~-सामीप्य-~
(लगभग बीस वर्ष पूर्व मेरे द्वारा लिखी गई कविता)
अब तक जो रहा विरह -विदग्ध था
उसे मिला मलय समीर ललित था
ज्योति पे मर मिटने को शलभ था
प्रिये प्रीति के आतप से यह
अंतस क्यों इतना रहा झुलस था।।
प्रसूनों से शोभित उपवन था
तुमसे सुरभित मेरा मन था
पुष्प का रस पाने को मधुकर था
कलिके नयनों ने पान किया वह
मकरंद क्यों इतना रसकर था।।
नभ से बरस पडने को मेह था
हृदय में उमड रहा नेह था
स्वाति की बूँद पाने को चातक था
सलिले अंतस की तृषा बुझाने में
क्या अब भी कुछ बाधक था।।
प्रकृति थी लिए सौंदर्य बिखरा सा
तुम थीं व्यक्तित्व लिए प्रेमपगा सा
अंधे को जैसे मिल गया दो-दो नयन था
मृदुले इससे भी बढकर अब
जग में क्या कुछ सुंदर था।।
तुममें खो जाने को मन व्याकुल था
स्वयं में तुम्हें बसा लेने को अंतर आकुल था
विधाता ने दिया जैसे मुँहमाँगा वर था
मधुरे तुम्हारे सामीप्य से भी बढकर
क्या जग में कुछ सुखकर था।।
(लगभग बीस वर्ष पूर्व मेरे द्वारा लिखी गई कविता)
अब तक जो रहा विरह -विदग्ध था
उसे मिला मलय समीर ललित था
ज्योति पे मर मिटने को शलभ था
प्रिये प्रीति के आतप से यह
अंतस क्यों इतना रहा झुलस था।।
प्रसूनों से शोभित उपवन था
तुमसे सुरभित मेरा मन था
पुष्प का रस पाने को मधुकर था
कलिके नयनों ने पान किया वह
मकरंद क्यों इतना रसकर था।।
नभ से बरस पडने को मेह था
हृदय में उमड रहा नेह था
स्वाति की बूँद पाने को चातक था
सलिले अंतस की तृषा बुझाने में
क्या अब भी कुछ बाधक था।।
प्रकृति थी लिए सौंदर्य बिखरा सा
तुम थीं व्यक्तित्व लिए प्रेमपगा सा
अंधे को जैसे मिल गया दो-दो नयन था
मृदुले इससे भी बढकर अब
जग में क्या कुछ सुंदर था।।
तुममें खो जाने को मन व्याकुल था
स्वयं में तुम्हें बसा लेने को अंतर आकुल था
विधाता ने दिया जैसे मुँहमाँगा वर था
मधुरे तुम्हारे सामीप्य से भी बढकर
क्या जग में कुछ सुखकर था।।
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