एक बात जो देवालयों विशेषकर भव्य मंदिरों के संदर्भ में मैंने देखी है वह यह कि गरीब व्यक्ति प्राय: इनमें घुसने की हिम्मत नहीं कर पाता. इन मंदिरों के बाहर भीख मांगने वालों की कतार तो आपको दिख जाएगी पर भीतर ईश्वर से याचना करने वाला कोई गरीब नहीं दिखेगा. इसे देखकर कई बार मेरे मस्तिष्क में यह प्रश्न उठा कि विपन्न व्यक्ति मंदिर में आने से डरता क्यूँ है. क्या उसे ईश्वर की जरूरत नहीं है या उसका ईश्वर अलग है अथवा फिर भव्यता से डरकर वह मंदिर में नहीं आता. एकाध बार यदि गलती से ऐसा कोई चला आया तो उसे निकाले जाते हुए भी देखा है.
सन उन्नीस सौ अट्ठासी-नवासी में मैं कालेज की पढाई समाप्त करने के उपरांत शोधार्थी के रूप में नामांकित था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. मेरे एक शिक्षक जिन्होने छोटी कक्षाओं में मुझे पढाया था एक दिन मेरे घर आए और बताया कि हम लोगों के घर के पास ही एक मंदिर निर्माणाधीन है और वे उसका प्रबंधन देख रहे हैं. उन्होंने यह भी बताया कि मंदिर में प्रतिदिन चौबीसों घंटे रामधुन गाई जाएगी और इसके लिए कुछ व्यक्ति मंदिर में रखे जाएंगे जिन्हें इस कार्य के लिए कुछ वेतन दिया जाएगा. इस वेतन की व्यवस्था करने के लिए उन्होंने नगर के कुछ धनाढ्य व्यक्तियों से बात कर रखी थी जिन्होंने प्रतिमाह इस उद्देश्य से धन देने का वायदा कर रखा था. मैंने उनसे यह कहा कि इस धन का उपयोग कर क्यों नहीं आप मंदिर में एक डिस्पेंसरी खोलते जहाँ गरीबों को चिकित्सा आदि की सुविधा उपलब्ध हो. इस पर उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति रामधुन के आयोजन के लिए धन देने के लिए तैयार हैं यदि मैं उनसे गरीबों के लिए कुछ करने के नाम पर पैसा मांगूँगा तो वे देने को तैयार नहीं होंगे. उनकी समस्या वास्तविक थी. हिंदू समाज के अनेक धनाढ्य व्यक्ति जहाँ धर्म के नाम पर पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं वहीं परोपकार के नाम पर पैसा खर्च करने से वे अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं. अयोध्या ,मथुरा और काशी जैसे धार्मिक स्थानों में धार्मिक संस्थानों और स्थापनाओं के पीछे काफी धन खर्च होता है और यह सब दान से ही आता है. पर इस्लाम में जकात जैसी व्यवस्था और ईसाई सेवा संस्थानों जैसी सेवा परम्परा हिंदू धर्म में नहीं है. इस दिशा में कुछ शुरुआत सोच बदलने के परिणामस्वरूप हुई है और कई संस्थान समाजसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं पर हिंदू धर्मावलंबियों की क्षमता को देखते हुए यह प्रयास पर्याप्त नहीं हैं.
सन उन्नीस सौ अट्ठासी-नवासी में मैं कालेज की पढाई समाप्त करने के उपरांत शोधार्थी के रूप में नामांकित था और प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था. मेरे एक शिक्षक जिन्होने छोटी कक्षाओं में मुझे पढाया था एक दिन मेरे घर आए और बताया कि हम लोगों के घर के पास ही एक मंदिर निर्माणाधीन है और वे उसका प्रबंधन देख रहे हैं. उन्होंने यह भी बताया कि मंदिर में प्रतिदिन चौबीसों घंटे रामधुन गाई जाएगी और इसके लिए कुछ व्यक्ति मंदिर में रखे जाएंगे जिन्हें इस कार्य के लिए कुछ वेतन दिया जाएगा. इस वेतन की व्यवस्था करने के लिए उन्होंने नगर के कुछ धनाढ्य व्यक्तियों से बात कर रखी थी जिन्होंने प्रतिमाह इस उद्देश्य से धन देने का वायदा कर रखा था. मैंने उनसे यह कहा कि इस धन का उपयोग कर क्यों नहीं आप मंदिर में एक डिस्पेंसरी खोलते जहाँ गरीबों को चिकित्सा आदि की सुविधा उपलब्ध हो. इस पर उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति रामधुन के आयोजन के लिए धन देने के लिए तैयार हैं यदि मैं उनसे गरीबों के लिए कुछ करने के नाम पर पैसा मांगूँगा तो वे देने को तैयार नहीं होंगे. उनकी समस्या वास्तविक थी. हिंदू समाज के अनेक धनाढ्य व्यक्ति जहाँ धर्म के नाम पर पैसा खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं वहीं परोपकार के नाम पर पैसा खर्च करने से वे अपने हाथ पीछे खींच लेते हैं. अयोध्या ,मथुरा और काशी जैसे धार्मिक स्थानों में धार्मिक संस्थानों और स्थापनाओं के पीछे काफी धन खर्च होता है और यह सब दान से ही आता है. पर इस्लाम में जकात जैसी व्यवस्था और ईसाई सेवा संस्थानों जैसी सेवा परम्परा हिंदू धर्म में नहीं है. इस दिशा में कुछ शुरुआत सोच बदलने के परिणामस्वरूप हुई है और कई संस्थान समाजसेवा और शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा काम कर रहे हैं पर हिंदू धर्मावलंबियों की क्षमता को देखते हुए यह प्रयास पर्याप्त नहीं हैं.
ऐसे में दिल्ली में आयोजित युवा सम्मेलन में मोदी ने पहले शौचालय फिर देवालय की और धार्मिक मुद्दों के ऊपर विकास को प्राथमिकता देने की बात कह कर हिम्मत दिखाई है. मोदी के इस बयान की आलोचना करने वालों को शायद यह याद नहीं है कि अहमदाबाद में सडकें चौडी किये जाने के दौरान मोदी ने 200 से अधिक मंदिरों को स्थानांतरित करने में कोई संकोच नहीं किया और उन्होंने विश्व हिंदू परिषद के विरोध की भी कोई परवाह नहीं की. इसी कारण पिछले गुजरात चुनाव के दौरान विश्व हिंदू परिषद के अनेक लोग मोदी नहीं केशूभाई पटेल के साथ थे.
मोदी के बयान की जयराम रमेश ने अवसरवादिता कहकर आलोचना की है और स्वयं के पहले के इससे मिलते-जुलते बयान की उस समय बी जे पी द्वारा आलोचना किए जाने की याद दिलाते हुए पार्टी चरित्र के दोहरेपन पर सवाल खडे किए हैं. जयराम रमेश की बात अपनी जगह जायज है. विकास एक ऐसा मुद्दा है जहाँ सभी पार्टियों को एकमत होना चाहिए. विकास होने पर ही गरीब उस स्थिति में पहुँच पाएगा जहाँ मंदिर की भव्यता उसे डराएगी नहीं और वह भी स्वयं को इस लायक समझेगा कि मंदिर में प्रवेश कर ईश्वर से याचना कर सके. विकास ही सभी के लिए समान रूप से देवालय का द्वार खोल सकेगा.
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