“इफ्तार” के बारे में इंटरनेट खंगालने पर मुझे निम्नलिखित
जानकारी मिली-
इफ्तार अरबी
शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ नाश्ता है। इस शब्द को रमजान के महीने में सायं
सूर्यास्त के बाद मगरिब की नमाज के समय रोजा खोलने के लिए खाद्य ग्रहण किए जाने हेतु प्रयोग में लाया जाता है।
सुन्नी समुदाय के लिए इसका समय सायं की प्रार्थना की पुकार के समय होता है जबकि
शिया समुदाय के लिए इसका समय सायंकालीन प्रार्थना के बाद होता है। इस्लाम में
सामूहिक रूप से मजहबी क्रियाकलापों को संपन्न करने को महत्व दिया गया है। पैगम्बर
मुहम्मद का अनुसरण करते हुए तीन खजूर खाकर रोजा खोलना अच्छा समझा जाता है पर इसी
प्रकार रोजा खोला जाए यह आवश्यक नहीं है। मुस्लिम समाज में गरीबों के प्रति दयाभाव
रखने का विशेष महत्व है इस कारण उन्हें इफ्तार खिलाना पुण्य का काम समझा जाता है
क्योंकि पैगम्बर मुहम्मद भी ऐसा किया करते थे। श्री ए एच कासमी के अनुसार इफ्तार के समय
निम्न आशय की प्रार्थना पढनी चाहिए - “ ऐ
अल्लाह , आपके लिए मैंने रोजा रखा और आपके आशीर्वाद से मैं इसे खोल
रहा हूँ”| भारत के
अधिकांश भाग में मुस्लिम अपना रोजा परिवार और मित्रों के साथ खोलते हैं। कई
मस्जिदों में इफ्तार की व्यवस्था की जाती है।
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के अनुसार “ रमजान में
रोजा अहम इबादत है। रमजान अल्लाह ताला का महीना है। अल्लाह फरमाता है कि रोजेदार को
उसके रोजे का बदला मैं खुद दूँगा। इसे कुरान का महीना भी कहा जाता है। रमजान में पाँचों
वक्त की नमाज के अलावा इशा की नमाज के बाद
बीस रकात तरावीह में कुरान का पूरे माह सुनना जरूरी है। रमजान में कुरान की तिलावत
भी अहम इबादत है। वहीं रोजा इफ्तार करवाने में भी बडा सबाब है।"
अब बात करें
राजनीतिक पार्टियों द्वारा दी जाने वाली इफ्तार दावतों की। मैं नहीं समझ पाता हूँ
कि रमजान के पूरे महीने के दौरान मुस्लिमों में पवित्रता और पुण्यता का भाव बनाए
रखने की जो बात कही गई है वह इन राजनीतिक इफ्तार पार्टियों में कहाँ तक होती है।
वस्तुत: इनके पीछे छिपे राजनीतिक उद्देश्य इनके विपरीत हैं। इनमें आमंत्रित लोगों
में बडी संख्या ऐसे लोगों की होती है
जिनका रोजा रखने से कोई लेना-देना नहीं होता। इस्लाम दयाभाव पर विशेष जोर देता है।
पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा आयोजित इफ्तार विशिष्ट लोगों के लिए होते हैं और
शायद कोई गरीब या यतीम अगर इनकी इफ्तार पार्टी में शामिल होने पहुँच जाए तो उसे
दरवाजे से ही बाहर कर दिया जाएगा। अगर राजनीतिक पार्टियाँ इन गरीबों और यतीमों के
लिए इफ्तार का आयोजन करतीं तो समझ में बात आती कि हाँ कहीं इस्लाम की शिक्षा का
अनुकरण किया जा रहा है। अगर राजनीतिक
पार्टियाँ मस्जिदों में इफ्तार आयोजित करने में सहयोग प्रदान करतीं तो भी समझ में
आता कि वे मुस्लिम समाज को सहयोग प्रदान कर रही हैं। पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा
आयोजित इफ्तार पार्टियों में मात्र सर पर टोपी लगाकर स्वयं को मुस्लिम समाज का
खैरख्वाह साबित करने की भावना ही बलवती नजर आती है।
भारत स्थित
पाकिस्तानी दूतावास तो हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों से बहुत आगे निकल गया है।
उसकी नजर में ईद मिलनोत्सव मात्र हुर्रियत के नेताओं और जम्मू काश्मीर के
अलगाववादियों के साथ करने की जरूरत है।
इफ्तार जैसे
पवित्र आयोजन को राजनीति से दूर रखने के विषय में पश्चिम बंगाल के माल्दा कॉलेज के
प्राचार्य मोहम्मद अनवारुज्जमाँ ने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है। जब उनके ऊपर कॉलेज
में इफ्तार पार्टी आयोजित करने की अनुमति देने के लिए सत्ताधारी दल के स्थानीय नेताओं
द्वारा दबाव डाला गया तो उन्होंने स्पष्ट कहा कि इफ्तार एक धार्मिक आयोजन है और वे
कॉलेज में इसकी अनुमति नहीं देंगे । अधिक
दबाव पडने पर उन्होंने अनुमति देने के बजाय त्यागपत्र दे देना बेहतर समझा। अंततोगत्वा
सत्ताधारी दल के केंद्रीय नेतृत्व ने स्थिति की गंभीरता को समझा और शिक्षा मंत्री के
आग्रह पर उन्होंने अपना त्यागपत्र वापस लिया।
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