13 मार्च,2014 को मेरे विवाह की बीसवीं वर्षगाँठ थी. एक दिन पहले गुलाम अली के द्वारा गायी 'इसरार' की गजल "हमें अब भी वो गुजरा जमाना याद आता है" सुन रहा था तभी कुछ मुखडे दिमाग में आए और मैंने 13 मार्च को यह गजल लिख डाली जिसमें इसी मिसरे का इस्तेमाल करते हुए नई गजल लिखी है. यह मेरी शरीक-ए-हयात को समर्पित है.
गजल
हमें आज भी वो गुजरा जमाना याद आता है
बीत चुका है जो वो फसाना याद आता है॥
नजरों से कुछ चुरा नहीं रहे थे हम फिर भी
तेरा वो चेहरे पर नकाब गिराना याद आता है॥
रात जब गहरा कर हो चली थी खामोश तब
तेरी पाजेब का सहसा बज जाना याद आता है॥
घटाओं को हटाकर निकल आया हो चाँद
यूँ तेरा रुख से हिजाब हटाना याद आता है॥
खुद का अहसास भी खो चुके थे हम ऐसे में
मन पे तेरा तेजाब सा छा जाना याद आता है॥
पतझड के मौसम ने रुखसती ली थी जब
फागुन में शबाब का छा जाना याद आता है॥
उम्र का इक दौर बीत भी चला है “संजय”
पर आशना बेहिसाब हो जाना याद आता है॥
-संजय त्रिपाठी,पलता पार्क ईशापुर,14 मार्च 2014
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