एक प्रसिद्ध लोककथा है कि एक बार एक सिंहशावक अपनी माँ से बिछड गया. भटकता हुआ वह सिंहशावक सियारों के एक झुंड के पास पहुँच गया. सियारों को उस पर तरस आया और उन्होंने उसे अपने झुंड में शरण दे दी. सिंहशावक सियारों के बीच में रहते-रहते यह भी भूल गया कि वह सिंहशावक है. उसने सियारों की आदतें अपना लीं. उसका उन्हीं के जैसा स्वभाव विकसित होने लगा. वह उन्हीं की भाषा और स्वर में बोलने लगा. एक दिन एक सिंह घूमता-घामता सियारों के उस झुंड के पास आ गया. सिंह को सियारों के झुंड के बीच सिंह शावक को देख कर बडा आश्चर्य हुआ. सिंह ने सिंहशावक को आकर्षित करने के लिए दहाड की आवाज निकाली. पर सिंह की दहाड सुन कर सियारों का पूरा झुंड दूर भाग गया. उनके साथ सिंहशावक भी हुआँ-हुआँ करता दूर भाग गया. सिंह एक बार फिर झुंड के पास गया और दहाडा. सियारों का झुंड एक बार फिर सिंह शावक समेत हुआँ-हुआँ करता दूर भाग गया. सिंह सोच में पड गया. उसने रात होने का इंतजार किया. जब देर रात गए सियार झुंड के सभी सदस्य सिंहशावक समेत खा-पीकर और हल्ला-गुल्ला मचा कर,थक- हार कर सो गए तब सिंह दबे पाँव सियारों के झुंड के बीच गया और उसने सिंहशावक को पकड लिया. सिंहशावक हुआँ-हुआँ चिल्लाने लगा. उसकी आवाज सुन कर सभी सियार जाग गए पर अपने बीच सिंह को देख कर चिल्ला कर भागने लगे. पर सिंहशावक, सिंह की मजबूत गिरफ्त में होने के कारण नहीं भाग पाया. सिंह ने उससे कहा- "क्यों रे तू इन सियारों के बीच क्या कर रहा है." सिंह शावक कोई जवाब देने के बजाय हुआँ-हुआँ कर रोने लगा. शेर ने उसे चुप कराते हुए कहा- "देख तू मेरे ही समान सिंह कुल का है और भटक कर इन सियारों के बीच रहने लगा है तथा इनके जैसा हो गया है. तू सिंह है, आज से तू मेरे साथ रह और सिंह है तो सिंह जैसा बन. चल सबसे पहले दहाडना सीख. मैं जैसे आवाज निकालता हूँ तू भी निकाल." यह कह कर सिंह दहाडा और सिंह शावक को दहाडने के लिए प्रेरित किया. सिंह शावक, सिंह की बातों से आश्वस्त हुआ और दहाडने की कोशिश करने लगा. पहली-दूसरी बार मरी-मरी सी आवाज निकली पर तीसरी बार वह दहाडने में कामयाब हो गया. चौथी बार वह जोर से दहाडने में कामयाब हो गया और पाँचवीं बार तो उसने अपने नए- नए गुरू बने सिंह जैसी ही गर्जना भरी दहाड निकाली जिसे सुनकर सियारों का झुंड जो सिंह शावक से सिंह को बातें करता देख नजदीक आने का साहस जुटा रहा था और दूर भाग गया. सिंह ने फिर सिंह शावक से कहा -" तूने अपनी ताकत पहचानी? पिछलग्गू नहीं राजा बन कर रह "
भारतीय मध्यमवर्ग की हालत भी अभी कुछ दिनों पहले तक सिंहशावक की सी थी जिसे अपनी ताकत का अहसास नहीं था तथा भ्रष्ट भारत, भ्रष्ट व्यवस्था, भ्रष्ट नेता और भ्रष्ट अफसर को उसने अपनी नियति मान लिया था. पर अन्ना हजारे ने उसे दहाडना सिखाया. दिल्ली में हुए निर्भया या दामिनी कांड ने उसे दहाड की ताकत का अहसास कराया. हाल ही में दागी नेताओं के पक्ष में लाए जा रहे अध्यादेश के विरोध में आवाज बुलंद कर उसने सत्तारूढ तबके को अध्यादेश की वापसी के पक्ष में अपना मत बदलने के लिए मजबूर कर दिया , वैसे ही जैसे सिंहशावक जब पूरी ताकत से दहाडा तो सियारों का झुंड भाग खडा हुआ. पर अपनी असली ताकत का अंदाजा शायद उसे अभी भी नहीं है. उसे अभी भी यह विश्वास नहीं है कि देश की सत्ता का सूत्र उसके हाथों में भी हो सकता है. मध्यमवर्ग, जिसकी आबादी लगभग बीस करोड है, यदि पिछले चुनाव के आँकडों पर नजर डाले तो उसे अपनी शक्ति पता चल जाएगी. वर्ष 2009 के चुनावों में कांग्रेस को 11.9 करोड वोट मिले थे जिनके बूते पर यह दल देश को प्रधानमंत्री देने में कामयाब रहा था. वर्ष 2014 के चुनावों में बारह करोड युवा वोटरों के देश की वोटर जमात में शामिल होने की उम्मीद है. इनमें लगभग तीन करोड वोटर मध्यमवर्गीय परिवारों के प्रतिनिधि होंगे. मध्यमवर्गीय व्यक्ति किसी भी जाति या धर्म का हो उसकी आकांक्षाएं समान हैं- भ्रष्टाचारमुक्त भारत जहाँ हर व्यक्ति कानून के हाथों में खुद को महफूज समझे, जहाँ बहू-बेटियाँ बेहिचक घर से बाहर आ-जा सकें, जहाँ हर हाथ के लिए काम उपलब्ध हो, बिजली-पानी और सडक की मूलभूत जरूरतें पूरी होती हों और सबसे बडी बात जहाँ शिक्षा के