आज राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का जन्मदिन है और
आज के दिन उनके ऊपर बहुत कुछ कहा तथा लिखा
जा रहा है. बापू के चरित्र का जो सबसे महत्वपूर्ण गुण मुझे लगा वह यह कि उन्होने निरंतर
स्वयं का विष्लेषण कर स्वयं में सुधार किया
और अपनी उन्नति को विशेषकर आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में सुनिश्चित किया. एक छोटी सी
घटना इसका उदाहरण है. जब वे दक्षिण अफ्रीका में थे उन्होने अपने आश्रम में सभी के लिए
शौचालय साफ करने का काम अनिवार्य कर दिया पर बा (उनकी पत्नी) इसके लिए नहीं तैयार थीं.
एक दिन जब बापू के कहने पर भी उन्होंने यह कार्य नहीं किया तो बापू क्रोध में आ गए
तथा उन्हें घर से निकल जाने के लिए कह दिया. इस पर बा ने उन्हें विवाह के समय लिए गए
सात फेरों तथा वचनों का स्मरण कराया. गाँधीजी ने अपनी गलती का अहसास किया और
बा से क्षमा माँगी. हम सबके जीवन में ऐसे अवसर आते हैं पर कई बार क्षमा माँगने में
हमारा अहम आडे आ जाता है. कई बार हम अपने अहम के कारण अपना आत्मनिरीक्षण कर आत्मसुधार
के लिए तैयार नहीं होते हैं. कई बार जब गलती दूसरे की होती है तो हम अपनी संवेदनशीलता के कारण क्षमा करने के लिए तैयार नहीं होते हैं. मैंने
बापू के जीवन से इस विषय में सीख ग्रहण करने का प्रयास किया है तथा अपने संदर्भ में इस संबंध में एक घटना का उल्लेख नीचे
कर रहा हूँ.
विगत उन्नीस अगस्त को
प्रात: मैं कार्यालय के लिए तैयार हो रहा
था तभी मुझे माँ की तबियत ज्यादा खराब
लगने लगी और मुझे लगा कि उन्हें तुरंत अस्पताल में दाखिल करवाना श्रेयस्कर होगा.
उनकी तबियत कुछ दिनों से खराब चल रही थी. पत्नी अपने विद्यालय जा चुकी थीं . मैंने
कार्यालय में सूचना दे दी और माँ को लेकर अस्पताल चला गया. अस्पताल में
डॉक्टर ने उनका परीक्षण किया और कहा कि उन्हें कुछ दिन अस्पताल में ही रहना
होगा. मेरे घर से निकटस्थ अस्पतालों में यह अस्पताल साफ - सुथरा है. दूसरी बात, मरीज की सारी तीमारदारी
अस्पताल के लोग स्वयं करते हैं और जैसी आवश्यक हो तद्नुसार डॉक्टर, न्यूट्रीशनिस्ट और
डायटीशियन की सलाह के अनुसार मरीज को औषधि एवं आहार भी स्वयं अपने स्तर पर प्रदान
करते हैं. घर के लोगों और आगंतुकों को नियत समय में ही मरीज से मिलने की इजाजत
होती है. इस कारण थोडा मँहगा होने पर भी इस अस्पताल में मरीज को भर्ती करने के बाद
घर वाले थोडा निश्चिंत रह पाते हैं. इन दिनों मेरे ऊपर कार्यालय के भी बहुत से
कामों का भार था.
अगले दिन बीस अगस्त को सायं
मैं कोलकाता के कालेज स्ट्रीट क्षेत्र के एक प्रेस में बैठ कर अपनी विभागीय
पत्रिका को अंतिम रूप देने का कार्य कर रहा था जिसका मैं संपादक हूँ. पिछले कुछ
दिनों से कोलकाता में काफी बारिश हो रही थी और उस दिन भी जब मैं दोपहर में प्रेस
पहुँचा उसके थोडी देर के बाद ही बारिश शुरू हो गई. शाम को प्रेस के एक कर्मचारी ने
बताया कि प्रेस के आस-पास पानी भरने लगा है. लगभग आठ बजे प्रेस के एक कर्मचारी ने
फिर आकर बताया कि आस-पास दूर तक पानी भर गया है. मुझे स्यालदह से तीस किलोमीटर दूर
लोकल ट्रेन पकड कर वापस जाना था, कार्यालय से गाडी लेकर
भी नहीं आया था. इस कारण मैं चिंतित हो गया और बाकी काम किसी और दिन आकर समाप्त
करने का निश्चय किया तथा प्रेस के मालिक को अपना इरादा बताकर नीचे उतर कर प्रेस के
दरवाजे पर आ गया .
