यह कोई काल्पनिक कथा नहीं बल्कि सत्य युद्ध घटना है जो यह साबित करती है कि हर भारतवासी किसी भी धर्म या जाति का हो पहले भारतीय है .
सन 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान बटालिक सबसेक्टर में खालूबार पर्वत श्रेणी की चोटी 5250 पाक घुसपैठियों के कब्जे में थी और दुर्जेय सिद्ध हो रही थी. जब भी भारतीय सेना आगे बढने का प्रयास करती दुश्मन उन्हें आगे नहीं बढने दे रहा था. ऐसी स्थिति में इस चोटी पर कब्जा करने का काम 22 ग्रेनेडियर्स की चार्ली मुस्लिम कम्पनी को सौंपा गया. पाक घुसपैठियों को खदेडने के लिए इस कंपनी ने 30 सैनिकों के साथ मेजर अजीत सिंह के नेतृत्व में रात के अँधेरे में तीव्र आक्रमण किया. पर दुश्मन ने उनका उनका उतना ही तीव्र प्रतिरोध किया. लडाई शुरू होने के दो घंटे के भीतर 10 भारतीय सैनिक शहीद हो गए और अट्ठारह भारतीय सैनिक घायल हो गए. मेजर अजीत सिंह ने एक युद्ध रणनीति के तहत सैनिकों को पीछे हटकर पहाडी चट्टानों के पीछे शरण लेकर विश्राम करने और फिलहाल लडाई रोक देने का निर्देश दिया.
इसी दौरान नायक जाकिर हुसैन ने आकर मेजर अजीत सिंह को सैल्यूट किया और फिर से आक्रमण शुरू करने की इजाजत माँगी . मेजर अजीत ने, जो स्वयं भी सर में चोट लगने के कारण घायल थे अन्य सैनिकों के साथ भी विचार- विमर्श किया. सभी फिर से आक्रमण करने के पक्ष में थे. रात 2.00 बजे फिर से आक्रमण शुरु किया गया. इस बार सैनिक चुपचाप चोटी के समीप तक चढने में कामयाब रहे और जैसे ही वे एकदम नजदीक पहुँच गए, उन्होंने " अल्लाह-हो-अकबर" का युद्धघोष किया. चोटी पर जमे पाक घुसपैठियों ने पाकिस्तानी सेना से मदद के लिए कुमुक माँगी थी और उन्होंने भारतीय सैनिकों का युद्धघोष सुनकर यह समझा कि सहायतार्थ पाक सैनिक आ गए हैं. उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया बल्कि कुछ ने भारतीय सैनिकों को चोटी पर चढने में मदद भी की. पर जब चोटी पर पहुँच कर भारतीय सैनिकों ने फायरिंग करते हुए हमला शुरु कर दिया तो वे भौंचक्के रह गए . पर बात समझ में आ जाने पर उन्होंने भारतीय सैनिकों का तीव्र प्रतिरोध किया. हालांकि भारतीय सैनिकों के आरंभिक हमले से दुश्मन की रक्षा पंक्ति कमजोर हो गई थी तथापि पाकिस्तानी घुसपैठिए संख्या बल में भारतीय सैनिकों से अधिक थे और लडाई के दौरान स्ट्रेटिजकली बेहतर स्थान पर भी थे. उनके पास पर्याप्त हथियार और गोला-बारूद था. भारतीय सैनिक कंपनी के दस जवान पहले ही शहीद हो चुके थे और अट्ठारह जवान घायल थे फिर भी वे अपने देश के लिए हिम्मत और हौसले के साथ लडते रहे और यह लडाई अगले तीन दिनों तक चलती रही.
