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गुरुवार, 15 अगस्त 2013

मंत्रियों के मानकीकरण के लिए हो परीक्षा!



          पिछले दो से तीन दशकों के बीच भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों के स्तर में धीरे-धीरे गिरावट आई है.इसका प्रमुख कारण अपराधी तत्वों और कबीलाई मानसिकता वाले तत्वों का राजनीति के साथ जुडना रहा है.राजनीतिक पार्टियों ने इस आधार पर कि ऐसे तत्व संसद और विधानमंडलों के लिए सीटें जीतने में सहायता कर सकते  हैं; पहले तो इनसे चुनावों को जीतने में मदद ली और फिर गठबंधन सरकारों के दौर के साथ राजनीति के मैदान में ज्यादा  खिलाडी आ जाने,जाति और धर्म का चुनावों पर असर बढ जाने और प्रतिद्वंदिता तगडी हो जाने पर इन्हे सीधे-सीधे उम्मीदवार के तौर पर चुनावों में उतारना ही शुरू कर दिया. नैतिक पृष्ठभूमि गौण होती गई है और इनमें से कई चुनाव  जीतने के बाद अपने प्रभावक्षेत्र के कारण या फिर जोड-तोड की राजनीति के चलते मंत्री  बनने में भी सफल  रहे हैं.प्रशासन तो दूर  की बात है,सामान्य शिष्टाचार का भी पालन न करते हुए अनर्गल प्रलाप करने और अनाप-शनाप बकने में भी इन्हें कोई परहेज नहीं है.पिछले  दिनों  इसकी कुछ बानगियाँ देखने में आई हैं जो नीचे दी गई हैं.

  •  उत्तर प्रदेश के एक मंत्री श्री अहमद हसन ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की  उपस्थिति में  निलम्बित  आई.ए.एस. दुर्गाशक्ति नागपाल  की पारिवारिक पृष्ठभूमि पर प्रश्नचिह्न खडे किए और  कहा कि यदि वे उसके बारे में  बता देंगे तो दुर्गाशक्ति को समर्थन देने वाले लोगों को अपने  इस समर्थन पर  पश्चाताप होगा.(तथ्य यह है  कि दुर्गाशक्ति के पिता डिफेंस इस्टेट सेवा में अधिकारी थे और अपने कार्यों के लिए प्रेसीडेंट मेडल से सम्मानित हो चुके हैं और  उनके पितामह पुलिस अधिकारी थे जिन्होने अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हुए प्राण गंवाए थे. )
  • बिहार सरकार के एक मंत्री भीम सिंह ने कहा कि जो लोग सेना और पुलिस में जाते हैं,शहीद हो जाना  उनका पेशागत काम है.यह कोई बडी बात नहीं है और इसके लिए उनके दरवाजे जाया जाए यह जरूरी  नहीं है.  .
  • कर्नाटक के मांड्या लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की उम्मीदवार राम्या के बारे में जनता दल एस नेता एम श्रीनिवास ने जो  दो बार एम.एल.ए. रह चुके हैं कहा कि वे टेस्ट  ट्यूब बेबी हैं,उनके पिता, जाति और मूलनिवास का पता नहीं है. उन्होने ऐसा कहते हुए इस बात की परवाह नहीं की कि राम्या के पालक पिता आर टी नारायन अभी कुछ दिन पहले ही दिवंगत हुए हैं और राम्या को अभी उससे उबरने का भी अवसर नहीं मिला है.   
         एक ओर तो हम भारतीय सिविल सर्विसेज जैसी  प्रतियोगिता का आयोजन कर अपने प्रशासनिक अधिकारियों को चुनते हैं  और दूसरी ओर उनकी देख- रेख करने के लिए ऊपर वर्णित नेताओं को चुनते हैं.इससे पूरी व्यवस्था का विकृत होना स्वाभाविक है.

