भाई पुष्यमित्र उपाध्याय की कविता " संग-ऐ -मरमर पर तराशी हुई तुम.........बडे बेकद्र होंगे वो बुत-ऐ-नायाब बिगाडने वाले" से प्रेरित होकर होली पर दो गजलें-
(1)
मेरे दिल में आग लगा जाते हैं तुझपे दाग लगाने वाले
होली के नाम बुत-ए-नायाब- को छूकर जाने वाले
जल जाते नहीं क्यूँ कलेजे को राख ये कर जाने वाले
बेहया बन होली में बेबाक ये तेरे करीब चले आने वाले
दोस्त कह के खुद को मेरा तुझपे गुलाल मल जाने वाले
क्या करें इस होली का हम हैं जी मसोस के रह जाने वाले
तेरे हुस्न पे साया औरों का कंबख्त ये रंग लगाने वाले
आज बन के रकीब 'संजय' जी को हैं ये जलाने वाले
(बुरा न मानो होली है)
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(2)
ये निगोड़ी होली सिर्फ मेरे- तेरे दरम्याँ क्यूँ न रह जाती
ऐ मेरी हीर होली में तू सिर्फ इस राँझे की क्यूँ न रह जाती
मेरे प्रेम की शीतल जलधार ही तुझे जो भिगो पाती
मेरी रूह जलन की आग से छुटकारा पा भी जाती
प्यार के उजले गुलाल से ये मूरत और उजली हो जाती
उसके आगे अजंता की मूरत भी फीकी पड़ जाती
सतरंगी होली में रंगी तेरी ये मूरत अब देखी न जाती
वही संगमरमर की मूरत तुझमें फिर से नजर आ जाती
बेदाग-उजली- शफ्फाक हमें नजर फिर से तू आ जाती
हुई होली बेहिसाब 'संजय' काश अब बीत भी जाती
- संजय त्रिपाठी
(1)
मेरे दिल में आग लगा जाते हैं तुझपे दाग लगाने वाले
होली के नाम बुत-ए-नायाब- को छूकर जाने वाले
जल जाते नहीं क्यूँ कलेजे को राख ये कर जाने वाले
बेहया बन होली में बेबाक ये तेरे करीब चले आने वाले
दोस्त कह के खुद को मेरा तुझपे गुलाल मल जाने वाले
क्या करें इस होली का हम हैं जी मसोस के रह जाने वाले
तेरे हुस्न पे साया औरों का कंबख्त ये रंग लगाने वाले
आज बन के रकीब 'संजय' जी को हैं ये जलाने वाले
(बुरा न मानो होली है)
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(2)
ये निगोड़ी होली सिर्फ मेरे- तेरे दरम्याँ क्यूँ न रह जाती
ऐ मेरी हीर होली में तू सिर्फ इस राँझे की क्यूँ न रह जाती
मेरे प्रेम की शीतल जलधार ही तुझे जो भिगो पाती
मेरी रूह जलन की आग से छुटकारा पा भी जाती
प्यार के उजले गुलाल से ये मूरत और उजली हो जाती
उसके आगे अजंता की मूरत भी फीकी पड़ जाती
सतरंगी होली में रंगी तेरी ये मूरत अब देखी न जाती
वही संगमरमर की मूरत तुझमें फिर से नजर आ जाती
बेदाग-उजली- शफ्फाक हमें नजर फिर से तू आ जाती
हुई होली बेहिसाब 'संजय' काश अब बीत भी जाती
- संजय त्रिपाठी
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