निराला जी को कवि बनाने वाली जीवनसंगिनी मनोहरा देवी का उनके जीवन पर प्रभाव
कितने वर्णों में, कितने चरणों में तू उठ खड़ी हुई,
कितने बंदों में, कितने छंदों में तेरी लड़ी गई,
कितने ग्रंथों में, कितने पंथों में देखा, पढ़ी गई-
तेरी अनुपम गाथा
मेरे कवि ने देखे तेरे स्वप्न सदा अविकार
--अनामिका, प्रिया में निराला जी
सन 1918-19 के दौरान भारत में फैली स्पेनिश फ्लू महामारी में देश के कम से कम एक करोड़ बीस लाख से एक करोड़ तीस लाख के बीच जन काल के ग्रास में समा गए थे। उस समय के मुंबई प्रांत और संयुक्त प्रांत की एक बड़ी आबादी को इस महामारी ने प्रभावित किया था। हिंदी साहित्य में छायावाद के स्तंभ कवियों में से एक माने जाने वाले महाप्राण निराला का पूरा परिवार इस महामारी की चपेट में आ गया था।
निराला जी का परिवार उन्नाव जिले के गढ़ाकोला गांव का निवासी था, यद्यपि वे अपने पिताजी के साथ बंगाल के महिषादल में रहा करते थे जहां उनके पिता पं. राम सहाय तिवारी, महिषादल के राजा की सेवा में थे । निराला जी की विदुषी पत्नी मनोहरा देवी का मायका रायबरेली नगर से 25 किलोमीटर दक्षिण डलमऊ कस्बे में था। एक संभ्रांत परिवार से संबंध रखने वाले उनके पिता पंडित रामदयाल स्वयं विद्वान थे और विद्वज्जनों का सम्मान करते थे । मनोहरा देवी की माता का नाम पार्वती देवी था । साहित्यानुरागी मनोहरा रामचरित मानस पर विशेष अधिकार रखती थीं। वे हारमोनियम एवं सितार बहुत अच्छा बजाती थीं तथा उनके द्वारा किया जाने वाला रामचरित मानस का सस्वर पाठ लोगों के मन को हर लेता था। निराला जी ने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" में लिखा है कि उन्होंने महिलाओं के बीच में पत्नी को जब "श्री रामचंद्र कृपालु भजु मन, हरण भव भय दारुणम् " गाते हुए सुना ( जब वे उनसे तीन-चार दिनों की प्रथम भेंट के चंद दिनों बाद पहली बार ससुराल गए थे। निराला जी के गांव के आसपास प्लेग की महामारी फैले होने के कारण मनोहरा देवी के पिताजी उन्हें ससुराल के लिए विदा करने के पश्चात शीघ्र वापस लिवा लाए थे ) तो लगा कि जैसे उनके गले में मृदंग बज रहे हैं। निराला जी लिखते हैं- "श्रीमती जी का गाना अच्छा, हिंदी अच्छी। मेरी इन दोनों विषयों की ताली तब तक नहीं खुली। संसार में हारने की सी लाज नहीं। स्त्री सृष्टि की सबसे बड़ी हार है, पुरुष की जीत की सबसे बड़ी प्रमाण-प्रतिमा, इससे मैं हारा।" साहित्य और संगीत पर पत्नी का अधिकार देख ,निराला जी ने वापस कोलकाता जाने का निश्चय कर अपने पिताजी को पत्र द्वारा सूचित कर दिया और ससुराल वालों को भी बता दिया ।
बंगाल में पालन-पोषण होने तथा बंगला माध्यम से शिक्षा-दीक्षा होने के कारण निराला जी स्वाभाविक रूप से बंगला भाषा एवं संस्कृति को श्रेष्ठ समझते थे तथा बंगला को अपनी मातृभाषा के समान समझकर उस पर गर्व भी करते थे। मनोहरा देवी के रामचरितमानस पाठ ने निराला जी को यह सोचने के लिए विवश किया कि हिंदी, बंगला से कमतर नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि मनोहरा देवी ने निराला जी को हिंदी के सौंदर्य का ज्ञान कराया और विधिवत हिंदी का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया।