          इसलिए  क्या यह उचित नहीं होगा कि हम दो व्यवस्थाएं करें-

1.प्रथम तो मंत्रियों का मानकीकरण करने  के लिए एक परीक्षा का आयोजन हो.इस परीक्षा के आयोजन के लिए एक समिति बनाई जाए जिसके अध्यक्ष राष्ट्रपति हों और प्रधानमंत्री,नेता विपक्षी दल ,लोकसभा अध्यक्ष ,राज्यसभा के सभापति तथा सभी राष्ट्रीय स्तर के मान्यताप्राप्त दलों के एक-एक प्रतिनिधि इसके सदस्य हों.इस समिति की एक परीक्षा आयोजन उपसमिति हो  जिसके अध्यक्ष सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और सचिव यू.पी.एस.सी. के अध्यक्ष हों जो पारस्परिक सहमति से और मुख्य समिति के अनुमोदन से विभिन्न क्षेत्रों के ख्यातिलब्ध विद्वानों को पाठ्यक्रम तैयार करने तथा  परीक्षा की व्यवस्थाएं करने  के लिए नियुक्त करें.इसके तत्वावधान में प्रत्येक वर्ष मंत्री मानक परीक्षा  का आयोजन हो और जो भी एम.पी.,एम.एल.ए  मंत्री बनना चाहते हैं वे इस परीक्षा में बैठें और उसे उत्तीर्ण करें.परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों को ही मंत्री बनाया जाए .यदि प्रधानमंत्री या कोई मुख्यमंत्री इनसे बाहर जाकर किसी का चयन मंत्री के रूप  में करना चाहते हैं तो उसके लिए राष्ट्रपति से (राज्यों के मामले में गवर्नर के माध्यम से)  विशेष अनुमति प्राप्त करें.

नोट-चूँकि मुझे विश्वास है कि राजनीतिक दल  इस प्रस्ताव से सहमत नहीं होंगे अत: कोई  आई.एस.ओ. जैसी संस्था निजी पहल कर बनाई जा सकती है  जो  इस प्रकार की परीक्षा का आयोजन करे और राजनीतिक दलों से अपने प्रतिनिधियों को परीक्षा में बैठने के लिए भेजने का आग्रह करे.जो भी राजनीतिज्ञ परीक्षा उत्तीर्ण करते हैं उन्हें यह संस्था आई.एस.ओ. कि तरह प्रमाणपत्र  देकर मानकीकृत करे.अभी यह विचार किसी को अव्यवहारिक या हास्यापद लग सकता है,पर कार्यान्वित करने का प्रयास करने पर वैसे ही चल निकलेगा जैसे आई.एस.ओ. के प्रमाणन के लिए व्यवसायी संस्थाएं उत्सुक रहा करती हैं.

2.राजनीतिक नेताओं और एम.पी. तथा एम.एल.ए. के लिए विशेष प्रशिक्षण शिविरों का  आयोजन किया जाए जहाँ उन्हें सामान्य राजनीतिशास्त्र,प्रशासन और अर्थशास्त्र के अलावा सामान्य तथा राजनीतिक शिष्टाचार का प्रशिक्षण दिया जाए.

नोट-वैसे तो कुछ राजनीतिक दलों द्वारा प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाता है पर इन्हें और उद्देश्यपरक बनाए जाने, इनमें शिष्ट राजनीतिक व्यवहार का आवश्यक तौर पर प्रशिक्षण दिए जाने, आयोजन नियमित रूप से किए जाने और सक्रिय कार्यकर्ताओं को इनमें अनिवार्यत: प्रशिक्षित किए जाने   की जरूरत है.

         

सोमवार, 12 अगस्त 2013

टोपी पहनना और पहनाना कितना जरूरी?

          जब से शिवराज सिंह चौहान की नमाजी  टोपी पहने हुए और रजा मुराद से गले मिलते हुए फोटो अखबारों में छपी है,तरह- तरह  के कयास लगाए जा रहे हैं.हैं.कुछ लोगों का ख्याल बना कि यह शिवराज सिंह ने मोदी के मुकाबले खुद की उदार और सेक्यूलर छवि पेश करने के लिए किया जिन्होने सदभावना उपवास के दौरान एक मुस्लिम धर्मगुरु द्वारा  नमाजी टोपी पहनाए जाने का प्रयास करने पर इससे इंकार कर दिया था .रजा मुराद ने यहाँ तक कह डाला कि जिन मुख्यमंत्रियों को टोपी पहनने से इतराज है उन्हें शिवराज सिंह से सीख लेनी चाहिए. कुछ को ख्याल आया कि जैसे बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद आडवाणी की स्वीकार्यता का अभाव देखकर आर एस एस -बी जे पी  को अटलजी का नाम प्रधानमंत्री के रूप में आगे बढाना पडा वैसा ही कुछ मोदी और शिवराज सिंह के मामले में हो सकता है.आडवानी पहले ही शिवराज सिंह की तुलना अटलबिहारी से कर चुके हैं.