प्रेस के दरवाजे के बाहर देखा
तो घुटनों तक पानी भरा हुआ था जिसमें लोग अपने कपडे बटोरते-समेटते, सँभलते-गिरते चले जा
रहे थे. बरसात का मौसम मेरा सर्वप्रिय मौसम है और बारिश जितने जोर की हो मुझे उतना
ही मजा आता है. यदि कुछ अर्सा छोड दूँ तो मैं सदैव प्राकृतिक रूप से रमणीक स्थानों
पर रहा हूँ जहाँ ड्रेनेज की अच्छी व्यवस्था विद्यमान है और जो नीचे नहीं हैं, इस कारण वहाँ जलभराव
जैसी समस्या का कभी सामना नहीं करना पडा. इन दिनों भी गंगा के किनारे रहता हूँ और
घर के बरामदे में बैठकर बरसात देखना मेरा प्रिय शगल है. पर कोलकाता के कालेज
स्ट्रीट की इस तंग गली में बरसात का भरता पानी देखकर मेरी चिंता बढती जा रही थी,आनंद तो बहुत दूर की बात
है. प्रेस के कर्मचारियों ने कहा कि गली में सवारी का कोई साधन नहीं मिलेगा
क्योंकि बारिश का नजारा देखकर लोग अपने घरों को भाग गए हैं. प्रेस के एक कर्मचारी से
मैंने आग्रह किया कि वह मुख्य सडक पर
मुझे किसी ऐसे स्थान तक पहुँचा दे जहाँ से स्यालदह के लिए कोई सवारी का साधन मिल
जाए. उसने मुझे सेंट्रल एवेन्यू के एक आटो स्टैंड तक पहुँचा दिया जहाँ मुझे
स्यालदह के लिए आटो मिल गया.
स्यालदह पहुँचने पर मुझे ख्याल
आया कि कल रक्षाबंधन है. मैंने बहन को फोन किया जो कोलकाता में ही रहती है. मुझे
विश्वास था कि माँ की तबियत को देखते हुए
बहन ने कल मेरे यहाँ आने का कार्यक्रम बनाया होगा. इससे बहन माँ से भी मिल लेगी और
हम सब रक्षाबंधन भी मना लेंगे. पर जब बहन को फोन किया तो उसने कहा कि जिस तरह की
बरसात हो रही है उसे देखते हुए मैं नहीं आ पाऊँगी, इन्हें(मेरे बहनोई)
कार्यालय के कामों के कारण फुर्सत नहीं है अन्यथा इनके साथ आ जाती. मैंने कहा- “देखो,मुझे माँ के पास अस्पताल
भी जाना है, डॉक्टर से भी परामर्श के लिए मिलना है, बेहतर है कि तुम गाडी
लेकर चली आओ”. बहन ने फिर कहा कि बरसात में कहाँ फंसना पडे भरोसा नहीं इसलिए मैं
नहीं आऊँगी.अब मुझे बहन पर थोडा-थोडा गुस्सा आने लगा. मैंने उसे फिर से मनाने की
कोशिश की- “देखो, मुख्य सडक पर जलभराव जैसी कोई समस्या नहीं इसलिए तुम आ
जाओ”.पर बहन राजी नहीं हुई. मैं स्यालदह से लोकल पकड कर घर आ गया.
घर पर पत्नी ने अगले दिन
रक्षाबंधन मनाने के बारे में पूछा. मैंने उसे बहन से हुई बात के बारे में बता
दिया. पत्नी ने पूछा – “तो फिर क्या आप उसके यहाँ जाएंगे”. ”देखो मुझे अस्पताल भी
जाना है, बहुत से और भी जरूरी काम पडे हुए हैं; फिर मैं कहाँ जा पाऊँगा
” – मैंने कहा. दरससल मुझे बहन पर गुस्सा भी आ रहा था. मुझे लग रहा था कि माँ की तबियत
खराब है,बहन को कम से कम उन्हें देखने तो आना चाहिए था.
पर अगले दिन जब मैं सुबह उठा
तो मैंने उक्त प्रसंग पर नए सिरे से विचार किया . मैंने सोचा छोटी-छोटी बातों और
संवेदनशीलताओं के कारण भाई-बहन , पति-पत्नी, मित्र और सहकर्मियों के बीच
रिश्ते इनका शिकार हो जाते हैं. संवेदनाएं इकट्ठा होते-होते जब स्थाई संवेदनशीलता
में तब्दील हो जाती हैं तो हमारे रिश्तों में स्थाई दरार या खटास पैदा कर देती
हैं. बहन के लिए उसकी अपनी दृष्टि से समस्याएं हो सकती हैं जो उसके लिए वास्तविक हो
सकती हैं. किसी व्यक्ति के लिए उसका परसेप्शन ही उसके लिए रियलिटी या वास्तविकता होता
है. मैं नहा –धो कर तैयार हो गया और पत्नी को बता दिया कि मैं लोकल पकड कर बहन के
घर जा रहा हूँ और जल्दी ही राखी बँधवाकर माँ के पास अस्पताल जाने के समय से पहले
लौट आऊँगा. जबसे कोलकाता तैनाती पर
आया हूँ, राखी बँधवाने का क्रम नहीं टूटा है तो इस बार क्यूँ
टूटे.
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