बंगला संस्कृति में रचे-बसे निराला तदानुरूप सामिष थे और बाल्यकाल से ही विद्रोही प्रकृति के होने के कारण बहुत सी प्रचलित मान्यताओं का विरोध करते थे तथा उनके विपरीत आचरण करते थे। मनोहरा देवी सनातनी ब्राह्मण संस्कारों में रची बसी थीं। उन्होंने निराला जी के सामने तमाम सारे धर्मग्रंथों के उद्धरण रखकर उन्हें बताया कि वह मांसभक्षण कर पाप के भागी बन रहे हैं। निराला जी ने पाप के भय से मांसभक्षण छोड़ दिया। इसके कुछ दिनों बाद एक बुजुर्ग ब्राह्मण ने निराला जी से उनके शरीर पर छा रही दुर्बलता का कारण पूछा। निराला जी ने इसका कारण मांसाहार छोड़ना बताया तथा यह भी बता दिया कि उन्होंने मांसाहार पाप के भय से छोड़ा है। बुजुर्ग ब्राह्मण ने निराला जी से कहा कि वे मांसाहार किया करें, कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के लिए यह पाप नहीं है। इस पर निराला जी ने बुजुर्ग ब्राह्मण से लिखित उद्धरण मांगा। बुजुर्ग ब्राह्मण ने उनसे कहा कि वंशावली में लिखा हुआ है, वह इसे देख लें। तत्पश्चात निराला जी ने पुन: मांस खाना आरंभ कर दिया। मनोहरा देवी ने उनसे कहा कि वे जिस दिन भी मांस खाएंगे, बहुत सारे प्रतिबंध होंगे जिनका उन्हें पालन करना होगा। निराला जी ने कहा कि वे रोज ही मांस खाएंगे। मनोहरा देवी ने कहा कि फिर उन्हें मायके भेज दिया जाए। स्वयं निराला जी ने उल्लेख किया है कि इसके पश्चात यदि वे चार महीने निराला जी के पास रहतीं तो आठ महीने मायके में रहतींं। इस सबने मनोहरा देवी की निर्बलता में योगदान दिया था और जब स्पेनिश फ्लू की महामारी आई तो उनका शरीर उसे सह पाने के लायक नहीं रह गया था।
परंतु हिंदी साहित्य को निराला जैसा महाकवि प्रदान करने का श्रेय निश्चित रूप से मनोहरा देवी को ही है, जिन्होंने पति को हिंदी को जानने-समझने और उसका अध्ययन करने की चुनौती दी। इस पृष्ठभूमि ने कालांतर में निराला जी को हिंदी के शीर्षस्थ साहित्यकार और कवि के रूप में स्थापित करने का बीजारोपण किया । यह कहना अनुचित न होगा कि मनोहरा देवी का स्थान उनके जीवन में प्रकाशस्तंभ के समान है तथा उन्होंने निराला जी के जीवन को उसी प्रकार नई दिशा दिखाई जिस प्रकार विद्योत्तमा ने कालिदास को और रत्नावली ने तुलसीदास को एक नए मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया ।
निराला जी ने "कुल्लीभाट" में लिखा है- श्रीमती जी मेरे अधिकार में पूरी तरह नहीं आ रही थीं, अर्थात शिष्यत्व स्वीकार नहीं कर रही थीं, वह समझती थीं कि मैं और जो कुछ जानता होऊं, हिंदी का पूरा गंवार हूं। …….मुझे भी श्रीमती जी की विद्या की थाह नहीं थी। आखिर, एक दिन बात लड़ गई।
मैंने कहा - "तुम हिंदी-हिंदी करती हो, हिंदी में क्या है"
उन्होंंने कहा- "जब तुम्हें आती ही नहीं तब कुछ नहीं है"। मैंने कहा - " हिंदी मुझे नहीं आती?"
उन्होंने कहा- "यह तो तुम्हारी जबान बतलाती है। बैसवाड़ी बोल लेते हो। तुलसीकृत रामायण पढ़ी है, बस? तुम खड़ी बोली को क्या जानते हो ?"