          पर इन सबसे  परे एक सवाल यह उठता है कि क्या मात्र नमाजी टोपी पहनने से कोई व्यक्ति उदार या सेक्यूलर हो जाता है और उसका  किया- धरा सब कुछ स्याह से सफेद हो जाता है . यदि ऐसा है तो आडवानी  की   मंदिर-मस्जिद संबंधी भूमिका पर  किसी  को ऐतराज नहीं होना चाहिए और उन्हे सेक्यूलर मानना चाहिए क्योंकि इफ्तार पार्टियों  में नमाजी टोपी लगाए हुए उनकी फोटो काफी पहले अखबारों में छप चुकी है. पंडित नेहरू नमाजी टोपी  पहनने की  कसौटी पर खरे न उतरने के कारण(उन्होने यह  टोपी कभी  नहीं पहनी) सेक्यूलर होने के इस मापदंड को पूरा नहीं करते ,जबकि उनकी धर्मनिरपेक्षता पर कोई भी प्रश्नचिह्न नहीं लगा सकता. जिन  समुदायों के वोट अधिक नहीं हैं या फिर जो समुदाय टैक्टिकल वोटिंग नहीं करते यथा पारसी  अथवा यहूदी ,उनके द्वारा धार्मिक प्रयोजनों या अन्य अवसरों पर पहनी जाने वाली   टोपी  पहन कर  यह नेतागण फोटो क्यों नहीं खिंचवाते.  जिन्होने मैकियावेली को पढा है उन्हे मालूम होगा कि मैकियावेली का कहना है  कि खास समुदाय का समर्थन पाने के के लिए उनके पूजा स्थलों पर जाकर श्रद्धा भाव प्रकट करना चाहिए और उनके जैसी ही  वेश-भूषा पहननी चाहिए.तो हमारे अधिकांश राजनीतिज्ञ जो टोपी लगा कर फोटो खिंचवाते हैं, इसी मैकियावेलियन प्रयास में लगे हुए हैं और ऐसा कर जनता को ही टोपी पहनाने में लगे हुए हैं .  अपने इसी तरह के एक प्रयास के तहत जिन्ना की मजार पर जाकर खिराज-ए-अकीदत  पेश करते हुए आडवानी ने उन्हे सेक्यूलर होने का प्रमाणपत्र देकर अपना पूरा राजनीतिक कैरियर चौपट कर लिया. ऐसे राजनीतिज्ञों से मोदी कम  से कम इस मायने में सच्चे हैं कि वे अपनी असलियत को छिपाने का प्रयास नहीं करते.

          बहुत पहले मेरा एक मित्र मुझे गुरुद्वारे ले गया.तब मैं पहली बार गुरूद्वारे गया था.उस मित्र के कहने पर मैंने अपना सर  रूमाल से ढंक लिया था.गुरुद्वारे में सर ढंकना  आवश्यक है ऐसा उसने मुझे बताया था .मैं ऐसे कुछ मुस्लिमजन को भी जानता हूँ जिन्होने हिंदू मित्रों के  साथ  किसी  पूजा में शामिल होने पर या मंदिर में जाने पर तिलक भी लगवाया और प्रसाद ग्रहण किया.पर इस सबके पीछे मित्र के समुदाय का आदर करने की भावना थी.इसके पीछे वोट पाने  जैसा कोई लालच नहीं था .इसलिए वोट पाने की मंशा से पहनी गई टोपी के पीछे छिपे असली भाव को जनता को समझना चाहिए और ऐसा  करने वालों के वास्तविक कृतित्व के आधार पर ही उनके विषय  में कोई धारणा बनानी चाहिए.

बुधवार, 7 अगस्त 2013

पाँच और शहीदों के ताबूत (कविता)

पाँच और शहीदों के ताबूत

वो आ रहे हैं पाँच ताबूत सैनिकों की शहादत याद दिलाने
वतनपरस्ती,खुद्दारी,बहादुरी और जाँबाजी की कहानी बताने   
विस्मृत होती जा रही  थी छवि सर कटाने वाले हेमराज की 
फिर  से  सामने  आए देश  की  आन  पर  सर दे देने वाले.

शरीफ साहब की बार-बार दोस्ती की पुकार है
कितनी असली या नकली, यह उनके दिल का राज है
खुदा जाने पाक और फौज में कितना उनका इकबाल है
जब भी सत्ता में आते हैं,कुछ न कुछ घट  जाता  है
चाहे कारगिल,बटालिक,द्रास हो या सेक्टर  पुंछ  हो
चाहे हों अटल बिहारी या फिर मनमोहन सिंह हों
दोस्ती का हौसला पस्त हो जाता है,
मित्रता का इरादा अस्त हो जाता है.

