पिछले कुछ दिनों से चल रही अखाडे वाली शैली की राजनीतिक बयानबाजी देखकर लगता है कि यदि गोस्वामीजी आज के युग में होते तो उन्हें कहना पडता-"देखि दसनन्हि सोझाई होऊँ बलिहारी।अब तौ जीभ भई गजब कटारी॥" गोस्वामी तुलसीदासजी ने विभीषण की रावण के साथ रहने की बेचारगी की तुलना विभीषण-हनुमान संवाद के माध्यम से दाँतों के मध्य जीभ के रहने से की थी-"सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।" इसी से कुछ आगे गोस्वामीजी एक चौपाई में विभीषण से कहलवाते हैं-"अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥" आगे हनुमानजी विभीषण से अपने विषय में कहते हैं-"कहहु कवन मैं परम कुलीना।कपि चंचल सबहिं बिधि हीना॥ प्रात लेई जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥ " एक तीनों लोकों के विजेता और देवों से भी गुलामी करवाने वाले लंकेश का भाई और दूसरा भगवान के अवतार समझे जाने वाले श्रीराम का दूत जिनकी आज तमाम जन उपासना करते हैं. पर दोनों किस विनम्र भाव से एक दूसरे से मिलते हैं;किस मुलायमियत से एक दूसरे से बात करते हैं.पर हम हिंदू धर्म के अनुयाई होने का दावा करते हुए भी अपने धर्मग्रंथों से भी कुछ नही सीखते हैं;लगता है शायद हरिकृपा का अभाव है.
नरेंद्रभाई मोदी बहुत परिश्रमी व्यक्ति हैं, जवाहरलालजी की तरह दिन में अट्ठारह घंटे काम करने वाले.ईमानदार हैं. आर्थिक नीति सबंधी उनके विचार और भविष्य की योजनाएं पानी की तरह साफ और स्पष्ट हैं.जनता को भी एक विकल्प की तलाश है.पर उन्हे यह सोचना चाहिए कि जब वे कुत्ते के पिल्ले और बुर्के जैसे उपमानों का प्रयोग करते हैं तो उनके माध्यम से क्या संदेश जाता है.इन शब्दों के प्रयोग से भाषणों के दौरान तालियाँ जरूर मिलती हैं,जो वक्ता को पुन: ऐसे शब्दों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती हैं पर आगे यदि इसी क्रम में मौलाना ,मियाँ,पायजामा जैसे शब्दों का प्रयोग होता है तो वे उनके विरोधियों की धारणाओं को न्यूट्रल जनसामान्य में पुख्ता करने का ही काम करेंगे.आज बी जे पी में मोदी को राजधर्म की याद दिलाने वाला कोई बाजपेयी नही है;फिर भी जय-जयकार करने वालों की भीड के बीच में यशवंत सिन्हा ने उन्हे कुछ नेक सलाह दी है जिस पर ध्यान देना उनके लिए अच्छा होगा.आज वे सिर्फ गुजरात के परिप्रेक्ष्य में राजनीति नहीं कर रहे हैं बल्कि उन्होने भारत माँ की सेवा करने की और उसका कर्ज उतारने की इच्छा व्यक्त की है. तो आज फिर उन्हें बाजपेयी के शब्दों को याद करते हुए भारत माँ के सभी बच्चों को अपना भाई-बहन समझते हुए उनकी संवेदनाओं को ध्यान में रखना होगा. मोदी, आडवाणी की रथयात्रा के कर्णधारों में से एक थे.इसलिए उन्हें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि अपनी सारी मेहनत के बावजूद हॉक की छवि रखने वाले आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे और बी जे पी को सर्वस्वीकार्य बाजपेयी को ही प्रधानमंत्री बनाना पडा था.इसलिए यदि वे इस देश के मुख्य कार्यकारी के पद को सुशोभित करना चाहते हैं तो उसके लिए अधिक से अधिक वर्गों में स्वीकार्यता एक अनिवार्य शर्त है .अन्यथा या तो जनता फिर कुशासन को ही झेलने को मजबूर रहेगी अथवा मोदी की मेहनत का फल कोई और खाएगा.अपनी स्वीकार्यता बढाने के लिए मायावती एक उदाहरण हैं जिन्होने"तिलक,तराजू और तलवार........." के नारे को छोडकर गणेशवंदना शुरू कर दी और अपने बूते बसपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में लाने में सफल रहीं.
मोदी अपनी तुलना शायद दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी से जबानी जमा खर्च के मामले में करवाना पसंद नही करेंगे जिनकी साख उस तरह दाँव पर नहीं लगी हुई है जिस तरह मोदी की.इसलिए यह दो व्यक्ति जो चाहे बोलें- चाहे बच्चा -बच्चा राम का नया नारा दें का या फिर पाँच रुपए की व्याख्या करें.उन्हें उनके हाल पर छोड देना चाहिए.
चलते-चलते:- शायद पच्चीस वर्ष पहले की बात होगी,मैं रेलगाडी द्वारा कानपुर से लखनऊ आ रहा था.कांनपुर से ही तीन महिलाएं भी चढीं जिन्होने बुरके पहन रखे थे,उनके चेहरे खुले हुए थे. उनके साथ एक पुरुष भी था.ये महिलाएं मेरे बगल में ही बैठ गईं.मेरे ठीक बगल में बैठी हुई महिला की उम्र यही कोई पचास वर्ष रही होगी.रास्ते में किसी जगह उनके बुरके का एक सिरा उलट गया तो मैंने देखा कि उस पर लगा हुआ लेबल करांची का था.मुझे लगा कि ये लोग पाकिस्तान से हिंदुस्तान की यात्रा पर आए हैं.अत: मैंने कुछ बात शुरू करने और पाकिस्तान के हालात के बारे में जानने की गरज से उन महिला से प्रश्न किया-"आप लोग पाकिस्तान से आए हैं?"
महिला ने मुस्करा कर जवाब दिया -"नहीं ,हम यहीं के हैं".
"आपके बुरके का लेबल करांची का है,इसलिए मैंने सोचा कि आप लोग पाकिस्तान से आए हैं",मैंने कहा.
"बुरका पाकिस्तान का है, पर हम हिंदुस्तान के हैं",महिला बोली.
अब उनके साथ का पुरुष बोला-"बात वही है कि -सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी".इस पर वहाँ बैठे हम सबके सब जन मुस्कुरा उठे.
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