…….श्रीमती जी पूरे उच्छवास से खड़ी बोली के धुरंधर साहित्यिकों के नाम गिनाती गईं।
निराला जी की अवस्था उस समय 16 वर्ष की थी। अत: यह घटना सन 1896 में उनके जन्म को देखते हुए सन् 1912 की होनी चाहिए। ' राम की शक्ति पूजा' में राम की प्रेरणा के रूप में सीता जी का चित्रण तथा ' तुलसीदास' में तुलसीदास जी की प्रेरणा रूप में रत्नावली का चित्रण - दोनों पर ही निराला जी के मन में बसी मनोरमा देवी की प्रेरणात्मक छवि का प्रभाव है। मनोरमा देवी की प्रेरणा से निराला जी ने अच्छी तरह से हिंदी व्याकरण सीखा और हिंदी में रचना लेखन का प्रयास आरंभ किया । अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" में निराला जी ने 'सरस्वती' और 'मर्यादा' पत्रिकाएं मंगा कर , पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को गुरु मानकर एकलव्य की तरह अच्छी तरह हिंदी व्याकरण सीखने का उल्लेख किया है- " पढ़कर भाव अनायास समझने लगा, पर लिखने में अड़चन पड़ती थी। ब्रजभाषा या अवधी, जो घर की जबान थी, खड़ी बोली के व्याकरण से भिन्न है।……..लेकिन मेहनत सब कुछ कर सकती है। मैं रात दो-दो, तीन-तीन बजे तक सरस्वती लेकर एक-एक वाक्य संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला व्याकरण के अनुसार सिद्ध करने लगा।"
उन्होंने 'जूही की कली' कविता , जो उनकी प्रथम प्रकाशित कविता है , की रचना मनोहरा देवी के जीवन काल में ही की और इसे छपने के लिए सरस्वती पत्रिका में भेजा। पर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा यह रचना अस्वीकृत कर दी गई और कालांतर में यह माधुरी पत्रिका में छपी। मनोहरा देवी के निधन के उपरांत रची गई उनकी कविताओं में युवा मन का श्रंगारिक जोश नहीं दिखाई पड़ता है। वहां पर विरह, अतीत, छायावाद, विप्लव और क्रांति के स्वर ही मिलते हैं।
ससुराल आने - जाने के सिलसिले में ही निराला जी का परिचय डलमऊ कस्बे के ही कुल्ली भाट से हुआ जो उनके मित्र बन गए। अपने आत्मकथात्मक उपन्यास "कुल्लीभाट" का नायक उन्होंने इनको ही बनाया ।
सन 1918 में स्पेनिश फ्लू महामारी का शिकार होकर निराला जी की प्रेरणा मनोहरा देवी उनके जीवन से सदा के लिए विदा हो गईं। मनोरमा देवी का इलाज करने वाले डॉक्टर ने निराला जी को बताया कि उनके फेफड़े कफ से जकड़ गए थे और उन्होंने दवा आदि लेने से इनकार कर दिया था। स्पेनिश फ्लू महामारी ने निराला जी के जीवन को किस प्रकार प्रभावित किया इसका उल्लेख उन्होंने अपने उपन्यास "कुल्लीभाट" में किया है-
" इसी समय इनफ्लुएंजा का प्रकोप हुआ । पिताजी एक साल पहले गुजर चुके थे इसीलिए नौकरी की थी। नहीं तो हर लड़के की तरह दुनिया को सुखमय देखते रहने के स्वप्न लिए रहता, कम से कम लिए रहूंगा, यही सोचता था।
तार आया - तुम्हारी स्त्री सख्त बीमार है, अंतिम मुलाकात के लिए आओ।' मेरी उम्र तब बाईस साल थी। स्त्री का प्यार उसी समय मालूम दिया जब वह स्त्रीत्व छोड़ने को थी। अखबारों से मृत्यु की भयंकरता मालूम हो चुकी थी। गंगा के किनारे आ कर प्रत्यक्ष की। गंगा में लाशों का ही जैसे प्रवाह हो। ससुराल जाने पर मालूम हुआ, स्त्री गुजर चुकी है ; दादाजाद बड़े भाई देखने के लिए आकर बीमार होकर घर गए हैं। मैं दूसरे ही दिन घर के लिए रवाना हुआ। जाते हुए रास्ते में देखा, मेरे दादाजाद बड़े भाई साहब की लाश जा रही है। रास्ते में चक्कर आ गया। सिर पकड़ कर बैठ गया।
घर जाने पर भाभी बीमार पड़ी दिखीं। पूछा, " तुम्हारे दादा को कितनी दूर ले गए होंगे?" मैं चुप हो गया। उनके चार लड़के और एक दूध-पीती लड़की थी। उस समय बड़ा लड़का मेरे साथ रहता था, बंगाल में पढ़ता था। घर में चाचा जी अभिभावक थे। भाई साहब की लाश निकलने के साथ चाचा जी भी बीमार पड़े । मुझे देखकर कहा, "तू यहां क्यों आया?"