राहुल बेहाल हैं,सोनिया अवाक हैं
प्रधानमंत्री के रूप में सामने  ढाल है
दोनों ने कहा मामले को पाक के साथ
उच्च स्तर पर उठाने की दरकार है
सोनिया ने कहा भडकाऊ कार्रवाई - हम अदम्य हैं
सैनिकों की प्रवंचनापूर्ण, बर्बर हत्या अक्षम्य है
पर उनके द्वारा नियुक्त प्रधानमंत्री मौन हैं
नक्कारखाने में तूती की आवाज सुनता भी कौन है
हो अमन-चैन और पाक के साथ दोस्ती यह उनका सपना है
दोस्ती के अभियान में खलल पडा यही दुख उनका अपना है

हत्यारे थे आतंकी और साथ थे पाक सैनिकों से दिखते वर्दीधारी
यह कर रहे हमारे रक्षामंत्री श्रीमान ए के एंटोनी हैं
पर इसके पीछे पाक  सेना की कारस्तानी है
यह कहने में जैसे जुबान मौन साध जाती है
पाक से दोस्ती का खयाल दिल में रहता इतना है
उसकी बात पर कोई असर न पडे यही चिंता है
कितने नागरिक आतंक का शिकार हुए यह कोई न गिनता है
कितने सैनिक खेत रहे यह कोई नहीं देखता है.

पाक चिकने घडे सा जिस पर नहीं कोई प्रभाव है
सामान्य शालीनता का भी दुष्ट में अभाव है
फायरिंग कोई हुई नहीं कह, रहा वो धिक्कार है
हमारे शहीदों का इस तरह कर रहा अपमान है
झूठा और मनगढंत आरोप बता रहा वो ललकार है
उनकी शहादत को बार-बार रहा नकार है.

इस देश में एक जवान की जान सस्ती है
एक आई.ए.एस.अधिकारी की आन सस्ती है
गरीब की परिभाषा रोज बदल सकती है
इस देश में सिर्फ नेताओं की मस्ती है
नेताओं को छोड यहाँ और कौन बेशकीमती है
जिन्हे बचाने के लिए सुरक्षा गारद साथ घूमती है
भेडिए भी साधुवेष धारण कर पहन लेते हैं खादी
इन दिनों उन्हें भी सुरक्षा मुहैया होती है.

वह देखो आ गए हैं पाँच और शहीदों के ताबूत
हाहाकार करो, दाँत कसमसाओ और पिओ खून के घूँट
चुने स्थान और समय पर बदले  का  वादा हम  गए  थे  भूल
शत्रु ने मौका देख हमारे सीने में फिर से उतार दिया शूल
                                                                    -संजय त्रिपाठी






बुधवार, 31 जुलाई 2013

ईमान की आँच!

          ईमान की आँच बडी तेज होती है.जिसके साथ  ईमान रहता है वह तो सुशांत दिखता है -प्रफुल्लित,संतोष से भरा हुआ. पर जिनके पास ईमान का कवच नहीं  होता, उन्हें उस सुशांत  चेहरे से इतना तेज निकलता दिखाई  देता है कि वे उसकी आँच में झुलसने लगते हैं.जब वे झुलसने लगते हैं तो उस सुशांत, संतुष्ट ,प्रफुल्लित   चेहरे को भी अपने  जैसा बना देना  चाहते हैं.उस पर हर  तरह से आक्रमण करते हैं .देखिए न, नवनियुक्त आई.ए.एस.अधिकारी दुर्गाशक्ति नागपाल और उत्तर प्रदेश के शासन  को. दुर्गाशक्ति ने बालू माफियाओं को  टक्कर  देने का बीडा उठाया था. बालू माफिया ने उसे पहले प्रलोभन  देने और फिर डराने-धमकाने की कोशिशें  कीं. पर दुर्गाशक्ति ने किसी धमकी की परवाह नहीं की और दृढतापूर्वक ईमानदारी के  साथ अपना कर्तव्य करती गई.आखिरकार उसकी आँच उत्तरप्रदेश के प्रशासनिक केंद्रबिंदु तक पहुँच गई. और, जब इस केंद्रबिंदु पर उसकी आँच भारी पडने लगी तो  ईमानदार व्यक्ति   के ऊपर लगाने के लिए आरोप  खोज निकाला गया-एक अवैध धार्मिक निर्माण को  ढहा देने का और उसे मुअत्तल कर दिया गया.इस प्रकार प्रशासनिक केंद्रबिंदु ने तीन संदेश देने की कोशिश की है-
          1. प्रशासन में लगे हुए सभी अधिकारी हमारे राजनीतिक हितों का और हमारे सरमाएदारों का ख्याल                   रखें,जो इससे हटा उसकी खैर नहीं.
         2. राजनीतिक  आकाओं और उनके पिट्ठुओं के हित सर्वोपरि हैं,उनकी अनदेखी कर कर्तव्यनिष्ठा और                  ईमानदारी की परवाह करने की  कोई जरूरत नहीं.
         3.धार्मिकस्थल से जुडे निर्माण को, भले ही वह अवैध था, ढहाने का आरोप लगाकर इसके साथ-साथ एक             धार्मिक समुदाय को भी  साधने की कोशिश कर ली गई है.हिंदुस्तान में धर्म एक ऐसा नुस्खा  है                         जिसकी आड में आप कुछ भी अवैध कर उसे वैध बनाने का प्रयास  कर सकते हैं.

