाते हैं।।

अच्छे दिनों  का वादा करने वाले ,अपने वादे को निभाने का हौसला रखना।
वादे तो यूँ  टूटा भी करते हैं पर सरताज भूले वादे तो मुल्क के अरमां टूट जाते हैं।।  
-संजय त्रिपाठी

मंगलवार, 19 मई 2015

भारतीय समाज पर अरुणा शंबाग का कर्ज

          अरुणा शंबाग इस पूरे देश की व्यवस्था पर एक सवाल खड़ा करती हैं। कुछ लोग उन्हें यूथनेशिया संबन्धी डिबेट के लिए धन्यवाद दे रहे हैं। कुछ लोग श्रद्धांजलि दे रहे हैं। पर मेरी नजर में अरुणा शंबाग सबसे बड़ा सवाल इस देश के क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम पर खड़ा करती हैं, इस देश की सामाजिक व्यवस्था पर खड़ा करती हैं। 

          सहकर्मी कर्मचारी के वेष में एक जघन्य अपराधी ने अरुणा शंबाग के साथ वह कृत्य किया कि वह जब तक जिंदा रही हजारों-हजार बार मरती रही।पर न जाने किन सामाजिक कारणों से अपराधी के विरुद्ध सिर्फ डकैती का मामला दर्ज कराया गया। सभी अपराधी का अपराध जानते थे पर वह डकैती के अपराध के अंतर्गत सात वर्ष की सजा पाकर छूट गया। यहाँ सवाल यह उठता है कि अपराधी का वास्तविक अपराध जानते हुए भी पुलिस व्यवस्था और न्याय व्यवस्था क्यों उसके प्रति पंगु बनी रही और क्यों यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि अपराधी को उसके द्वारा किए गए अपराध के अनुरूप सजा दी जाए ताकि समाज में एक संदेश जाए। अरुणा शंबाग इस देश और समाज की विफलताओं का एक उदाहरण हैं। वह एक ऐसा कर्ज चढ़ाकर गई हैं जो तब तक पूरा नहीं होगा जब तक इन व्यवस्थागत खामियों को दूर कर पुलिस और न्याय व्यवस्था को पूरी तरह सुधारा नहीं जाता। तभी यह समाज सच्ची श्रद्धांजलि दे सकता है और सच्चे अर्थों में पश्चाताप कर सकता है। जब भी कहीं अरुणा शंबाग का नाम आता है इस देश के नागरिक के तौर पर मेरा सर शर्म से झुक जाता है। 

          अरुणा शंबाग के पूरे प्रकरण में अगर कहीं कोई आशा की किरण है तो वह के ई एम अस्पताल की नर्सें हैं। तुम्हें मुक्ति मिली पर हम सब माफ करने लायक नहीं हैं अरुणा, हमें कभी माफ मत करना।

शुक्रवार, 15 मई 2015

उसकी बद्दुआओं से बचकर रह पाएगा कैसे कोई (गजल)

                   -गजल-

उसकी बद्दुआओं से बचकर रह पाएगा कैसे कोई
लूटा उसे जिसने वो और नहीं, अपना ही था कोई

जराफत किसी की अब उसे भाए भी तो कैसे
जरीफ से बन गया जारसां वो अपना ही था कोई

उस मकां ए दिल में रहने की हसरतें रहती हैं अधूरी
शिकस्ताहाल किया जिसने वो अपना ही था कोई

किसी की रहबरी में चलना अब उसे मंजूर नहीं
रहबर बनके की राहजनी वो अपना ही था कोई

बारहा कोशिश कर ऐतबार उसका पाए कोई कैसे
लूटा उसे जिसने वो और नहीं अपना ही था कोई

कूच ए खमोशां में भी रही अधूरी दीदार ए आरजू
तुरबत का लुटेरा जरपरस्त अपना ही था कोई
                           - संजय त्रिपाठी

( रजिया दलवी जी के एक शेर की पंक्ति - " लूटा जिसने वो और नहीं अपना ही था कोई " पर मन की प्रतिक्रिया से उपजी गजल)

रहबरी=पथप्रदर्शन, जराफत=परिहास, जरीफ=दिल्लगीबाज, जारसां=चोट पहुँचाने वाला, कूच ए खमोशां=कब्रिस्तान, जरपरस्त= लोभी

शनिवार, 9 मई 2015

दिग्भ्रमित बच्चे!