पारिवारिक स्नेह का वह दृश्य कितना करुण और हृदयद्रावक था, क्या कहूं? स्त्री और दादा के वियोग के बाद हृदय पत्थर हो गया। रस का लेश न था। मैंने कहा, "आप अच्छे हो जाएं, तो सबको लेकर बंगाल चलूं।"
उतनी उम्र के बाद यह मेरा सेवा का पहला वक्त था। तब से अब तक किसी-न-किसी रूप से फुर्सत नहीं मिली। दादा के गुजरने के तीसरे दिन भाभी गुजरीं। उनकी दूध-पीती लड़की बीमार थी। रात को उसे साथ लेकर सोया। बिल्ली रात-भर आफत किए रही। सुबह उसके प्राण निकल गए। नदी के किनारे उसे ले जाकर गाड़ा । फिर चाचाजी ने प्रयाण किया। गाड़ी गंगा तक जैसे लाश ही ढोती रही। भाभी के तीन लड़के बीमार पड़े । किसी तरह सेवा-शुश्रूषा से अच्छे हुए। इस समय का अनुभव जीवन का विचित्र अनुभव है। देखते-देखते घर साफ हो गया। जितने उपार्जन और काम करने वाले आदमी थे, साफ हो गए। चार लड़के दादा के, दो मेरे। दादा के सबसे बड़े लड़के की उम्र 15 साल, मेरी सबसे छोटी लड़की साल-भर की। चारों ओर अंधेरा नजर आता था।
घर से फुर्सत पाने पर मैं ससुराल गया। इतने दु:ख और वेदना के भीतर भी मन की विजय रही। रोज गंगा देखने जाया करता था। एक ऊंचे टीले पर बैठकर लाशों का दृश्य देखता था। मन की अवस्था बयान से बाहर। डलमऊ का अवधूतटीला काफी ऊंचा, मशहूर जगह है। वहां गंगाजी ने एक मोड़ ली है। लाशें इकट्ठी थीं। उसी पर बैठकर घण्टों वह दृश्य देखा करता था। कभी अवधूत की याद आती थी, कभी संसार की नश्वरता की।
एक दिन पूछ-पूछ कर कुल्ली वहां पहुंचे। पहले दुखी थे, मेरे लिए संवेदना लिए हुए थे, देख कर मुस्कुरा दिए- बड़ी निर्मल मुस्कान। मैंने देखा वह सच्चा मित्र है।
कुल्ली ने कहा, " मैं जानता हूं, आप मनोहर को बहुत चाहते थे। ईश्वर चाह की ही जगह मार देता है, होश कराने के लिए। आप मुझसे ज्यादा समझदार हैं, और मैं आपको क्या समझाऊं ? पर यह निश्चित रूप से समझिएगा, भोग होता है, अच्छा वह है, जिसका अंत अच्छा हो।"
मैं अवधूत की कुटी की गड़ी ईंटें देख रहा था। कुल्ली ने कहा, "यहां आप क्यों आए हैं? क्योंकि मृत्यु का दृश्य आपने देखा है। मृत्यु के बाद मन शांति चाहता है। जो मर गए हैं, वे भी शांति प्राप्त कर चुके हैं। यह अवधूत-टीला है। बहुत पहले यहां एक अवधूत रहते थे। बस्ती से यह जगह कितनी दूर है! मरघट से भी दूर है, यानी अवधूत मृत्यु के बाद जैसे पहुंचे हों। यहां जैसे शांति-ही-शांति हो।"
कुल्ली की बात बड़ी भली मालूम दी। बड़ा सुंदर तत्व जैसे निहित था। मुझे बड़ा आश्वासन मिला। ऐसी बात इधर मैंने किसी से नहीं सुनी थी।
कुल्ली ने कहा, "चलिए, रामगिरि महाराज के मठ में दर्शन कीजिए। आप वहां हो तो आए होंगे? "
मैंने कहा, " नहीं ।"
कुल्ली उठे। उनके साथ मैं भी चला गया।