दुश्मन की मदद करने के लिए पाक कुमुक आ गई पर भारतीय सैनिकों ने उन्हें नजदीक भी नहीं फटकने दिया और लगातार लडते रहे. भारतीय सैनिक दो भागों में विभाजित होकर लड रहे थे. एक टुकडी जहाँ दुश्मन पर हमला कर रही थी वहीं दूसरी दुश्मन के लिए आने वाली मदद को रोक रही थी. नायक आबिद हुसैन ने पूरे बहत्तर घंटों तक मशीनगन संभाले रखी और दुश्मन की मदद के लिए आने वाली कुमुक को रोके रखा. आखिरकार दुश्मन की फायरिंग की जद में आकर वे शहीद हो गए पर मौत को गले लगाने के बाद भी उनका हाथ और उनकी उँगलियाँ ट्रिगर से हटी नहीं. भारतीय फौज को मदद के लिए कुमुक चाहिए थी और लडाई की तीसरी रात 1/11 गुरखा राइफल्स ने उन्हें यह मदद देने के लिए खालूबार की तरफ बढना शुरू किया. पूरी रात चढाई करने के बाद गुरखा राइफल्स के सैनिक चार्ली मुस्लिम कंपनी तक पहुँच पाए. इस समय तक भोर हो गई थी और निर्देशों के मुताबिक उन्हें दिन में आराम करने के बाद अगली रात दुश्मन पर हमला करना था. पर मुस्लिम चार्ली कंपनी के अपने भाइयों को बुरी तरह घायल अवस्था में देखकर उनका खून खौल उठा और उन्होंने दिन में ही "आयो गुरखाली" का युद्धघोष करते हुए अपनी खुकरियाँ चमकाते हुए दुश्मन पर हमला कर दिया. दुश्मन ने उन्हें रोकने के लिए भारी फायरिंग शुरू की, पर अब न चार्ली मुस्लिम कंपनी रुकने वाली थी और न ही गुरखे रुकने वाले थे. पाक घुसपैठियों के पैर उखडने लगे और अंततोगत्वा उन्होंने मैदान छोडकर भागने में अपनी भलाई समझी पर भारतीय सैनिकों नें उनमें से एक को भी बचकर जाने नहीं दिया और वे सभी खेत रहे.
कुल मिला कर यह कि हमारे देश की सेना हिंदू,मुस्लिम, सिख या ईसाई के तौर पर नहीं बल्कि भारतीय सेना के तौर पर लडती है और इसमें धर्म की बात लाने वालों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है.
सन 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान बटालिक सबसेक्टर में खालूबार पर्वत श्रेणी की चोटी 5250 पाक घुसपैठियों के कब्जे में थी और दुर्जेय सिद्ध हो रही थी. जब भी भारतीय सेना आगे बढने का प्रयास करती दुश्मन उन्हें आगे नहीं बढने दे रहा था. ऐसी स्थिति में इस चोटी पर कब्जा करने का काम 22 ग्रेनेडियर्स की चार्ली मुस्लिम कम्पनी को सौंपा गया. पाक घुसपैठियों को खदेडने के लिए इस कंपनी ने 30 सैनिकों के साथ मेजर अजीत सिंह के नेतृत्व में रात के अँधेरे में तीव्र आक्रमण किया. पर दुश्मन ने उनका उनका उतना ही तीव्र प्रतिरोध किया. लडाई शुरू होने के दो घंटे के भीतर 10 भारतीय सैनिक शहीद हो गए और अट्ठारह भारतीय सैनिक घायल हो गए. मेजर अजीत सिंह ने एक युद्ध रणनीति के तहत सैनिकों को पीछे हटकर पहाडी चट्टानों के पीछे शरण लेकर विश्राम करने और फिलहाल लडाई रोक देने का निर्देश दिया.