लिए और अपने सपनों को साकार करने के लिए हर किसी को अवसर उपलब्ध हों क्योंकि मध्यमवर्ग की जरूरत और सपने सिर्फ रोटी के जुगाड तक सीमित नहीं हैं. पर इसे साकार करने के लिए मध्यमवर्ग को राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति विरक्ति का भाव छोड कर मतदान के लिए आगे आना होगा तथा उसे व्यवस्था परिवर्तन का जरिया बनाना होगा. इसके अलावा सियारों के झुंड में रहने वाले सिंह शावक की तरह उसने जो आदतें उसमें विकसित हो गई हैं-जातीय , सामुदायिक और धार्मिक आधारों पर विचार करने की ; उन्हें उसे देशहित में त्यागना होगा. नि:संदेह कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत मध्यमवर्ग का दायरा बढता गया है तथा समाज में उसकी स्थिति मजबूत हुई है पर यदि देश की राजनीति तथा प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए वह इसका उपयोग नहीं करता है तो हम आगे भी भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट प्रशासन के शिकार बने रहेंगे तथा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को सहने के लिए मजबूर बने रहेंगे जिसे जन- आकांक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है तथा स्व-परिपोषण ही जिसका एकमात्र उद्देश्य है.
भारतीय मध्यमवर्ग की हालत भी अभी कुछ दिनों पहले तक सिंहशावक की सी थी जिसे अपनी ताकत का अहसास नहीं था तथा भ्रष्ट भारत, भ्रष्ट व्यवस्था, भ्रष्ट नेता और भ्रष्ट अफसर को उसने अपनी नियति मान लिया था. पर अन्ना हजारे ने उसे दहाडना सिखाया. दिल्ली में हुए निर्भया या दामिनी कांड ने उसे दहाड की ताकत का अहसास कराया. हाल ही में दागी नेताओं के पक्ष में लाए जा रहे अध्यादेश के विरोध में आवाज बुलंद कर उसने सत्तारूढ तबके को अध्यादेश की वापसी के पक्ष में अपना मत बदलने के लिए मजबूर कर दिया , वैसे ही जैसे सिंहशावक जब पूरी ताकत से दहाडा तो सियारों का झुंड भाग खडा हुआ. पर अपनी असली ताकत का अंदाजा शायद उसे अभी भी नहीं है. उसे अभी भी यह विश्वास नहीं है कि देश की सत्ता का सूत्र उसके हाथों में भी हो सकता है. मध्यमवर्ग, जिसकी आबादी लगभग बीस करोड है, यदि पिछले चुनाव के आँकडों पर नजर डाले तो उसे अपनी शक्ति पता चल जाएगी. वर्ष 2009 के चुनावों में कांग्रेस को 11.9 करोड वोट मिले थे जिनके बूते पर यह दल देश को प्रधानमंत्री देने में कामयाब रहा था. वर्ष 2014 के चुनावों में बारह करोड युवा वोटरों के देश की वोटर जमात में शामिल होने की उम्मीद है. इनमें लगभग तीन करोड वोटर मध्यमवर्गीय परिवारों के प्रतिनिधि होंगे. मध्यमवर्गीय व्यक्ति किसी भी जाति या धर्म का हो उसकी आकांक्षाएं समान हैं- भ्रष्टाचारमुक्त भारत जहाँ हर व्यक्ति कानून के हाथों में खुद को महफूज समझे, जहाँ बहू-बेटियाँ बेहिचक घर से बाहर आ-जा सकें, जहाँ हर हाथ के लिए काम उपलब्ध हो, बिजली-पानी और सडक की मूलभूत जरूरतें पूरी होती हों और सबसे बडी बात जहाँ शिक्षा के लिए और अपने सपनों को साकार करने के लिए हर किसी को अवसर उपलब्ध हों क्योंकि मध्यमवर्ग की जरूरत और सपने सिर्फ रोटी के जुगाड तक सीमित नहीं हैं. पर इसे साकार करने के लिए मध्यमवर्ग को राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति विरक्ति का भाव छोड कर मतदान के लिए आगे आना होगा तथा उसे व्यवस्था परिवर्तन का जरिया बनाना होगा. इसके अलावा सियारों के झुंड में रहने वाले सिंह शावक की तरह उसने जो आदतें उसमें विकसित हो गई हैं-जातीय , सामुदायिक और धार्मिक आधारों पर विचार करने की ; उन्हें उसे देशहित में त्यागना होगा. नि:संदेह कार्ल मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत मध्यमवर्ग का दायरा बढता गया है तथा समाज में उसकी स्थिति मजबूत हुई है पर यदि देश की राजनीति तथा प्रशासन में परिवर्तन लाने के लिए वह इसका उपयोग नहीं करता है तो हम आगे भी भ्रष्ट व्यवस्था और भ्रष्ट प्रशासन के शिकार बने रहेंगे तथा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को सहने के लिए मजबूर बने रहेंगे जिसे जन- आकांक्षाओं से कोई लेना-देना नहीं है तथा स्व-परिपोषण ही जिसका एकमात्र उद्देश्य है.
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