अपने जीवन की प्रेरणास्रोत के रूप में मनोरमा देवी का उल्लेख करते हुए निराला जी ने लिखा है- जिसकी हिंदी के प्रकाश से, प्रथम परिचय के समय, मैं आंखें नहीं मिला सका, लजाकर हिंदी की शिक्षा के संकल्प से कुछ काल बाद देश से विदेश (बंगाल- महिषादल) पिता के पास चला गया था, और उस हिंदी-हीन प्रान्त में बिना शिक्षक के 'सरस्वती' की प्रतियां ले कर पद-साधना की, और हिंदी सीखी थी; जिसका स्वर गृहजन,परिजन और पुरजनों की सम्मति में मेरे (संगीत) स्वर को परास्त कर देता था; जिसकी मैत्री की दृष्टि क्षण-मात्र में मेरी रुक्षता को देखकर मुस्कुरा देती थी, जिसने अंत में अदृश्य होकर, मुझसे मेरी पूर्ण परिणीता की तरह मिलकर मेरे जड़ हाथ को अपने चेतन हाथ से उठाकर दिव्य श्रृंगार की पूर्ति की, वह सुदक्षिणा स्वर्गीया प्रिया प्रकृति दिव्यधामवासिनी हो गई।
गीतिका में उन्होंने लिखा है-
रंग गई पग-पग धन्य धरा
हुई जग जगमग मनोहरा
श्रंगार, रहा जो निराकार,
रस कविता में उच्छ्वसित धार।
सरोज स्मृति में-
गाया स्वर्गीया प्रिया संग-
भरता प्राणों में राग- रंग
परिमल, निवेदन में-
एक दिन थम जाएगा रोदन
तुम्हारे प्रेम अंचल में।
लिपट स्मृति बन जाएंगे कुछ कन
कनक सींचे नयन जल में।
परिमल, प्रिया के प्रति में-
एक बार भी यदि अजान के
अंतर से उठ आ जातीं तुम
एक बार भी प्राणों की तम
छाया में आ कह जातीं तुम
सत्य हृदय का अपना हाल
कैसा था अतीत वह,अब यह
बीत रहा है कैसा काल
निराला जी लिखते हैं- "कभी अवधूत की याद आती थी, कभी संसार की नश्वरता की । अब पिताजी नहीं,माताजी नहीं, पत्नी नहीं, केवल मैं हूं! केवल मैं! केवल मैं!!" निराला जी ने सारे दुखों से उबर कर स्वयं को संभाला और अपने भविष्य के जीवन संघर्ष में लग गए -
अभी न होगा मेरा अंत
अभी -अभी ही तो आया है
मेरे वन में मृदुल बसंत।
मेरी जीवन का यह जब प्रथम चरण
इसमें कहां मृत्यु है जीवन ही जीवन
अभी पड़ा है आगे सारा यौवन !
स्वर्ण किरण करलोलों पर
बहता रहे यह बालक मन
रोजी- रोटी का संघर्ष, स्वयं को एक साहित्यकार के रूप में स्थापित करने का संघर्ष और परिवार के बच्चों के पालन-पोषण का संघर्ष। बेटे रामकृष्ण और बेटी सरोज की देखभाल करते हुए वे पत्नी से विछोह को भूले हुए थे-
"खण्डित करने को भाग्य-अंक
देखा भविष्य के प्रति अशंक"
साहित्य के क्षेत्र में आरंभिक असफलताओं के बादमु क्त छंद और सौंदर्य बोध के बल पर निराला जी ने स्वयं को हिंदी साहित्य के चर्चित कवि के रूप में स्थापित कर लिया। उनका विरोध करने वाले भी थे पर अपने विद्रोही स्वभाव के बलबूते वे उन्हें जवाब देने में सक्षम थे। अन्य छायावादी कवियों की भांति उनकी कविता पर निराशा नहीं हावी थी , उसमें आशा का स्वर था। परंतु पुत्री सरोज के विवाहोपरांत सन् 1935 में उसका बीमारी से देहावसान हो जाने पर पहली बार निराला जी के काव्य में निराशा के स्पष्ट स्वर दिखाई देते हैं। सरोज स्मृति में लिखी उनकी सुप्रसिद्ध पंक्तियां हैं -
दु:ख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज जो नहीं कही
कन्ये मत कर्मों का अर्पण
करता तेरा तर्पण।