भारतीय मूल की नूर-उन-निसा इनायत खान ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अप्रतिम वीरता दिखाते हुए नाजी जर्मनी के आधिपत्य के फ्रांस में गुप्तचरी करते हुई इंग्लैंड को महत्वपूर्ण सूचनाएं उपलब्ध कराई थीं जिसके लिए उस समय उन्हें ब्रिटेन द्वारा जॉर्ज क्रॉस सम्मान प्रदान किया गया था. विक्टोरिया क्रॉस जहाँ युद्ध में सक्रिय भाग लेते हुए वीरता दिखाने के लिए ब्रिटेन द्वारा दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है वहीं जॉर्ज क्रॉस सक्रिय युद्ध के अलावा अन्य परिस्थितियों में भयावह खतरों के बीच अदम्य और अप्रतिम साहस दर्शाने के लिए दिया जाता है. विगत 25 मार्च को द्वितीय विश्वयुद्ध में योगदान देने वाले भारतीयों को सम्मानित करने की प्रक्रिया के अंतर्गत ब्रिटेन की रॉयल मेल सेवा द्वारा उनकी स्मृति में एक विशेष डाक टिकट जारी किया गया. उक्त डाक टिकट में नूर अपनी चित्ताकर्षक मद्धिम मुस्कान के साथ दिखाई दे रही हैं. पर, उन्होंने ब्रिटेन को अपनी जो सेवाएं दी थीं उसके बदले जर्मनों के हाथों यातना सहनी पडी तथा अपने प्राणों का भी उत्सर्ग करना पडा.
नूर-उन-निसा का जन्म सन उन्नीस सौ चौदह में मास्को में हुआ था. उनके पिता भारतीय सूफी उपदेशक हजरत इनायत खान थे जो टीपू सुल्तान के वंशज थे तथा माँ अमीना बेगम मूलतया अमेरिकन महिला थीं जिनका पूर्व नाम ओरा मीना रे बेकर था. नूर की शिक्षा - दीक्षा पेरिस में हुई थी पर जब वहाँ नाजियों का कब्जा हो गया तो उनका परिवार इंग्लैंड भाग आया था. इंग्लैंड में नूर ने वूमेंस आक्जिलरी एयरफोर्स की नौकरी कर ली .यहाँ उन्हें 'मैडेलीन' का कोड नाम दिया गया तथा ब्रिटिश स्पेशल ऑपरेशन एक्जीक्यूटिव ( एस ई ओ ) के वायरलेस अधिकारी के तौर पर सन 1943 में पेरिस में तैनात कर दिया गया जबकि यह शहर नाजियों के कब्जे में था. उन्हें शत्रु से संबंधित सूचनाएं स्वयं को दुश्मन की नजरों से बचाए रखते हुए इंग्लैंड भेजनी थीं. यह खतरनाक काम था जिसमें कभी भी शत्रु के हाथों पड जाने का खतरा था. नूर ने इस काम को बखूबी सफलता के साथ अंजाम दिया तथा महत्वपूर्ण सूचनाएं इंग्लैंड भेजती रहीं. इंग्लैंड के ही पक्ष के किसी व्यक्ति ने धोखा दिया तथा नूर के बारे में नाजियों को सूचित कर दिया. नाजियों ने उन्हें गिरफ्तार कर सघन पूछ्ताछ की पर उन्होंने शत्रुओं को कोई भी भेद बताने से इंकार कर दिया. नाजियों ने उन्हें दस महीनों तक हथकडी - बेडी लगाकर रखा और यातनाएं दीं तथा उन पर जुल्म किए. एक डच कैदी ने जो प्रत्यक्षदर्शी था, सन उन्नीस सौ अट्ठावन में बताया कि 13 सितम्बर, उन्नीस सौ चौवालीस के दिन एक उच्च स्तरीय नाजी एस एस अधिकारी विल्हेम रूपर्ट ने नूर की क्रूरतापूर्वक पिटाई की तथा इसके बाद उनके सिर में पीछे की तरफ गोली मार दी गई जिससे वे शहीद हो गईं. इसके बाद तुरंत नाजियों ने उनके शरीर को जला दिया.
नूर-उन-निसा इनायत खान द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जॉर्ज क्रॉस पाने वाली मात्र तीन महिलाओं में से एक हैं. उन्हें फ्रांस ने भी अपने वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया है. ब्रिटिश लेखक जीन ओवर्टोन ने नूर की जीवनी 'मैडेलीन' नाम से लिखी है. इस जीवनीकार के अनुसार नूर राष्ट्रीयता के विचारों से ओतप्रोत थीं तथा उन्होंने कहा था कि यदि कभी उन्हें भारत और इंग्लैंड में से एक को चुनना हो तो वे भारत को चुनेंगी. उनका इरादा युद्ध की समाप्ति के बाद भारत जाकर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने का था. पर उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हो सकी. हर भारतवासी को नूर जैसी बहादुर महिला पर नाज होना चाहिए जिन्होंने एक दूसरे देश की आजादी बनाए रखने के प्रयास में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए.
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