बचपन में मैंने उत्तर प्रदेश में होने वाली शादियों में ठन-गन की परम्परा देखी
थी। तब विवाह समारोह तीन दिन के हुआ करते थे और विवाह कार्यक्रम के दूसरे दिन खिचडी की रस्म होती थी। खिचडी की इस
रस्म में दूल्हा अपने घर के लोगों और बारातियों के साथ दोपहर के भोजन के तौर पर खिचडी
खाने आता था। इस समय कन्या-पक्ष, वर-पक्ष को अपनी तरफ
से दी जाने वाली विविध सामग्री और वस्तुएं भी वहीं लाकर रख देता था। दूल्हा यदि इससे
संतुष्ट रहता तो खिचडी खाना शुरू कर देता था और असंतुष्ट होने की स्थिति में खाना नहीं
शुरू करता था। इस पर कन्या-पक्ष के लोग उससे पूछते कि उसे और क्या चाहिए और वर अपनी
मांग रखता। यदि कन्या-पक्ष के लोग सहमत होते तो ठीक अन्यथा मान-मनौवल का दौर चलता। यदि वर पक्ष के
लोग सरल हुए तो आसानी से मान जाते थे, नहीं तो अपनी जिद पर अड जाते। कई बार इसके बाद ले-दे, गाली - गलौज और यहाँ तक कि जूतम-पैजार की नौबत आ जाती। मेरे
एक मराठीभाषी मित्र ने मुझे कई वर्ष पहले बताया था कि एक बार वह अपने किसी उत्तर प्रदेशीयमित्र
की शादी में शामिल होने गया और वहाँ ऐसा ही कुछ घटित हो गया। थोडी देर में ही कन्या-पक्ष
की तरफ से कई लठैत लट्ठ लेकर आ गए और उन्होंने सारे बारातियों को घेर लिया। उत्तर प्रदेश
के लोगों के लिए तो यह कोई नई बात नहीं थी पर मराठीभाषी मित्र के होश फाख्ता हो गए। खैर जब थोडी देर के बाद मामला
सुलटा और लठैत अपनी लाठियाँ लेकर चले गए तब उस मराठीभाषी मित्र की जान में जान आई।
खिचडी वगैरह खाकर बारात जब वापस आई तो मराठीभाषी मित्र ने सीधे अपना सामान उठाया ,दूल्हे के आगे जाकर हाथ जोडे
और विदा माँगी। दूल्हे ने उससे रुकने के लिए बहुत आग्रह किया पर वह एक पल के लिए नहीं
रुका और सीधे अपने घर ही आकर दम लिया।
इधर संसद के मानसून सत्र में ऐसा लग रहा है कि ठन- गन की उसी परम्परा का निर्वाह
किया जा रहा है। कांग्रेस तो जैसे इस जिद पर
अडी हुई है कि दूल्हा हमारे पास है और ठन-गन का हक हमारा है और हम ठन-गन करते रहेंगे, पर सत्ता पक्ष का कहना है कि
दूल्हे वाले हम हैं तुम कैसे ठन-गन कर सकते हो। बेचारे कांग्रेसियों के गले संसद में
चिल्लाते-चिल्लाते फटे जा रहे हैं , पर सरकार पर कोई असर नहीं है। गले को ज्यादा कष्ट
न देना पडे इसके लिए कांग्रेसी भाई संसद में प्लेकार्ड लेकर आ रहे हैं । अधीर रंजन
चौधरी तो स्पीकर के डायस पर चढकर उन्हें प्लेकार्ड दिखाकर कांग्रेस को दूल्हावाला साबित
करने में लगे थे पर एक दिन के लिए निलम्बन का दंड झेलना पड गया। उनका और कई कांग्रेसियों
का चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया है। पर जैसे ही इनमें से कोई थक कर शांत होने लगता
है, इनकी नेत्री गृद्ध-दृष्टि से देखती हैं और मरता क्या न करता बेचारे किसी तरह फिर
चिल्लाने लगते हैं । मल्लिकार्जुन खडगे जी इन सबका हौसला बनाए रखने के लिए लौंग इत्यादि
लेकर आते हैं और बाँटते रहते हैं। फिर भी जब लगता है कि आवाज काम नहीं काम कर पा रही
है तो अन्य विपक्षी दलों की तरफ सहारे के लिए देखते हैं पर उधर से सहारा मिल नहीं रहा
है। ममता दीदी और मुलायम दादा ने भी नजरें फेर ली हैं। जब कांग्रेसी भाई कल्याण बनर्जी
की तरफ आशा भरी निगाह से देखते हैं तो वो दूसरी तरफ देखने लगते हैं। ऐसा लगता है कि
यदि संसदीय गतिविधियाँ इसी प्रकार चलती रहीं तो अगले चुनाव में टिकट लोगों को अपने गले की शक्ति का प्रदर्शन करने के आधार पर ही मिलेंगे।
स्व. ए.पी.जे. कलाम को श्रद्धांजलि देने रामेश्वरम पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के लोग गए। पर इस पर सोचने की आवश्यकता किसी ने नहीं समझी कि कलाम साहब की अंतिम चिंता क्या थी। शिलांग जाते समय विमान में कलाम साहब संसद के गतिरोध को कैसे दूर किया जाए इस पर विचार-विमर्श कर रहे थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू भी जब स्वर्गलोक से इस दृश्य को देखते होंगे तो अपने समय
की संसद में होने वाली स्वस्थ बहस और विचार- विमर्श को याद कर जरूर उनकी आत्मा लोकतंत्र
के इस हाल पर ,जिसमें उनके वंशज भी
हाथ बँटा रहे हैं, अपना सिर धुनती होगी।
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