जावेद उस्मानी जी की नियति पर चार पंक्तियों की प्रेरणा से प्रतिक्रयास्वरूप -
- नियति से हार क्यूँ मानी जाए -
ऐ दोस्त नियति से हार आखिर क्यूँ मानी जाए।
जीत का इरादा कर, क्यूँ न रार उससे ठानी जाए।
वक्त हो भले ही गुलाम नियति का, हम तो नहीं।
नाचीज की शहजोरी भी तो दुनिया में जानी जाए।।
खुद बना ले राह अपनी , बह ऐसा भी पानी जाए।
कोशिश करो तो तदबीर से तकदीर बन भी जाए।
दुनिया के इस इंकिलाब में मर भी गए गर।
नियति अपनी एक बहादुर की सी जानी जाए।।
फटी चादर भी ढक ले सर , ठीक से जो तानी जाए ।
न जाने कब तेरी भी तकदीर बदल ही जाए।
बुरे दिन भी आएं तो हौसला रख ऐ इंसान।
फानी जान हिम्मत दिखा फातिहे आलम जानी जाए।। -संजय त्रिपाठी
- नियति से हार क्यूँ मानी जाए -
ऐ दोस्त नियति से हार आखिर क्यूँ मानी जाए।
जीत का इरादा कर, क्यूँ न रार उससे ठानी जाए।
वक्त हो भले ही गुलाम नियति का, हम तो नहीं।
नाचीज की शहजोरी भी तो दुनिया में जानी जाए।।
खुद बना ले राह अपनी , बह ऐसा भी पानी जाए।
कोशिश करो तो तदबीर से तकदीर बन भी जाए।
दुनिया के इस इंकिलाब में मर भी गए गर।
नियति अपनी एक बहादुर की सी जानी जाए।।
फटी चादर भी ढक ले सर , ठीक से जो तानी जाए ।
न जाने कब तेरी भी तकदीर बदल ही जाए।
बुरे दिन भी आएं तो हौसला रख ऐ इंसान।
फानी जान हिम्मत दिखा फातिहे आलम जानी जाए।। -संजय त्रिपाठी
हर शब्द अपनी दास्ताँ बयां कर रहा है आगे कुछ कहने की गुंजाईश ही कहाँ है बधाई स्वीकारें
जवाब देंहटाएंकभी फुर्सत मिले तो ….शब्दों की मुस्कराहट पर आपका स्वागत है
धन्यवाद संजय भास्करजी! मैंने आपका ब्लाग देखा । सुंदर, साहित्यिक जानकारी और प्रस्तुतियाँ हैं आपकी। कृपया स्नेहभाव बनाए रखें!
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