          दो-तीन माह पूर्व मेरे सुनने में एक स्थानीय घटना आयी कि दसवीं कक्षा में पढने वाली एक बालिका प्रात: लोकल ट्रेन से कट कर मर गई। सुन कर दु:ख हुआ। महानगरों में लोकल ट्रेन से दुर्घटना कोई नई बात नहीं है।कुछ समय के अंतराल पर इस प्रकार की घटनाएं घट जाती हैं। एक- दो दिन के बाद किसी से सुना कि बालिका ने आत्महत्या की थी। कारण क्या था यह बताने वाले ने नहीं बताया। फिर समय बीतने के साथ बात पुरानी पड गई।

          इधर एक -दो दिन पहले एक परिचिता मेरी पत्नी से मिलने आईं। उनकी बेटी दुर्घटनाग्रस्त बालिका के साथ पढती थी। वे जो बता गईं वह मन को कहीं अंदर तक झकझोर गया।उन्होंने बताया कि दुर्घटनाग्रस्त बालिका गर्भवती थी। उसका बारहवीं कक्षा में पढने वाले किसी छात्र के साथ प्रेम संबंध हो गया था। वे दोनों साथ ही आत्महत्या करने गए थे ।  अंतिम क्षणों में प्रेमी की हिम्मत जवाब दे गई और वह भाग खडा हुआ पर बालिका ने आत्महत्या कर ली।

          इस घटना ने मेरे मस्तिष्क में अनेक प्रश्नचिह्न खडे कर दिए। बालिका जिस स्थिति में थी,उसे सपोर्ट और काउंसेलिंग की जरूरत थी जो शायद उसे उपलब्ध नहीं थी। अपने घर में भी वह अपने माता-पिता  अथवा परिवार के किसी अन्य सदस्य के भी इतना निकट शायद नहीं थी कि उन्हें अपनी बात बता सकती या अपना दु:ख-दर्द उनके साथ शेयर कर सकती ताकि वे उसका समाधान निकालते।विद्यालय में भी संभवत:कोई ऐसा नहीं था जिससे बच्चे अपनी बात कहते अथवा उचित सलाह पा जाते।

          कुछ लोग शायद यह भी कहेंगे कि बालिका दोषी थी और उसे तद्नुरूप परिणाम मिला। पर सवाल यह उठता है कि इस सब घटना में क्या सारा दोष बालक-बालिका का है।क्या माता-पिता तथा अध्यापक-अध्यापिकाओं का यह दायित्व नहीं है कि बच्चों को लेकर सजग रहें और उनमें उचित-अनुचित का बोध पैदा करें। हम लोग बच्चों को टी वी सीरियलों तथा फिल्मों के माध्यम से प्रौढ व्यवहार( एडल्ट बिहैवियर) के प्रति एक्सपोज कर रहे हैं। माता-पिता के साथ भी बच्चों का अंतरव्यवहार( इंटरैक्शन) और अंतरंगता सीमित है। कई बार माता- पिता के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं होता। दूसरी तरफ विद्यालय में अध्यापक-अध्यापिका के भी पास बच्चों के लिए समय नहीं है। वे किसी तरह विद्यालय आते हैं,अपनी ड्यूटी निभाते हैं और चले जाते हैं। सभी अध्यापक-अध्यापिकाएं बच्चों के साथ इंटरैक्शन भी नहीं करते।

          इन कारणों से मुझे यह आवश्यक प्रतीत होता है कि सभी विद्यालयों मे बच्चों के लिए काउंसेलर हों जिनसे बच्चे बेझिझक मिलकर अपनी समस्याएं बता सकें और वे भी इतने समर्पित हों कि बच्चों की समस्याओं को जानने, समझने और सुलझाने में रुचि लें। जिस बच्ची ने आत्महत्या की अगर उसे कोई सही रास्ता दिखाने वाला मिल गया होता तो शायद वह दुर्घटना का शिकार होने से बच जाती।