बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
जीवन बंजर तुझ बिन, तू बरसे
तो रस
ताप से कुम्हलाए मनुज और
प्रकृति
तू आया सब खिल कर रहे विहँस
॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
आसरहित हो तेरे बिन सब थे
रहे तरस
व्यथित मन तापित हो लगा लगने विरही
तू बरसा तो रूक्ष
जीवन बना सरस ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
धरती पे हरीतिमा फिर से गई
परस
तुझे पा हुई निहाल शुष्क पडी वसुधा
कृषक हुए मुदित कांधे पे लिए करष ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
देख आहलादित मयूर नाच उठे बरबस
तू बरसाता बूँदे जिनमें है
भरा अमिय
समस्त सृष्टि को देता भर जीवनरस ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
शहरी मेम भीजें, कोसें ले
स्वर कर्कश
शहरी बाबू बेचैन हो खोजें छायास्थल
पर गाँव की गोरी तुझे देख
रही हरष ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
गंगा पे धार तेरी जब पडी
प्रखर
नौका रह गई घाट पर बँधी की बँधी
राजा न आया, बनारस में
बना रस ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
हौले- हौले से बरसा बूँदें
छप्पर पर
झींगुरों से हो गई गुंजारित निशा
परदेशी हित कोई करवट ले
रहा सिहर ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
घूँघट के सायों से फूट रही है बतरस
ताल से दादुर रहे
पुकार प्रिया को
दे उल्लास, न रख कहीं कोई कोरकसर ॥
बरस-बरस, बरस रे मेघा खूब बरस
बता तेरे कलश में
है कितना मधुरस
अभी रुक,मत जा छोडकर ठाँव
मेरा
तू लेकर आया है जीवन में
नवरस ॥बरस-बरस, बरस रे मेघा तू खूब बरस॥
- संजय त्रिपाठी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें