गजल
कहने को तो सारे नकाब एक से,पर चेहरा अलग होता है
हर नकाब में वो ढूँढता है उसे, पर वो वहाँ कहाँ होता है
आँखों में समा दिल में जज्ब हो जाए वही अपना होता है
दिल में आग लगा दे जो शरर, उल्फत का सबब होता है
जो सवालात में है उसके, वही खयालात में होता है
हकीकत में नहीं तो न सही,वो तसव्वुरात में होता है
मुहब्बत में बेदीनी नहीं होती, उठ भी जाए ये हिजाब
काफिर की आस हुई बेआस ,अब जब्त कहाँ होता है
नायाब किसी और का हुस्न, बेनकाब हो भी जाए तो क्या
'संजय' जो अपना रहे नकाब में ,तो भी अपना होता है
-संजय त्रिपाठी
भाई पुष्यमित्र उपाध्याय की कविता
"अलग नकाब में..... अलग चेहरे वाले ,
अब हैरान नहीं करते .....उदास कर देते हैं"
से प्रेरित होकर लिखी गई
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