         ईमानदारी की राह कठिन है दुर्गा!इसमें पग-पग पर अग्निपरीक्षाएं हैं.तुम्हारे ईमान की मार जिसे लगेगी वह  इससे ऐसा तिलमिलाएगा कि तुम पर तुरंत प्रहार करने को  उद्यत होगा.पर सीता ने तो जीवन भर अग्निपरीक्षा दी थी,तुमने तो अभी पहली ही दी है.फिर तुम तो सीता नहीं दुर्गाशक्ति हो!इन असुरों से घबराना नहीं दुर्गा!बडे जनों की  -"जरा दुनिया  देखकर चलना चाहिए" -जैसी सीखों को सुनकर व्यथित नहीं होना.ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति की सबसे बडी पूँजी उसका अपना संतोष होता  है.जब वह पीछे की तरफ नजर डालता है तो पीछे का साफ-सुथरा रास्ता जो उसने अब तक तय किया  है उसके मन को आहलाद से भर देता है. अब तक  किया गया संघर्ष उसके मन को गर्व से भर  देता है. उसके उसूल उसका सबसे बडा संबल होते हैं.चोरों और बे‌ईमानों को जब मालूम हो जाता है कि यह आदमी बिकाऊ नहीं है तो वे संभलकर चलने लगते हैं और तुम्हारे सामने खडे होने का साहस भी नहीं कर सकते हैं.गुलाब की बगिया लगाने  पर रास्ते में  काँटे भी आते हैं, संभलकर  चलना पडता है, कभी-कभी  काँटों को बीन कर अलग भी करना पडता है,हाथ लहुलुहान हो जाते हैं.पर जब बीडा उठाया है तो गुलाब खिलाकर रहना.दूसरों के लिए वह आइना  बनना जिसमें उन्हें सच्चाई की सूरत नजर आए और वे खुद  को भी बदलने पर मजबूर हो  जाएं.हमारे समाज को ऐसे आइनों की बहुत जरूरत है.दुर्गाशक्ति! तुम्हारे ऐसे लोग ही इस समाज के लिए उम्मीद की किरण हैं.यह किरण  सिर्फ सितारा नहीं, चाँद नहीं,सूरज बन कर चमकनी चाहिए.

सोमवार, 29 जुलाई 2013

टंच,चक्कू और छप्पन छूरी! (व्यंग्य /Satire)

          दिग्विजय सिंह की टंच माल संबंधी टिप्पणी पढ कर बहुत पहले कहीं पढी एक घटना  याद  आ गई है.सुप्रसिद्ध रूसी हिंदी  विद्वान चेलिशेव उन दिनों प्रयाग- प्रवास कर अपनी हिंदी को पुख्ता करने का प्रयास कर रहे थे.उनके  पास एक डायरी और कलम सदैव रहती थी और वे जब भी कोई नया हिंदी शब्द या वाक्यांश सुनते जो  उनकी समझ से परे होता तो उसे अपनी डायरी में नोट कर लेते और किसी साथी विद्वान से मिल कर उसका अर्थ पूछते. एक दिन वे किसी पान की दूकान के पास से गुजर रहे थे तभी खूब सजी- धजी सी नवयौवना जाती हुई दिखाई दी. जब वह  पान की दूकान के बगल से निकलने लगी वहाँ खडा कोई मनचला जोर  से चिल्लाया-"जियो राजा चक्कू"!चेलिशेव के लिए जो किताबी ज्ञान प्राप्त करने के बाद हिंदी का व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त करने में लगे हुए थे,यह  वाक्यांश बिल्कुल नया था जिसका अर्थ वे नही समझ सके.उन्होने उसे  अपनी डायरी में नोट कर लिया.इसके बाद उन्होने कुछ विद्वानों से उसका तात्पर्य पूछा पर उनके द्वारा बताए गए  उत्तर भी घुमावदार थे   जिनसे चेलिशेव संतुष्ट नहीं हो पाए.किसी ने चेलिशेव को अर्थ समझने के लिए फिराक गोरखपुरी के पास भेज दिया .फिराक ने चेलिशेव को अर्थ तो  समझा दिया पर उस अर्थ को सुनकर चेलिशेव बेचारे शर्म से लाल हो गए.