इसी दौरान नायक जाकिर हुसैन ने आकर मेजर अजीत सिंह को सैल्यूट किया और फिर से आक्रमण शुरू करने की इजाजत माँगी . मेजर अजीत ने, जो स्वयं भी सर में चोट लगने के कारण घायल थे अन्य सैनिकों के साथ भी विचार- विमर्श किया. सभी फिर से आक्रमण करने के पक्ष में थे. रात 2.00 बजे फिर से आक्रमण शुरु किया गया. इस बार सैनिक चुपचाप चोटी के समीप तक चढने में कामयाब रहे और जैसे ही वे एकदम नजदीक पहुँच गए, उन्होंने " अल्लाह-हो-अकबर" का युद्धघोष किया. चोटी पर जमे पाक घुसपैठियों ने पाकिस्तानी सेना से मदद के लिए कुमुक माँगी थी और उन्होंने भारतीय सैनिकों का युद्धघोष सुनकर यह समझा कि सहायतार्थ पाक सैनिक आ गए हैं. उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया बल्कि कुछ ने भारतीय सैनिकों को चोटी पर चढने में मदद भी की. पर जब चोटी पर पहुँच कर भारतीय सैनिकों ने फायरिंग करते हुए हमला शुरु कर दिया तो वे भौंचक्के रह गए . पर बात समझ में आ जाने पर उन्होंने भारतीय सैनिकों का तीव्र प्रतिरोध किया. हालांकि भारतीय सैनिकों के आरंभिक हमले से दुश्मन की रक्षा पंक्ति कमजोर हो गई थी तथापि पाकिस्तानी घुसपैठिए संख्या बल में भारतीय सैनिकों से अधिक थे और लडाई के दौरान स्ट्रेटिजकली बेहतर स्थान पर भी थे. उनके पास पर्याप्त हथियार और गोला-बारूद था. भारतीय सैनिक कंपनी के दस जवान पहले ही शहीद हो चुके थे और अट्ठारह जवान घायल थे फिर भी वे अपने देश के लिए हिम्मत और हौसले के साथ लडते रहे और यह लडाई अगले तीन दिनों तक चलती रही.
दुश्मन की मदद करने के लिए पाक कुमुक आ गई पर भारतीय सैनिकों ने उन्हें नजदीक भी नहीं फटकने दिया और लगातार लडते रहे. भारतीय सैनिक दो भागों में विभाजित होकर लड रहे थे. एक टुकडी जहाँ दुश्मन पर हमला कर रही थी वहीं दूसरी दुश्मन के लिए आने वाली मदद को रोक रही थी. नायक आबिद हुसैन ने पूरे बहत्तर घंटों तक मशीनगन संभाले रखी और दुश्मन की मदद के लिए आने वाली कुमुक को रोके रखा. आखिरकार दुश्मन की फायरिंग की जद में आकर वे शहीद हो गए पर मौत को गले लगाने के बाद भी उनका हाथ और उनकी उँगलियाँ ट्रिगर से हटी नहीं. भारतीय फौज को मदद के लिए कुमुक चाहिए थी और लडाई की तीसरी रात 1/11 गुरखा राइफल्स ने उन्हें यह मदद देने के लिए खालूबार की तरफ बढना शुरू किया. पूरी रात चढाई करने के बाद गुरखा राइफल्स के सैनिक चार्ली मुस्लिम कंपनी तक पहुँच पाए. इस समय तक भोर हो गई थी और निर्देशों के मुताबिक उन्हें दिन में आराम करने के बाद अगली रात दुश्मन पर हमला करना था. पर मुस्लिम चार्ली कंपनी के अपने भाइयों को बुरी तरह घायल अवस्था में देखकर उनका खून खौल उठा और उन्होंने दिन में ही "आयो गुरखाली" का युद्धघोष करते हुए अपनी खुकरियाँ चमकाते हुए दुश्मन पर हमला कर दिया. दुश्मन ने उन्हें रोकने के लिए भारी फायरिंग शुरू की, पर अब न चार्ली मुस्लिम कंपनी रुकने वाली थी और न ही गुरखे रुकने वाले थे. पाक घुसपैठियों के पैर उखडने लगे और अंततोगत्वा उन्होंने मैदान छोडकर भागने में अपनी भलाई समझी पर भारतीय सैनिकों नें उनमें से एक को भी बचकर जाने नहीं दिया और वे सभी खेत रहे.
कुल मिला कर यह कि हमारे देश की सेना हिंदू,मुस्लिम, सिख या ईसाई के तौर पर नहीं बल्कि भारतीय सेना के तौर पर लडती है और इसमें धर्म की बात लाने वालों की बुद्धि पर तरस ही खाया जा सकता है.
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