          दिग्विजय सिंह की टिप्पणी के बाद लगता है हमारे नेतागण जल्दी ही लोगों के गुणों का बखान करने  के लिए 'चक्कू'और 'छप्पन छूरी' जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल करेंगे जिन्हें सुनकर चेलिशेव सदृश विदेशी हिंदी विद्वानों को लगेगा कि उनका हिंदी का ज्ञान अधकचरा है और वे दोबारा अपना हिंदी ज्ञान ठीक करने के लिए भारतवर्ष की  यात्रा  करने के लिए मजबूर हो जाएंगे.फिराक गोरखपुरी तो अब रहे नहीं, इसलिए इन विदेशी विद्वानों को इनका ठीक अर्थ समझने के लिए दिग्गी राजा के पास ही जाना पडेगा जो कन्टेक्स्ट को देखते हुए शब्दों और वाक्यों का प्रयोग करने तथा उनका अर्थ समझाने में इतनी महारत हासिल कर चुके हैं कि लोग कंटेक्स्ट को देखते हुए 'टंच माल' बनने और कहलाने के लिए भी बिना किसी एतराज के राजी  हैं .

           हमारे नेताओं की भाषा देखकर लगता है कि आम  जनता का ही कंटेक्स्ट सही नहीं है और वह नाहक ही महिलाओं के साथ होने वाले अभद्र व्यवहार,अपराध और ज्यादतियों को लेकर हल्ला-गुल्ला मचाती रहती है.आखिर इस तरह की घटनाएं उनके द्वारा बताए गए कंटेक्स्ट का ही विस्तार हैं.विदेशी भले ही हमारी भाषा सुनकर शर्माएं और शर्म से लाल  हो जाएं ;पर हम  काले हैं तो क्या हुआ  दिलवाले तो हैं का गान करते हुए सही कंटेक्स्ट में चीजों को समझने की और उनकी व्याख्या करने की कोशिश में लगे रहेंगे.चलिए  हम सब अपने-अपने शब्दकोष अपने ढंग से बनाने और शब्दों के अर्थ अपने कंटेक्स्ट के हिसाब से निकालने और हिंदी के शब्द-भंडार को समृद्ध बनाने में लग जाएं.


रविवार, 28 जुलाई 2013

हिंदू राष्ट्रवादी या राष्ट्रवादी हिंदू या फिर सिर्फ राष्ट्रवादी!

          नरेंद्र मोदी ने लंदन की एक न्यूज एजेंसी को दिए गए अपने साक्षात्कार में स्वयं को हिंदू राष्ट्रवादी बताकर एक बार फिर एक और बहस को जन्म दिया है.उनकी व्याख्या यह है कि उनका जन्म एक हिंदू के तौर पर हुआ है और वे एक राष्ट्रवादी हैं इसलिए वे एक हिंदू राष्ट्रवादी हैं.इस व्याख्या के अनुसार फिर हमारे देश में निरीश्वरवादियों को छोडकर और कोई  मात्र राष्ट्रवादी नहीं है बल्कि वह हिंदू राष्ट्रवादी , मुस्लिम राष्ट्रवादी , क्रिश्चियन राष्ट्रवादी,सिख राष्ट्रवादी , बौद्ध राष्ट्रवादी, यहूदी राष्ट्रवादी अथवा पारसी राष्ट्रवादी है.राजनाथ सिंह जी ने इसका समर्थन भी कर दिया है.इस परिभाषा के अनुसार अशफाक उल्लाह खान और मौलाना अबुल कलाम आजाद मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.हमारे भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी. जे. कलाम साहब भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.परमवीरचक्र विजेता वीर अब्दुल हमीद भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.और तो और, बी.जे.पी. के नेतागण शाहनवाज हुसैन और नकवीजी भी मुस्लिम राष्ट्रवादी हैं.ये बात दीगर है कि इनमें से किसी ने भी स्वयं  को इस रूप में परिभाषित नहीं किया है और यदि मेरी धारणा गलत नहीं है तो स्वयं को इस रूप में परिभाषित करना पसंद भी नहीं करेंगे.सवाल यह यह है कि यदि हम इस परिभाषा को स्वीकार कर लें तो यदि कुछ इतिहासकार मुस्लिम राष्ट्र की माँग करने के कारण जिन्ना को मुस्लिम राष्ट्रवादी(मुस्लिम राष्ट्र का पक्षधर) कहते हैं और मौलाना अबुल कलाम आजाद को इस माँग का विरोध करने और एकीकृत, अखंड भारत का पक्षधर होने के कारण राष्ट्रवादी मुस्लिम बताते हैं तो क्या वे गलत हैं? और, इतिहासकारों   की  इस परिभाषा के अनुसार यदि नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय हितों को अन्य हितों से ऊपर रखते हैं तो वे राष्ट्रवादी हिंदू हो सकते हैं ,हिंदू राष्ट्रवादी नहीं.स्वयं को हिंदू राष्ट्रवादी कहने पर वे जिन्ना के समानांतर दूसरे खाँचे में फिट हो जाते हैं.

          बेहतर हो कि हम हिंदू,मुस्लिम,सिख,ईसाई,बौद्ध और पारसी होते हुए भी राष्ट्रवादी हों.यदि हम अपने राष्ट्र के हितों को सर्वोपरि समझते और रखते  हैं और उनके लिए अपने व्यक्तिगत हितों को बलिदान कर सकते हैं तो हम राष्ट्रवादी हैं;राष्ट्रवाद या  राष्ट्रवादी के साथ कोई विशेषण लगाने की जरूरत नहीं है. अन्यथा ;इसी तर्ज पर कल को जब लोग काश्मीरी राष्ट्रवादी,सिख राष्ट्रवादी, नागा राष्ट्रवादी,मिजो राष्ट्रवादी और तमिल राष्ट्रवादी होने का दावा करने लगेंगे तो राजनाथ सिंह जी की प्रतिक्रिया क्या होगी?तब भी क्या वे राष्ट्रवाद और राष्ट्रवादी के साथ इन विशेषणों के संयुक्त होने को औचित्यपूर्ण बताएंगे?  

बुधवार, 17 जुलाई 2013

अब तौ जीभ भई गजब कटारी!

            पिछले कुछ दिनों से  चल रही अखाडे वाली शैली की राजनीतिक बयानबाजी देखकर लगता है कि यदि गोस्वामीजी आज के युग में होते तो उन्हें कहना पडता-"देखि दसनन्हि  सोझाई  होऊँ  बलिहारी।अब तौ जीभ भई गजब कटारी॥" गोस्वामी तुलसीदासजी ने  विभीषण की रावण के साथ रहने की बेचारगी की तुलना विभीषण-हनुमान संवाद के माध्यम से दाँतों के मध्य जीभ के रहने से की थी-"सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।" इसी से कुछ आगे गोस्वामीजी एक चौपाई में विभीषण से कहलवाते हैं-"अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥" आगे हनुमानजी विभीषण से अपने विषय में कहते हैं-"कहहु कवन मैं परम कुलीना।कपि चंचल सबहिं बिधि हीना॥ प्रात लेई जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥ " एक तीनों लोकों के विजेता और देवों से भी गुलामी करवाने वाले लंकेश का भाई और दूसरा भगवान के अवतार समझे जाने वाले श्रीराम का दूत जिनकी आज तमाम  जन उपासना करते हैं. पर दोनों किस विनम्र भाव से एक दूसरे से मिलते हैं;किस मुलायमियत से एक दूसरे से बात करते हैं.पर हम हिंदू धर्म के अनुयाई होने का दावा करते हुए भी अपने धर्मग्रंथों  से भी कुछ नही सीखते हैं;लगता है शायद हरिकृपा का अभाव है.

          नरेंद्रभाई मोदी बहुत परिश्रमी व्यक्ति हैं, जवाहरलालजी की तरह दिन में अट्ठारह घंटे काम करने वाले.ईमानदार हैं. आर्थिक नीति सबंधी उनके विचार और भविष्य की योजनाएं पानी की तरह साफ और स्पष्ट हैं.जनता को भी एक विकल्प की तलाश है.पर उन्हे यह सोचना चाहिए कि जब वे कुत्ते के पिल्ले और बुर्के जैसे उपमानों का प्रयोग करते हैं तो उनके माध्यम से क्या संदेश जाता है.इन शब्दों के प्रयोग से भाषणों के दौरान तालियाँ जरूर मिलती हैं,जो वक्ता को पुन: ऐसे शब्दों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती हैं पर आगे यदि इसी क्रम में मौलाना ,मियाँ,पायजामा जैसे शब्दों का प्रयोग होता  है तो वे उनके विरोधियों की धारणाओं को न्यूट्रल जनसामान्य में  पुख्ता करने का ही काम करेंगे.आज बी जे पी में मोदी को राजधर्म की याद दिलाने वाला कोई बाजपेयी नही है;फिर भी जय-जयकार करने वालों की भीड  के बीच में यशवंत सिन्हा ने उन्हे  कुछ नेक सलाह दी  है जिस पर ध्यान देना उनके लिए अच्छा होगा.आज वे सिर्फ गुजरात के परिप्रेक्ष्य में राजनीति नहीं कर रहे  हैं बल्कि उन्होने भारत माँ की सेवा करने की और उसका कर्ज उतारने की इच्छा व्यक्त की है. तो आज फिर उन्हें  बाजपेयी के शब्दों को याद करते हुए भारत माँ के सभी बच्चों को अपना भाई-बहन समझते हुए उनकी संवेदनाओं को ध्यान  में रखना होगा. मोदी, आडवाणी की रथयात्रा के कर्णधारों में से एक थे.इसलिए उन्हें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि अपनी सारी मेहनत के बावजूद हॉक की छवि रखने वाले आडवाणी प्रधानमंत्री नहीं बन सके थे और बी जे पी को  सर्वस्वीकार्य बाजपेयी को ही प्रधानमंत्री  बनाना पडा था.इसलिए यदि वे इस देश के मुख्य कार्यकारी के पद को सुशोभित करना चाहते हैं तो उसके लिए अधिक से अधिक वर्गों में स्वीकार्यता एक अनिवार्य शर्त है .अन्यथा या तो जनता फिर कुशासन  को ही झेलने को मजबूर रहेगी अथवा मोदी की मेहनत का फल कोई और खाएगा.अपनी स्वीकार्यता बढाने के लिए मायावती एक उदाहरण हैं जिन्होने"तिलक,तराजू और तलवार........." के नारे को छोडकर गणेशवंदना शुरू कर दी और अपने बूते बसपा को उत्तर प्रदेश में सत्ता में लाने में सफल रहीं.

          मोदी अपनी तुलना शायद दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी से जबानी जमा खर्च के मामले में करवाना पसंद नही करेंगे जिनकी साख उस तरह दाँव पर नहीं  लगी हुई है जिस तरह मोदी की.इसलिए यह दो व्यक्ति जो चाहे बोलें- चाहे बच्चा -बच्चा  राम का  नया नारा दें का या फिर पाँच रुपए की व्याख्या करें.उन्हें उनके हाल पर छोड देना चाहिए.

चलते-चलते:-     शायद पच्चीस वर्ष पहले की बात होगी,मैं रेलगाडी द्वारा कानपुर से लखनऊ आ रहा था.कांनपुर से ही तीन महिलाएं भी चढीं जिन्होने बुरके पहन रखे थे,उनके चेहरे  खुले हुए थे. उनके साथ एक पुरुष भी था.ये महिलाएं मेरे बगल में ही बैठ गईं.मेरे ठीक बगल में बैठी हुई महिला की उम्र यही कोई पचास वर्ष  रही होगी.रास्ते में किसी जगह उनके बुरके का एक सिरा उलट गया तो मैंने देखा कि उस पर लगा हुआ लेबल करांची का था.मुझे लगा कि ये लोग पाकिस्तान से हिंदुस्तान की यात्रा पर आए हैं.अत: मैंने कुछ बात शुरू करने और पाकिस्तान  के हालात के बारे में जानने की गरज से उन महिला से प्रश्न किया-"आप लोग पाकिस्तान से आए हैं?"
 महिला ने मुस्करा कर जवाब दिया -"नहीं ,हम यहीं के हैं".
"आपके बुरके का लेबल करांची का है,इसलिए मैंने सोचा कि आप लोग पाकिस्तान से आए हैं",मैंने कहा.
"बुरका पाकिस्तान का है, पर हम  हिंदुस्तान के हैं",महिला बोली.
अब उनके साथ का पुरुष बोला-"बात वही है कि -सर पे लाल टोपी रूसी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी".इस पर वहाँ बैठे हम सबके सब जन मुस्कुरा उठे.